वैशम्पायन कह रहा है:
नियोग से पुत्र पाने की पांडु की बातें सुन
कर कुंती ने, विवाह से पहले, दुर्वासा मुनि से प्राप्त एक मंत्र की चर्चा
की. “अपने पिता के घर में उनके अतिथियों का सत्कार मेरा दायित्व होता था.
व्रती और तपस्वी ब्राह्मणों की सेवा मैं स्वयं करती थी. एक बार मेरी सेवा,
सत्कार से संतुष्ट हो दुर्वासा मुनि ने किसी भी देवता का सफल आह्वान करने
के लिए एक मंत्र मुझे दिया था. मुनि ने मंत्र देते कहा था “इस मंत्र को
पढ़ते हुए जिस देव का भी तुम स्मरण करोगी वह तुम्हारे पास चला आएगा, चाहे
आने की उस की इच्छा हो या नहीं हो, और तुम्हारी आज्ञा का पालन करेगा. उस
देव की कृपा से तुम्हे पुत्र भी प्राप्त होगा.
“उस तपस्वी ब्राह्मण के
वचन असत्य नहीं हो सकते. मैं उस मंत्र से किसी देवता को बुला सकती हूँ. आप
आज्ञा दें राजन, मैं किस देव का आह्वान करूँ. आप जो चाहेंगे वही मैं
करूँगी”.
यह सुन पांडु ने बहुत प्रसन्न हो कर कहा “इस काम के लिए
मुझे धर्मराज सब से उपयुक्त देव लग रहे हैं. सभी देवताओं में वे सब से अधिक
धर्म परायण हैं. उन से जो पुत्र मिलेगा वह सभी कुरुओं में सब से अधिक
धार्मिक होगा. धर्म और नैतिकता के देवता से उत्पन्न हमारे उस पुत्र का हृदय
सदैव पवित्र रहेगा. इस शुभ काम में कुंती विलंब नहीं करो. आज ही, देवी,
पुत्र प्राप्ति की मेरी इच्छा को तुम पूरी कर दो”.
पांडु का मन जान
कर कुंती ने उस का नमन किया और उसकी प्रदक्षिणा कर उस की आज्ञा के पालन
में लग गयी. जब गांधारी को गर्भ धारण किए एक वर्ष हो चुका था तब कुंती ने
पुत्र प्राप्ति के लिए धर्मराज का आह्वान किया था. धर्मराज का नमन कर कुंती
ने दुर्वासा के दिए मंत्र को पढ़ना प्रारंभ किया. मंत्र की शक्ति से
धर्मराज अपने स्वर्ण रथ में कुंती के पास खिंचे चले आया, और मुस्कुराते हुए
उस ने पूछा “कुंती, बोलो तुम क्या चाहती हो?”
कुंती ने भी मुस्कुराते हुए कहा “संतान”
धर्मराज
और कुंती के उस मिलन से, कार्तिक शुक्ल पंचमी के दिन अभिजीत मुहूर्त
(आठवें मुहूर्त) में पांडु के प्रथम पुत्र का जन्म हुआ. जन्म काल में
ज्येष्ठ और चंद्रमा लग्न में थे. उस शिशु के जन्म लेते ही गंभीर आकाशवाणी
हुई थी “यह बालक अद्वितीय धार्मिक होगा, अपनी अप्रतिम सत्य निष्ठा से यह
पृथ्वी पर राज करेगा और तीनो लोकों में पांडु का यह पहला पुत्र युधिष्ठिर
के नाम से जाना जाएगा".
धार्मिक पुत्र प्राप्त कर लेने के बाद
पांडु ने कुंती से एक बलवान पुत्र लाने को कहा क्योंकि विद्वानों के
अनुसार क्षत्रिय का सबल होना आवश्यक है. यह सुन कुंती ने वायु का आह्वान
किया. मंत्र के प्रभाव से अपने मृग पर आसीन शक्तिशाली पवन देव ने, उस के
पास पहुँच कर, पूछा “बोलो कुंती तुम्हे क्या चाहिए?”
सलज्ज स्वर में
कुंती ने उस से एक अप्रतिम बलवान पुत्र की माँग की जो किसी के दर्प चूर कर
सके. और पवन देव ने कुंती से भीम को उत्पन्न किया. भीम के जन्म के तुरंत
बाद कुंती की कुटिया में एक बाघ घुस आया था. बाघ देख कुंती घबड़ा कर उठ
खड़ी हुई थी जिस से उस की गोद से नवजात भीम नीचे गिर पड़ा था. कुटिया पर्वत
पर बनी थी, किंतु पत्थरों पर गिरने से भीम को तो कुछ नहीं हुआ, बस वह
पत्थर चूर्ण हो गया था. “इसी दिन” वैशम्पायन ने कहा “हस्तिनापुर में
दुर्योधन का भी जन्म हुआ था”.
वृकोदर (भीम) के जन्म के बाद पांडु
ऐसा पुत्र चाहने लगा जिस की शक्ति और जिस के चरित्र की ख्याति तीनो लोकों
में फैले. संसार में सब कुछ प्रारब्ध और पुरुषार्थ के मिलने से ही हो पाता
है. पुत्र के प्रारब्ध को बली करने के लिए उस ने देवेन्द्र से पुत्र पाने
की सोची. "देवेन्द्र को अतुल शक्ति है, उस की तपस्या कर मैं उस से एक अतुल
शक्ति वाला पुत्र पा सकूँगा. उस का दिया पुत्र सभी मानवों और मानवेतर
प्राणियों को पराजित कर सकेगा". यह सब सोच उस ने कुंती को एक वर्ष तक
मांगलिक व्रत रखने के लिए कहा और स्वयम् उस ने पूरे वर्ष एक पैर पर खड़े हो
कर कठोर तप से इंद्र को प्रसन्न करने की सोची.
बहुत
दिनों की तपस्या के बाद इंद्र ने, प्रकट हो उसे ऐसे पुत्र देने के वचन दिए
जिसे तीनो लोकों में जाना जाएगा; जो ब्राह्मणों, गौओं और सत्य-निष्ठ
व्यक्तियों के हितों की रक्षा करते हुए सभी शत्रुओं का नाश कर सकेगा.
इंद्र के वचन सुन पांडु ने कुंती से कहा “तुम्हारा व्रत सफल हुआ. देवेन्द्र
प्रसन्न हैं और जैसा तुम चाहती हो वैसा पुत्र तुम्हे मिलेगा – महात्मा,
सूर्य के समान तेजस्वी, पराक्रमी, युद्ध में अपराजेय और सुदर्शन. अब तुम
देवेन्द्र का आह्वान करो और क्षात्र गुणों से भरे उस बालक को ले आओ”.
कुंती
ने तब इंद्र का आह्वान किया और इंद्र से अर्जुन का जन्म हुआ. उस के जन्म
के समय मेघ-गर्जन के समान आकाश वाणी हुई थी जिसे पांडु और उस पर्वत पर रहने
वाले सभी तपस्वियों ने सुना था. “तुम्हारा यह पुत्र, कुंती, कार्तवीर्य और
शिबि के समान पराक्रमी और इंद्र के समान अदम्य होगा. यह तुम्हे उतना ही
आनंद देगा जितना कभी विष्णु ने (अपनी माता) अदिति को दिया था. मद्र, कुरू,
केकेय, चेदि, काशी, करुष आदि सभी राष्ट्रों को अपने अधीन कर यह कुरू वंश की
विजय पताका पूरे विश्व में लहराएगा. खांडव वन के प्राणियों की वसा से यह
अग्नि को संतुष्ट करेगा. अपने भाइयों के साथ यह तीन महान यज्ञ करेगा. शक्ति
में यह जमदाग्नि-पुत्र या विष्णु के भी समतुल्य होगा और अपने पराक्रम से
यह देवाधिदेव शंकर को भी प्रसन्न कर उनसे पाशुपत अस्त्र प्राप्त करेगा.
इंद्र की आज्ञा से यह महाबाहु देवताओं के शत्रु निवटकवच दैत्यों का नाश
करेगा. सभी दिव्य शस्त्रास्त्र प्राप्त कर यह अपने वंश की भाग्य लक्ष्मी को
पुनर्जागृत कर पाएगा.”
अदृश्य नाद वाद्यों की ध्वनि से पूरा
पर्वत क्षेत्र गूंजने लगा. आकाश से पुष्प वृष्टि होने लगी और इंद्र समेत
सभी देव आकाश में उस बालक को देखने एकत्रित हो गये. उसे सम्मानित करने
कद्रू के पुत्र, विनता का पुत्र, भरद्वाज, कश्यप, गौतम, विश्वामित्र,
जमदाग्नि, वसिष्ठ और अत्रि भी वहाँ आकाश में प्रकट हुए. साथ में मरीचि,
अंगिरस, पुलत्स्य, पुलह, क्रतु, दक्ष प्रजापति भी. तुंबरू और गंधर्व गायन
करने लगे, अप्सरायें नृत्य करने लगीं. व्योम में बारहो आदित्य, ग्यारहो
रुद्र, अठो वसु, दोनो अश्विनिकुमार, मरुतगण, विश्वदेव और साध्य प्रकट हुए.
सभी दिव्य प्राणी अदृश्य रूप में आए थे किंतु पर्वत पर रहने वाले महान
तपस्वी उन्हे देख पा रहे थे. यह अद्भुत दृश्य देख कर उन तपस्वियों के हृदय
में पांडु के पुत्रों के लिए और अधिक प्रेम उमड़ने लगा.
अर्जुन के
जन्म के कुछ समय बाद पांडु ने कुंती से और पुत्र लाने का अनुरोध किया.
किंतु कुंती इस के लिए तैयार नहीं थी “ज्ञानियों ने विपत्ति में भी चार
प्रसव की अनुशंसा नहीं की है. वैसे भी, जो स्त्री चार पुरुषों के साथ सोती
है वह व्यभिचारिणी कहलाती है और जो पाँच के साथ सोती है वह गणिका”
कुंती
के तीन और गांधारी के सौ पुत्रों के जन्म लेने के बाद एक दिन माद्री ने
एकांत में पांडु से कहा “मेरा जन्म, राजन, कुंती से उच्चतर कुल में हुआ है
फिर भी यहाँ मेरी स्थिति उस के नीचे है. मुझे इस का कोई दुख नहीं है. मुझे
दुख बस इस बात का है कि कुंती और मैं दोनो तुम्हारी पत्नियाँ हैं पर उसे
तीन पुत्र हैं और मैं निस्संतान हूँ. यदि पृथा मुझे भी माँ बनने का एक
अवसर दे देती तो मैं बहुत अनुगृहीत होती. किंतु हम दोनो तुम्हारी पत्नियाँ
हैं – तुम्हारे अनुराग के प्रतिस्पर्द्धी; इस लिए कुंती से यह बोलने में
मुझे बहुत संकोच हो रहा है. यदि तुम राजन, मेरा कल्याण-मंगल चाहते हो तो
कुंती से कह कर मेरी इच्छा पूरी करा दो.”
“मैं भी इस पर सोचता रहा
हूँ पर तुम इसे किस तरह लोगी यह नहीं जानने के चलते मैं ने इस की चर्चा कभी
नहीं की”. पांडु ने कहा “अब मैं तुम्हारी इच्छा जान गया हूँ और प्रयास
करूंगा. मुझे विश्वास है कुंती मेरे अनुरोध को नहीं ठुकराएगी.”
उसके
कुछ दिनों के बाद पांडु ने एकांत में कुंती से अपने वंश के विस्तार के लिए
कुछ और पुत्र माँगे. “कुछ ऐसा करो देवी”, उस ने कहा “कि तुम्हे, मुझे, और
हमारे पूर्वजों को सदैव पिन्ड मिलते रहें. जैसे अनंत ख्याति पाने के बाद
भी इंद्र और अधिक ख्याति के लिए यज्ञ करते रहता है; या जैसे सभी वेद
वेदांगों को पढ़ लेने के बाद भी ब्राह्मण और अधिक ख्याति के लिए अपने
गुरुओं के पास अध्ययन करते रहते हैं, वैसे ही माद्री को निस्संतान रहने से
बचा कर तुम भी चिरजीवि ख्याति प्राप्त करो.”
पांडु के वचन सुन कर
कुंती तुरंत मान गयी और माद्री से उस ने कहा “किसी देव का तुम अभी स्मरण
करो और तुम उस से उसी के समान पुत्र प्राप्त करोगी”. कुछ क्षण विचार कर
माद्री ने अश्विनिकुमारों का स्मरण किया और उन दोनों से उसे उन्ही के समान
तेजस्वी और सुदर्शन यमज पुत्र, नकुल और सहदेव, प्राप्त हुए.
कुछ
दिनों बाद पांडु ने कुंती से माद्री को माँ बनने का एक और अवसर देने का
अनुरोध किया. किंतु इस बार कुंती नहीं मानी “मैं ने उसे बस एक आह्वान के
लिए मंत्र दिया था और देखो, उस ने उसी एक आह्वान से दो दो पुत्र प्राप्त कर
लिए”. कुंती ने कहा “यदि मैं दुबारा उसे मंत्र दूँगी तो राजन, वह मुझ से
अधिक पुत्रों की माता बन जाएगी. मैं आप के पैर पड़ती हूँ मुझे दुबारा उसे
मंत्र देने को मत कहिए”.
इस तरह पांडु को देवताओं के दिए पाँच
पुत्र हुए. सभी मांगलिक चिह्न धारण किए हुए, पाँचो भाई चंद्रमा के समान
सुदर्शन और सिंह के समान आत्माभिमानी थे. शतशृंग पर रहने वाले ऋषियों ने
उनके सभी शास्त्रोक्त संस्कार कराए और पाँचो भाई उन ऋषियों और ऋषि पत्नियों
के प्रिय कृपा-पात्र बन कर किसी जलाशय में उगे कमल पुष्पों की तरह शीघ्रता
से बढ़ने लगे.
Tuesday, 26 January 2016
आदि पर्व (29): पाण्डवों के जन्म (1)
हिमालय की दक्षिणी ढाल पर विचरते हुए एक दिन पांडु ने, अपने यूथ का स्वामी लगते एक विशाल मृग को एक मृगी के साथ क्रीड़ा रत देखा. उन्हे देखते ही पांडु ने दोनो को चार-पाँच तीरों से बीन्ध डाला. दोनो गिर पड़े, पर वे साधारण मृग नहीं थे. वह विशाल मृग एक ऋषिपुत्र था जो मृग के रूप में अपनी सहचरी का सहवास सुख भोग रहा था. घायल, गिरा हुआ वह मृग पांडु से मनुष्यों की बोली में बोलने लगा. “नीच और पापी मनुष्य भी ऐसा निष्ठुर अपराध नहीं करते. भरत वंश जैसे धार्मिक कुल में जन्म लेने के बाद भी, राजन, तुम ने आखेट देख अपनी बुद्धि कैसे छोड़ दी?”
पांडु थोड़ा चकित था और थोड़ा क्रुद्ध भी. “वन में मृगों का वध सदैव से राज-धर्म रहा है. राजा ही नहीं जो भी वन में रहते हैं वे मृगों का खुल कर या छुप कर वध करते रहते हैं”, उस ने कहा. “कभी अपने यज्ञ के लिए अगस्त्य ऋषि ने एक वन के सारे मृगों का वध कर उन्हे देवताओं को चढ़ाया था. यज्ञ के होम भी उन्होने मृगों की वसा से ही किए थे. मृग के वध में किसी मनुष्य को कैसा अपराध बोध हो डाकता है?”
“तुम ने मुझे मारा, इस के लिए मैं तुम्हे कोई दोष नहीं दे रहा हूँ”, मृग ने कहा. “पर जब मैं रति क्रीड़ा में रत था उस समय मुझे मार कर तुम ने अक्षम्य अपराध किया है. मैं प्रसन्न था किंतु तुम ने मेरी प्रसन्नता परिपूर्ण नहीं होने दी. तुम नीतिज्ञ हो, अपने कर्तव्य समझते हो. तुम एक राजा हो. निष्ठुरों को दंड देना राजा का कर्तव्य होता है पर तुम स्वयं निष्ठुर बन गये हो.
“और राजन, जान लो, मैं मृग नहीं एक मुनि हूँ. अपने लज्जा-भाव के चलते मैं मनुष्य रूप में काम क्रीड़ा नहीं कर पा रहा था. तुम्हे इस का संज्ञान नहीं था इस लिए तुम ब्रह्म हत्या के पाप से मुक्त रहोगे किंतु मैं तुम्हे निश्चित शाप दूँगा. काल तुम्हारे प्रति उतना ही निष्ठुर रहेगा जितना तुम आज क्रीड़ा-रत मृग युगल के प्रति निष्ठुर रहे. जिस क्षण तुम अपनी इच्छा पूर्ति के लिए अपनी पत्नी के पास जाओगे उसी क्षण तुम्हारी मृत्यु हो जाएगी. तुम ने मेरे आनंद के क्षणों में मेरी मृत्यु ला दी है राजन, तुम्हारे आनंद के क्षणों में तुम्हारी मृत्यु आ जाएगी.” यह कहते कहते मृग के प्राण निकल गये.
राजा पांडु सोचने लगा. “जो स्वभाव से नीच होते हैं वे उच्च कुल में जन्म लेने पर भी अपनी वासनाओं के ऊपर नहीं उठ पाते. मेरे पिता राजर्षि शांतनु के पुत्र थे, किंतु सुना जाता है उनकी उत्कट काम-वासना ने उन्हें अल्पायु में मार दिया. उन्ही के क्षेत्र में वेदव्यास ने मुझे उत्पन्न किया है. ऐसे महान ऋषि का पुत्र होने पर भी मैं अपनी इच्छाओं से बँधा रहता हूँ. लगता है देवताओं ने भी मेरा साथ छोड़ दिया है.” यह सब सोच कर पांडु ने ब्रह्मचर्य व्रत पालन की सोची. “मैं तपस्या कर अपनी इच्छाओं को नियंत्रित रखूँगा और पत्नियों को छोड़ भिक्षा वृत्ति अपना लूँगा. जो भिक्षा मिलेगी उसे ही खा कर किसी वृक्ष के नीचे सो लूँगा. मैं आनद और विषाद से ऊपर उठ जाउंगा. भिक्षा के लिए पसारे मेरे हाथ को कोई काट दे या कोई उस पर चंदन लेपे, मैं दोनो को समान दृष्टि से देखुंगा …”
इस तरह बिलखते हुए पांडु ने कुंती और माद्री को हस्तिनापुर जा कर सबों को कह देने को कहा कि पांडु वानप्रस्थ हो कर तपस्वी बन गया है. पर उस की पत्नियाँ उसे छोड़ने को तैयार नहीं थीं. तीनो ने साथ रह, वन में तपस्वियों के जीवन जीने का निश्चय कर अपने आभूषण, मुकुट आदि वन में रहने वाले ब्राह्मणों को दान किए और अपने अनुचरों को हस्तिनापुर भेज दिए. पत्नियों के साथ कंद मूल खाते हुए पांडु चैत्ररथ और काल्कूट पर्वतों को पार कर गंदमादन पहुँच गया. वहाँ कुछ समय बिता कर वह विशाल जलाशय इंद्रद्युम्न के निकट गया; वहाँ उस ने हंसकूट और शतशृंग (सौ शिखर) पर्वतों पर अपने आप को तपश्चर्य्या में समर्पित कर दिया. तपस्या करते करते, अपने मन को पूर्णतः नियंत्रित रख, अपने आप को ईश्वर चिंतन में डुबा कर पांडु ने अपने तप से स्वर्ग जाने की शक्ति प्राप्त कर ली. वहाँ रहने वाले अन्य ऋषि उसे अपने अनुज या पुत्र सा स्नेह देते थे. क्षत्रिय वंश में जन्म ले कर भी पांडु एक ब्रह्मर्षि तुल्य हो गया था.
एक दिन पांडु ने ऋषियों को अपने कष्ट बताए. “किसी मनुष्य पर चार कोटि के ऋण होते हैं: पितृ के, देवताओं के, ऋषियों के और अन्य मनुष्यों के. देवताओं के ऋण यज्ञादि से चुकाए जाते हैं, ऋषियों के ऋण अध्ययन से, अन्य मनुष्यों के ऋण दयालु और मानवोचित जीवन जीने से चुक जाते हैं और पितृ के ऋण चुकाने के लिए पुत्र उत्पन्न करने पड़ते हैं. मैं तीन ऋणों से तो अपने आप को मुक्त समझता हूँ पर पुत्रहीन होने के चलते पितृ ऋण से मुक्त नहीं हो पाया हूँ.
“जैसे किस महर्षि ने मेरे पिता के क्षेत्र से मुझे उत्पन्न किया है वैसे ही क्या आप में से कोई मेरे क्षेत्र से मेरे लिए पुत्र उत्पन्न करने की कृपा करेंगे?”
पर ऋषियों ने उसे आश्वस्त किया कि उसके भी पुत्र होंगे, “हम अपनी दिव्य दृष्टि से देख पा रहे हैं, तुम्हारे अनेक प्रतापी पुत्र लिखे हुए हैं, तुम्हे ऐसे दुखी नहीं होना चाहिए.”
ऋषियों की बात सुन और अपनी अक्षमता को ध्यान में रख पांडु ने कुंती से एकांत में इस की चर्चा की. “शास्वत कीर्ति के लिए पंडितों ने पुत्र-प्राप्ति आवश्यक बताया है. यज्ञ, दान, तप और व्रत भी पुत्रहीन को पुण्य नहीं देते हैं. मरणोपरांत, पुत्रहीन होने के चलते मैं सात्विक आनंद के क्षेत्रों में नहीं जा पाऊँगा. मृग के शाप के चलते मैं पुत्र उत्पन्न नहीं कर सकता, किंतु शास्त्रों में छः प्रकार के पुत्र बताए गये हैं: किसी व्यक्ति का अपनी विवाहिता पत्नी से उत्पन्न पुत्र, उस की पत्नी से किसी सिद्ध, गुणवंत पुरुष द्वारा दया भाव से उत्पन्न किया गया पुत्र, उस की पत्नी से किसी पुरुष द्वारा धन के एवज में उत्पन्न किया गया पुत्र, उस की मृत्यु के बाद उसकी पत्नी से उत्पन्न पुत्र, किसी की पत्नी का कौमार्यावस्था में उत्पन्न पुत्र और किसी अपवित्र पत्नी का पुत्र.
“यदि किसी कारण से पहले प्रकार के पुत्र नहीं हों तो माता को दूसरे प्रकार के पुत्रों को लाने के प्रयास करने चाहिए. स्वयंभू मनु ने भी कहा है कि यदि किसी व्यक्ति के पुत्र नहीं हो रहे हों तो उसे अपनी पत्नी से दूसरे पुरुष के द्वारा पुत्र उत्पन्न करवाने चाहिए.
“शारदण्डायन की पुत्री को जब उसके पति ने किसी से पुत्र उत्पन्न करवाने को कहा था तो उस ने अपने ऋतु काल में चौरस्ते पर मिले एक तपस्वी ब्राह्मण से अनुरोध कर उस से तीन पराक्रमी पुत्र पाए थे. तुम भी कुंती उस क्षत्रिय स्त्री की तरह मेरे लिए पुत्र उत्पन्न करो.”
पांडु को ऐसे बोलते सुन कुंती स्तब्ध हो गयी. “यह आप क्या कह रहे हैं?” कुंती ने कहा “मैं आप की विवाहिता हूँ. आप मुझ से पुत्र उत्पन्न करेंगे जिन के चलते आप के साथ मैं भी स्वर्ग जा पाऊंगी. किसी दूसरे पुरुष के आलिंगन में जाने की मैं कभी सोच भी नहीं सकती हूँ.
“प्राचीन कल में पुरु वंश में व्यूषिताश्व नाम का एक सत्य-प्रिय और धार्मिक राजा हुआ था. उस के एक यज्ञ में इंद्र और महर्षियों के साथ देव गण आए थे. इंद्र सोम पान से और ब्राह्मण यज्ञ में मिले उपहारों से अपनी सुध खो बैठे थे. राजर्षि के यज्ञ का संपादन बेसुध हुए देव और महर्षियों ने किया था और राजा व्यूषिताश्व वैसे ही चमकने लगा था जैसे तुषार छँटने के बाद सूर्य. राजा ने उस यज्ञ के बाद अश्वमेध यज्ञ भी संपन्न किया. समुद्र तट तक के सभी क्षेत्रों को जीत कर व्यूषिताश्व अपनी प्रजा की वैसे रक्षा करता था जैसे कोई पिता अपने बच्चों की. उस ने बहुत दान दिए और अन्य यज्ञ भी किए. उस की एक पत्नी थी भद्रा, काक्षिवात की पुत्री. भद्रा अपूर्व सुंदरी थी और राजा रानी में प्रगाढ़ स्नेह था. वे कभी अलग नहीं रह पाते थे किंतु अतिशय भोग विलास के चलते राजा यक्ष्मा ग्रस्त हो कर समय से पहले स्वर्ग सिधार गया. भद्रा के कोई पुत्र नहीं था और अब उसके कष्ट का कोई अंत नहीं दिख रहा था.
"भद्रा विलाप कर रही थी 'पति की मृत्यु के बाद स्त्रियों का जीवन निरुद्देश्य हो जाता है. विधवा स्त्रियाँ जीती नहीं हैं बस अपने आप को इस संसार में किसी तरह घसीटती हैं. विधवाओं के लिए मृत्यु एक वरदान है. मैं भी आप के साथ चली जाना चाहती हूँ. अवश्य किसी जन्म में मैने किसी स्नेह-सिक्त युगल को विलग कर दिया होगा नहीं तो यह दुर्भाग्य मुझे नही मिलता देखने को'.
"अपने पति के शव को अपने दोनो हाथों से पकड़ कर भद्रा इस तरह विलाप कर रही थी जब उसे अशरीरी शब्द सुनाई पड़े “रो मत भद्रे” उस के मृत पति के स्वर में ये शब्द आ रहे थे “मैं तुम्हे संतान दूँगा. चंद्रमा के आठवें और चौदहवें दिन तुम स्नान कर मुझे साथ ले अपनी शैय्या पर सोना”.
“भद्रा ने वैसा ही किया और उस के मृत पति ने उसे सात पुत्र दिए – तीन शाल्व और चार माद्र.”
व्यूषिताश्व की कथा सुना कर कुंती ने कहा “जब वह राजा मृत्यु के बाद भी पुत्र दे सकता था राजन, तो आप के जैसा तपस्वी हमें क्यों नही दे सकेगा?”
पांडु भी जानता था कि व्यूषिताश्व ने मृत्यु के बाद भी अपनी रानी को पुत्र दिए थे. “वह देव-तुल्य था”, पांडु ने कहा “मैं तुम्हे नीतिज्ञ ब्राह्मणों से सुनी बात सुनाता हूँ. प्राचीन काल में स्त्रियाँ अपने घरों में बँधी नही रहती थीं और न ही वे अपने पति या किसी और संबंधी पर आश्रित रहती थीं. उन दिनों वे स्वच्छन्द विचरती थीं और स्वेच्छा से आनंद – विहार करती चलती थीं. अपने पतियों के प्रति एकनिष्ठ नहीं रहने पर भी वे पतिता नहीं कही जातीं थी. उस काल की यही प्रथा थी. इस प्रथा को महर्षियों का समर्थन मिला हुआ है. उत्तर कुरुओं में अभी भी इस प्रथा को सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है. वर्तमान प्रथा – स्त्री एक पति के साथ जीवन पर्यंत रहेगी – का कोई प्राचीन आधार नहीं है. यह एक नया प्रचलन है.” यह कह कर पांडु ने वर्तमान प्रथा स्थापित होने का प्रसंग सुनाया.
“कभी उद्दालक नाम के एक महर्षि को श्वेतकेतु नाम का एक तपस्वी पुत्र हुआ करता था. आज की प्रथा का जन्म श्वेतकेतु के क्रोध से हुआ है. एक दिन श्वेतकेतु के पिता की उपस्थिति में एक ब्राह्मण ने आ कर उस की माँ के हाथ धर उसे चलने को कहने लगा. अपनी माँ को इस तरह बलात ले जाते हुए देख कर श्वेतकेतु बहुत क्रुद्ध हुआ. पुत्र के क्रोध को देख उद्दालक ने उसे शांत करते हुए कहा “यह एक प्राचीन परंपरा है पुत्र, इस पर क्रोध मत करो. सभी वर्णों की स्त्रियाँ स्वतन्त्र हैं.” श्वेतकेतु ने इस का विरोध किया और उसी ने वर्तमान प्रथा को स्थापित किया. अब किसी स्त्री का एकनिष्ठ नहीं रहना पाप पूर्ण है, उन्हे भ्रूण हत्या का दोषी माना जाता है. पुरुष भी यदि किसी पतिव्रता स्त्री का अतिक्रमण करते हैं तो वैसे ही पापी समझे जाते हैं. और जो स्त्री अपने पति की आज्ञा पर भी दूसरे से पुत्र उत्पन्न नहीं कराती है वह भी पाप पूर्ण हो जाती है.
“राजा सौदास (1) के पुत्र अश्मक को वसिष्ठ ने सौदास की पत्नी मदयंती से उत्पन्न किया था. कुरू वंश को जीवित रखने के लिए हमें वेद व्यास ने हमारी माताओं से उत्पन्न किया था. मैने जो कुछ भी तुम से कहा है वह सर्वथा धर्म संगत है. नीतिज्ञों ने यह भी कहा है कि स्त्रियों को गर्भ धारण के उपयुक्त समय में अपने पतियों के पास ही जाना चाहिए किंतु अन्य समय वे कहीं भी जाने को स्वततन्त्र हैं. वेद कहते हैं कि पत्नी को पति की आज्ञा का कभी उल्लंघन नहीं करना चाहिए. और मेरा यह अनुरोध तो तुम्हे कभी नहीं उठाना चाहिए क्यों कि मैं पुत्र उत्पन्न करने में असमर्थ हूँ".
(1) राजा सौदास इक्ष्वाकु वंश के, कोसल के राजा सुदास का पुत्र था. उस के अन्य नाम मित्रसह और कल्माषपाद थे. कुछ संदर्भों के अनुसार सौदास इक्ष्वाकु वंश के ही ऋतुपर्ण का पुत्र था. (इसी ऋतुपर्ण की अश्वशाला में निषाद राज नल ने चाकरी की थी.)
अपने अश्वमेध यज्ञ में एक राक्षस की माया के चलते उस ने अपने रित्विज वसिष्ठ को भोजन में नर-माँस दे दिया था. पता चलने पर वसिष्ठ ने सौदास को नरभक्षी बन जाने का शाप दिया. जब वसिष्ठ को राक्षस की माया का पता चला तो उस ने शाप की अवधि सीमित कर 12 वर्ष कर दी थी. सौदास निर्दोष था, उस ने भी वसिष्ठ को शाप देने के लिए जल उठाया, फिर गुरु को शाप देने के अनौचित्य की सोच ठिठक गया. उस जल को वह पृथ्वी पर नहीं गिरा सकता था क्यों कि वैसा करने पर दुर्भिक्ष आता और आकाश में नहीं फेंक सकता था क्यों कि वैसे करने पर मेघ हट जाते. उस ने उस जल को अपने पैरों पर फेंक दिया. तब तक जल इतना तप्त हो चुका था कि उस के पैर काले हो गये और उस का नाम कल्माषपाद पड़ा.
अपने नर-भक्षण के काल में उस ने एक सहवास रत ब्राह्मण का भक्षण किया था जब ब्राह्मणी से उसे समागम के समय मर जाने का शाप मिल गया था. पुत्र उत्पन्न करने में असमर्थ, सौदास ने अपनी रानी मदयंती से पुत्र उत्पन्न करने के लिए वसिष्ठ को नियुक्त किया था और इस तरह उसके पुत्र अश्मक का जन्म हुआ था.
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