वैशम्पायन कह रहा है:
नियोग से पुत्र पाने की पांडु की बातें सुन
कर कुंती ने, विवाह से पहले, दुर्वासा मुनि से प्राप्त एक मंत्र की चर्चा
की. “अपने पिता के घर में उनके अतिथियों का सत्कार मेरा दायित्व होता था.
व्रती और तपस्वी ब्राह्मणों की सेवा मैं स्वयं करती थी. एक बार मेरी सेवा,
सत्कार से संतुष्ट हो दुर्वासा मुनि ने किसी भी देवता का सफल आह्वान करने
के लिए एक मंत्र मुझे दिया था. मुनि ने मंत्र देते कहा था “इस मंत्र को
पढ़ते हुए जिस देव का भी तुम स्मरण करोगी वह तुम्हारे पास चला आएगा, चाहे
आने की उस की इच्छा हो या नहीं हो, और तुम्हारी आज्ञा का पालन करेगा. उस
देव की कृपा से तुम्हे पुत्र भी प्राप्त होगा.
“उस तपस्वी ब्राह्मण के
वचन असत्य नहीं हो सकते. मैं उस मंत्र से किसी देवता को बुला सकती हूँ. आप
आज्ञा दें राजन, मैं किस देव का आह्वान करूँ. आप जो चाहेंगे वही मैं
करूँगी”.
यह सुन पांडु ने बहुत प्रसन्न हो कर कहा “इस काम के लिए
मुझे धर्मराज सब से उपयुक्त देव लग रहे हैं. सभी देवताओं में वे सब से अधिक
धर्म परायण हैं. उन से जो पुत्र मिलेगा वह सभी कुरुओं में सब से अधिक
धार्मिक होगा. धर्म और नैतिकता के देवता से उत्पन्न हमारे उस पुत्र का हृदय
सदैव पवित्र रहेगा. इस शुभ काम में कुंती विलंब नहीं करो. आज ही, देवी,
पुत्र प्राप्ति की मेरी इच्छा को तुम पूरी कर दो”.
पांडु का मन जान
कर कुंती ने उस का नमन किया और उसकी प्रदक्षिणा कर उस की आज्ञा के पालन
में लग गयी. जब गांधारी को गर्भ धारण किए एक वर्ष हो चुका था तब कुंती ने
पुत्र प्राप्ति के लिए धर्मराज का आह्वान किया था. धर्मराज का नमन कर कुंती
ने दुर्वासा के दिए मंत्र को पढ़ना प्रारंभ किया. मंत्र की शक्ति से
धर्मराज अपने स्वर्ण रथ में कुंती के पास खिंचे चले आया, और मुस्कुराते हुए
उस ने पूछा “कुंती, बोलो तुम क्या चाहती हो?”
कुंती ने भी मुस्कुराते हुए कहा “संतान”
धर्मराज
और कुंती के उस मिलन से, कार्तिक शुक्ल पंचमी के दिन अभिजीत मुहूर्त
(आठवें मुहूर्त) में पांडु के प्रथम पुत्र का जन्म हुआ. जन्म काल में
ज्येष्ठ और चंद्रमा लग्न में थे. उस शिशु के जन्म लेते ही गंभीर आकाशवाणी
हुई थी “यह बालक अद्वितीय धार्मिक होगा, अपनी अप्रतिम सत्य निष्ठा से यह
पृथ्वी पर राज करेगा और तीनो लोकों में पांडु का यह पहला पुत्र युधिष्ठिर
के नाम से जाना जाएगा".
धार्मिक पुत्र प्राप्त कर लेने के बाद
पांडु ने कुंती से एक बलवान पुत्र लाने को कहा क्योंकि विद्वानों के
अनुसार क्षत्रिय का सबल होना आवश्यक है. यह सुन कुंती ने वायु का आह्वान
किया. मंत्र के प्रभाव से अपने मृग पर आसीन शक्तिशाली पवन देव ने, उस के
पास पहुँच कर, पूछा “बोलो कुंती तुम्हे क्या चाहिए?”
सलज्ज स्वर में
कुंती ने उस से एक अप्रतिम बलवान पुत्र की माँग की जो किसी के दर्प चूर कर
सके. और पवन देव ने कुंती से भीम को उत्पन्न किया. भीम के जन्म के तुरंत
बाद कुंती की कुटिया में एक बाघ घुस आया था. बाघ देख कुंती घबड़ा कर उठ
खड़ी हुई थी जिस से उस की गोद से नवजात भीम नीचे गिर पड़ा था. कुटिया पर्वत
पर बनी थी, किंतु पत्थरों पर गिरने से भीम को तो कुछ नहीं हुआ, बस वह
पत्थर चूर्ण हो गया था. “इसी दिन” वैशम्पायन ने कहा “हस्तिनापुर में
दुर्योधन का भी जन्म हुआ था”.
वृकोदर (भीम) के जन्म के बाद पांडु
ऐसा पुत्र चाहने लगा जिस की शक्ति और जिस के चरित्र की ख्याति तीनो लोकों
में फैले. संसार में सब कुछ प्रारब्ध और पुरुषार्थ के मिलने से ही हो पाता
है. पुत्र के प्रारब्ध को बली करने के लिए उस ने देवेन्द्र से पुत्र पाने
की सोची. "देवेन्द्र को अतुल शक्ति है, उस की तपस्या कर मैं उस से एक अतुल
शक्ति वाला पुत्र पा सकूँगा. उस का दिया पुत्र सभी मानवों और मानवेतर
प्राणियों को पराजित कर सकेगा". यह सब सोच उस ने कुंती को एक वर्ष तक
मांगलिक व्रत रखने के लिए कहा और स्वयम् उस ने पूरे वर्ष एक पैर पर खड़े हो
कर कठोर तप से इंद्र को प्रसन्न करने की सोची.
बहुत
दिनों की तपस्या के बाद इंद्र ने, प्रकट हो उसे ऐसे पुत्र देने के वचन दिए
जिसे तीनो लोकों में जाना जाएगा; जो ब्राह्मणों, गौओं और सत्य-निष्ठ
व्यक्तियों के हितों की रक्षा करते हुए सभी शत्रुओं का नाश कर सकेगा.
इंद्र के वचन सुन पांडु ने कुंती से कहा “तुम्हारा व्रत सफल हुआ. देवेन्द्र
प्रसन्न हैं और जैसा तुम चाहती हो वैसा पुत्र तुम्हे मिलेगा – महात्मा,
सूर्य के समान तेजस्वी, पराक्रमी, युद्ध में अपराजेय और सुदर्शन. अब तुम
देवेन्द्र का आह्वान करो और क्षात्र गुणों से भरे उस बालक को ले आओ”.
कुंती
ने तब इंद्र का आह्वान किया और इंद्र से अर्जुन का जन्म हुआ. उस के जन्म
के समय मेघ-गर्जन के समान आकाश वाणी हुई थी जिसे पांडु और उस पर्वत पर रहने
वाले सभी तपस्वियों ने सुना था. “तुम्हारा यह पुत्र, कुंती, कार्तवीर्य और
शिबि के समान पराक्रमी और इंद्र के समान अदम्य होगा. यह तुम्हे उतना ही
आनंद देगा जितना कभी विष्णु ने (अपनी माता) अदिति को दिया था. मद्र, कुरू,
केकेय, चेदि, काशी, करुष आदि सभी राष्ट्रों को अपने अधीन कर यह कुरू वंश की
विजय पताका पूरे विश्व में लहराएगा. खांडव वन के प्राणियों की वसा से यह
अग्नि को संतुष्ट करेगा. अपने भाइयों के साथ यह तीन महान यज्ञ करेगा. शक्ति
में यह जमदाग्नि-पुत्र या विष्णु के भी समतुल्य होगा और अपने पराक्रम से
यह देवाधिदेव शंकर को भी प्रसन्न कर उनसे पाशुपत अस्त्र प्राप्त करेगा.
इंद्र की आज्ञा से यह महाबाहु देवताओं के शत्रु निवटकवच दैत्यों का नाश
करेगा. सभी दिव्य शस्त्रास्त्र प्राप्त कर यह अपने वंश की भाग्य लक्ष्मी को
पुनर्जागृत कर पाएगा.”
अदृश्य नाद वाद्यों की ध्वनि से पूरा
पर्वत क्षेत्र गूंजने लगा. आकाश से पुष्प वृष्टि होने लगी और इंद्र समेत
सभी देव आकाश में उस बालक को देखने एकत्रित हो गये. उसे सम्मानित करने
कद्रू के पुत्र, विनता का पुत्र, भरद्वाज, कश्यप, गौतम, विश्वामित्र,
जमदाग्नि, वसिष्ठ और अत्रि भी वहाँ आकाश में प्रकट हुए. साथ में मरीचि,
अंगिरस, पुलत्स्य, पुलह, क्रतु, दक्ष प्रजापति भी. तुंबरू और गंधर्व गायन
करने लगे, अप्सरायें नृत्य करने लगीं. व्योम में बारहो आदित्य, ग्यारहो
रुद्र, अठो वसु, दोनो अश्विनिकुमार, मरुतगण, विश्वदेव और साध्य प्रकट हुए.
सभी दिव्य प्राणी अदृश्य रूप में आए थे किंतु पर्वत पर रहने वाले महान
तपस्वी उन्हे देख पा रहे थे. यह अद्भुत दृश्य देख कर उन तपस्वियों के हृदय
में पांडु के पुत्रों के लिए और अधिक प्रेम उमड़ने लगा.
अर्जुन के
जन्म के कुछ समय बाद पांडु ने कुंती से और पुत्र लाने का अनुरोध किया.
किंतु कुंती इस के लिए तैयार नहीं थी “ज्ञानियों ने विपत्ति में भी चार
प्रसव की अनुशंसा नहीं की है. वैसे भी, जो स्त्री चार पुरुषों के साथ सोती
है वह व्यभिचारिणी कहलाती है और जो पाँच के साथ सोती है वह गणिका”
कुंती
के तीन और गांधारी के सौ पुत्रों के जन्म लेने के बाद एक दिन माद्री ने
एकांत में पांडु से कहा “मेरा जन्म, राजन, कुंती से उच्चतर कुल में हुआ है
फिर भी यहाँ मेरी स्थिति उस के नीचे है. मुझे इस का कोई दुख नहीं है. मुझे
दुख बस इस बात का है कि कुंती और मैं दोनो तुम्हारी पत्नियाँ हैं पर उसे
तीन पुत्र हैं और मैं निस्संतान हूँ. यदि पृथा मुझे भी माँ बनने का एक
अवसर दे देती तो मैं बहुत अनुगृहीत होती. किंतु हम दोनो तुम्हारी पत्नियाँ
हैं – तुम्हारे अनुराग के प्रतिस्पर्द्धी; इस लिए कुंती से यह बोलने में
मुझे बहुत संकोच हो रहा है. यदि तुम राजन, मेरा कल्याण-मंगल चाहते हो तो
कुंती से कह कर मेरी इच्छा पूरी करा दो.”
“मैं भी इस पर सोचता रहा
हूँ पर तुम इसे किस तरह लोगी यह नहीं जानने के चलते मैं ने इस की चर्चा कभी
नहीं की”. पांडु ने कहा “अब मैं तुम्हारी इच्छा जान गया हूँ और प्रयास
करूंगा. मुझे विश्वास है कुंती मेरे अनुरोध को नहीं ठुकराएगी.”
उसके
कुछ दिनों के बाद पांडु ने एकांत में कुंती से अपने वंश के विस्तार के लिए
कुछ और पुत्र माँगे. “कुछ ऐसा करो देवी”, उस ने कहा “कि तुम्हे, मुझे, और
हमारे पूर्वजों को सदैव पिन्ड मिलते रहें. जैसे अनंत ख्याति पाने के बाद
भी इंद्र और अधिक ख्याति के लिए यज्ञ करते रहता है; या जैसे सभी वेद
वेदांगों को पढ़ लेने के बाद भी ब्राह्मण और अधिक ख्याति के लिए अपने
गुरुओं के पास अध्ययन करते रहते हैं, वैसे ही माद्री को निस्संतान रहने से
बचा कर तुम भी चिरजीवि ख्याति प्राप्त करो.”
पांडु के वचन सुन कर
कुंती तुरंत मान गयी और माद्री से उस ने कहा “किसी देव का तुम अभी स्मरण
करो और तुम उस से उसी के समान पुत्र प्राप्त करोगी”. कुछ क्षण विचार कर
माद्री ने अश्विनिकुमारों का स्मरण किया और उन दोनों से उसे उन्ही के समान
तेजस्वी और सुदर्शन यमज पुत्र, नकुल और सहदेव, प्राप्त हुए.
कुछ
दिनों बाद पांडु ने कुंती से माद्री को माँ बनने का एक और अवसर देने का
अनुरोध किया. किंतु इस बार कुंती नहीं मानी “मैं ने उसे बस एक आह्वान के
लिए मंत्र दिया था और देखो, उस ने उसी एक आह्वान से दो दो पुत्र प्राप्त कर
लिए”. कुंती ने कहा “यदि मैं दुबारा उसे मंत्र दूँगी तो राजन, वह मुझ से
अधिक पुत्रों की माता बन जाएगी. मैं आप के पैर पड़ती हूँ मुझे दुबारा उसे
मंत्र देने को मत कहिए”.
इस तरह पांडु को देवताओं के दिए पाँच
पुत्र हुए. सभी मांगलिक चिह्न धारण किए हुए, पाँचो भाई चंद्रमा के समान
सुदर्शन और सिंह के समान आत्माभिमानी थे. शतशृंग पर रहने वाले ऋषियों ने
उनके सभी शास्त्रोक्त संस्कार कराए और पाँचो भाई उन ऋषियों और ऋषि पत्नियों
के प्रिय कृपा-पात्र बन कर किसी जलाशय में उगे कमल पुष्पों की तरह शीघ्रता
से बढ़ने लगे.
Dear Sir , ... Please post after आदि पर्व (30): पाण्डवों के जन्म (2).
ReplyDeleteI want to read full.
Whhere I find afterwards ?
ReplyDelete