Tuesday, 26 January 2016

आदि पर्व (30): पाण्डवों के जन्म (2)

वैशम्पायन कह रहा है:

नियोग से पुत्र पाने की पांडु की बातें सुन कर कुंती ने, विवाह से पहले, दुर्वासा मुनि से प्राप्त एक मंत्र की चर्चा की. “अपने पिता के घर में उनके अतिथियों का सत्कार मेरा दायित्व होता था. व्रती और तपस्वी ब्राह्मणों की सेवा मैं स्वयं करती थी. एक बार मेरी सेवा, सत्कार से संतुष्ट हो दुर्वासा मुनि ने किसी भी देवता का सफल आह्वान करने के लिए एक मंत्र मुझे दिया था. मुनि ने मंत्र देते कहा था “इस मंत्र को पढ़ते हुए जिस देव का भी तुम स्मरण करोगी  वह तुम्हारे पास चला आएगा,  चाहे आने की उस की इच्छा हो या नहीं हो,  और तुम्हारी आज्ञा का पालन करेगा. उस देव की कृपा से तुम्हे पुत्र भी प्राप्त होगा. 
“उस तपस्वी ब्राह्मण के वचन असत्य नहीं हो सकते. मैं उस मंत्र से किसी देवता को बुला सकती हूँ. आप आज्ञा दें राजन, मैं किस देव का आह्वान करूँ. आप जो चाहेंगे वही मैं करूँगी”.

यह सुन पांडु ने बहुत प्रसन्न हो कर कहा “इस काम के लिए मुझे धर्मराज सब से उपयुक्त देव लग रहे हैं. सभी देवताओं में वे सब से अधिक धर्म परायण हैं. उन से जो पुत्र मिलेगा वह सभी कुरुओं में सब से अधिक धार्मिक होगा. धर्म और नैतिकता के देवता से उत्पन्न हमारे उस पुत्र का हृदय सदैव पवित्र रहेगा. इस शुभ काम में कुंती विलंब नहीं करो. आज ही, देवी, पुत्र प्राप्ति की मेरी इच्छा को तुम पूरी कर दो”.

पांडु का मन जान कर कुंती ने उस का नमन किया और उसकी प्रदक्षिणा कर उस की आज्ञा के पालन में लग गयी. जब गांधारी को गर्भ धारण किए एक वर्ष हो चुका था तब कुंती ने पुत्र प्राप्ति के लिए धर्मराज का आह्वान किया था. धर्मराज का नमन कर कुंती ने दुर्वासा के दिए मंत्र को पढ़ना प्रारंभ किया. मंत्र की शक्ति से धर्मराज अपने स्वर्ण रथ में कुंती के पास खिंचे चले आया, और मुस्कुराते हुए उस ने पूछा “कुंती, बोलो तुम क्या चाहती हो?”
कुंती ने भी मुस्कुराते हुए कहा “संतान”

धर्मराज और कुंती के उस मिलन से, कार्तिक शुक्ल पंचमी के दिन अभिजीत मुहूर्त (आठवें मुहूर्त) में  पांडु के प्रथम पुत्र का जन्म हुआ. जन्म काल में ज्येष्ठ और चंद्रमा लग्न में थे. उस शिशु के जन्म लेते ही गंभीर आकाशवाणी हुई थी “यह बालक अद्वितीय धार्मिक होगा, अपनी अप्रतिम सत्य निष्ठा से यह पृथ्वी पर राज करेगा और तीनो लोकों में पांडु का यह पहला पुत्र युधिष्ठिर के नाम से जाना जाएगा".

धार्मिक पुत्र प्राप्त कर लेने के बाद पांडु ने कुंती से एक बलवान पुत्र लाने को कहा क्योंकि विद्वानों  के अनुसार क्षत्रिय का सबल होना आवश्यक है.  यह सुन कुंती ने वायु का आह्वान किया. मंत्र के प्रभाव से अपने मृग पर आसीन शक्तिशाली पवन देव ने, उस के पास पहुँच कर,  पूछा “बोलो कुंती तुम्हे क्या चाहिए?”
सलज्ज स्वर में कुंती ने उस से एक अप्रतिम बलवान पुत्र की माँग की जो किसी के दर्प चूर कर सके.  और पवन देव ने कुंती से भीम को उत्पन्न किया. भीम के जन्म के तुरंत बाद कुंती की कुटिया में एक बाघ घुस आया था. बाघ देख कुंती घबड़ा कर उठ खड़ी हुई थी जिस से उस की गोद से नवजात भीम नीचे गिर पड़ा था. कुटिया पर्वत पर बनी थी, किंतु पत्थरों पर गिरने से भीम को तो कुछ नहीं हुआ, बस वह पत्थर चूर्ण हो गया था. “इसी दिन” वैशम्पायन ने कहा “हस्तिनापुर में दुर्योधन का भी जन्म हुआ था”.

वृकोदर (भीम) के जन्म के बाद पांडु ऐसा पुत्र चाहने लगा जिस की शक्ति और जिस के चरित्र की ख्याति तीनो लोकों में फैले. संसार में सब कुछ प्रारब्ध और पुरुषार्थ के मिलने से ही हो पाता है. पुत्र के प्रारब्ध को बली करने के लिए उस ने देवेन्द्र से पुत्र पाने की सोची. "देवेन्द्र को अतुल शक्ति है, उस की तपस्या कर मैं उस से एक अतुल शक्ति वाला पुत्र पा सकूँगा. उस का दिया पुत्र सभी मानवों और मानवेतर प्राणियों को पराजित कर सकेगा". यह सब सोच उस ने कुंती को एक वर्ष तक मांगलिक व्रत रखने के लिए कहा और स्वयम् उस ने पूरे वर्ष एक पैर पर खड़े हो कर कठोर तप से इंद्र को प्रसन्न करने की सोची.

बहुत दिनों की तपस्या के बाद इंद्र ने, प्रकट हो उसे ऐसे पुत्र देने के वचन दिए जिसे तीनो लोकों में जाना जाएगा;  जो ब्राह्मणों, गौओं और सत्य-निष्ठ व्यक्तियों के हितों की रक्षा करते हुए सभी शत्रुओं का नाश कर सकेगा.  इंद्र के वचन सुन पांडु ने कुंती से कहा “तुम्हारा व्रत सफल हुआ. देवेन्द्र प्रसन्न हैं और जैसा तुम चाहती हो वैसा पुत्र तुम्हे मिलेगा – महात्मा, सूर्य के समान तेजस्वी, पराक्रमी, युद्ध में अपराजेय और सुदर्शन. अब तुम देवेन्द्र का आह्वान करो और क्षात्र गुणों से भरे उस बालक को ले आओ”.

कुंती ने तब इंद्र का आह्वान किया और इंद्र से अर्जुन का जन्म हुआ. उस के जन्म के समय मेघ-गर्जन के समान आकाश वाणी हुई थी जिसे पांडु और उस पर्वत पर रहने वाले सभी तपस्वियों ने सुना था. “तुम्हारा यह पुत्र, कुंती, कार्तवीर्य और शिबि के समान पराक्रमी और इंद्र के समान अदम्य होगा. यह तुम्हे उतना ही आनंद देगा जितना कभी विष्णु ने (अपनी माता) अदिति को दिया था. मद्र, कुरू, केकेय, चेदि, काशी, करुष आदि सभी राष्ट्रों को अपने अधीन कर यह कुरू वंश की विजय पताका पूरे विश्व में लहराएगा. खांडव वन के प्राणियों की वसा से यह अग्नि को संतुष्ट करेगा. अपने भाइयों के साथ यह तीन महान यज्ञ करेगा. शक्ति में यह जमदाग्नि-पुत्र या विष्णु के भी समतुल्य होगा और अपने पराक्रम से यह देवाधिदेव शंकर को भी प्रसन्न कर उनसे पाशुपत अस्त्र प्राप्त करेगा. इंद्र की आज्ञा से यह महाबाहु देवताओं के शत्रु निवटकवच दैत्यों का नाश करेगा. सभी दिव्य शस्त्रास्त्र प्राप्त कर यह अपने वंश की भाग्य लक्ष्मी को पुनर्जागृत कर पाएगा.”

अदृश्य नाद वाद्यों की ध्वनि से पूरा पर्वत क्षेत्र गूंजने लगा. आकाश से पुष्प वृष्टि होने लगी और इंद्र समेत सभी देव आकाश में उस बालक को देखने एकत्रित हो गये. उसे सम्मानित करने कद्रू के पुत्र, विनता का पुत्र, भरद्वाज, कश्यप, गौतम, विश्वामित्र, जमदाग्नि, वसिष्ठ और अत्रि भी वहाँ आकाश में प्रकट हुए. साथ में मरीचि, अंगिरस, पुलत्स्य, पुलह, क्रतु, दक्ष प्रजापति भी. तुंबरू और गंधर्व गायन करने लगे,  अप्सरायें नृत्य करने लगीं. व्योम में बारहो आदित्य, ग्यारहो रुद्र, अठो वसु, दोनो अश्विनिकुमार, मरुतगण, विश्वदेव और साध्य प्रकट हुए.  सभी दिव्य प्राणी अदृश्य रूप में आए थे किंतु पर्वत पर रहने वाले महान तपस्वी उन्हे देख पा रहे थे. यह अद्भुत दृश्य देख कर उन तपस्वियों के हृदय में पांडु के पुत्रों के लिए और अधिक प्रेम उमड़ने लगा.

अर्जुन के जन्म के कुछ समय बाद पांडु ने कुंती से और पुत्र लाने का अनुरोध किया. किंतु कुंती इस के लिए तैयार नहीं थी “ज्ञानियों ने विपत्ति में भी चार प्रसव की अनुशंसा नहीं की है. वैसे भी, जो स्त्री चार पुरुषों के साथ सोती है वह व्यभिचारिणी कहलाती है और जो पाँच के साथ सोती है वह गणिका” 

कुंती के तीन और गांधारी के सौ पुत्रों के जन्म लेने के बाद एक दिन माद्री ने एकांत में पांडु से कहा “मेरा जन्म, राजन, कुंती से उच्चतर कुल में हुआ है फिर भी यहाँ मेरी स्थिति उस के नीचे है. मुझे इस का कोई दुख नहीं है. मुझे दुख बस इस बात का है कि कुंती और मैं दोनो तुम्हारी पत्नियाँ हैं पर उसे तीन पुत्र हैं और मैं निस्संतान हूँ.  यदि पृथा मुझे भी माँ बनने का एक अवसर दे देती तो मैं बहुत अनुगृहीत होती. किंतु हम दोनो तुम्हारी पत्नियाँ हैं – तुम्हारे अनुराग के प्रतिस्पर्द्धी; इस लिए कुंती से यह बोलने में मुझे बहुत संकोच हो रहा है. यदि तुम राजन, मेरा कल्याण-मंगल चाहते हो तो कुंती से कह कर मेरी इच्छा पूरी करा दो.”

“मैं भी इस पर सोचता रहा हूँ पर तुम इसे किस तरह लोगी यह नहीं जानने के चलते मैं ने इस की चर्चा कभी नहीं की”. पांडु ने कहा “अब मैं तुम्हारी इच्छा जान गया हूँ और प्रयास करूंगा. मुझे विश्वास है कुंती मेरे अनुरोध को नहीं ठुकराएगी.”

उसके कुछ दिनों के बाद पांडु ने एकांत में कुंती से अपने वंश के विस्तार के लिए कुछ और पुत्र माँगे.  “कुछ ऐसा करो देवी”, उस ने कहा “कि तुम्हे, मुझे, और हमारे पूर्वजों को सदैव पिन्ड मिलते रहें. जैसे अनंत ख्याति पाने के बाद भी इंद्र और अधिक ख्याति के लिए यज्ञ करते रहता है; या जैसे सभी वेद वेदांगों को पढ़ लेने के बाद भी ब्राह्मण और अधिक ख्याति के लिए अपने गुरुओं के पास अध्ययन करते रहते हैं, वैसे ही माद्री को निस्संतान रहने से बचा कर तुम भी चिरजीवि ख्याति प्राप्त करो.”  

पांडु के वचन सुन कर कुंती तुरंत मान गयी और माद्री से उस ने कहा “किसी देव का तुम अभी स्मरण करो और तुम उस से उसी के समान पुत्र प्राप्त करोगी”. कुछ क्षण विचार कर माद्री ने अश्विनिकुमारों का स्मरण किया और उन दोनों से उसे उन्ही के समान तेजस्वी और सुदर्शन यमज पुत्र, नकुल और सहदेव, प्राप्त हुए.

कुछ दिनों बाद पांडु ने कुंती से माद्री को माँ बनने का एक और अवसर देने का अनुरोध किया. किंतु इस बार कुंती नहीं मानी “मैं ने उसे बस एक आह्वान के लिए मंत्र दिया था और देखो, उस ने उसी एक आह्वान से दो दो पुत्र प्राप्त कर लिए”. कुंती ने कहा “यदि मैं दुबारा उसे मंत्र दूँगी तो राजन, वह मुझ से अधिक पुत्रों की माता बन जाएगी. मैं आप के पैर पड़ती हूँ मुझे दुबारा उसे मंत्र देने को मत कहिए”. 

इस तरह पांडु को देवताओं के दिए पाँच पुत्र हुए. सभी मांगलिक चिह्न धारण किए हुए, पाँचो भाई चंद्रमा के समान सुदर्शन और सिंह के समान आत्माभिमानी थे. शतशृंग पर रहने वाले ऋषियों ने उनके सभी शास्त्रोक्त संस्कार कराए और पाँचो भाई उन ऋषियों और ऋषि पत्नियों के प्रिय कृपा-पात्र बन कर किसी जलाशय में उगे कमल पुष्पों की तरह शीघ्रता से बढ़ने लगे.

आदि पर्व (29): पाण्डवों के जन्म (1)


हिमालय की दक्षिणी ढाल पर विचरते हुए एक दिन पांडु ने, अपने यूथ का स्वामी लगते एक विशाल मृग को एक मृगी के साथ क्रीड़ा रत देखा. उन्हे देखते ही पांडु ने दोनो को चार-पाँच तीरों से बीन्ध डाला.  दोनो गिर पड़े, पर वे साधारण मृग नहीं थे. वह विशाल मृग एक ऋषिपुत्र था जो मृग के रूप में अपनी सहचरी का सहवास सुख भोग रहा था. घायल, गिरा हुआ वह मृग पांडु से मनुष्यों की बोली में बोलने लगा. “नीच और पापी मनुष्य भी ऐसा निष्ठुर अपराध नहीं करते. भरत वंश जैसे धार्मिक कुल में जन्म लेने के बाद भी, राजन, तुम ने आखेट देख अपनी बुद्धि कैसे छोड़ दी?”

पांडु थोड़ा चकित था और थोड़ा क्रुद्ध भी. “वन में मृगों का वध सदैव से राज-धर्म रहा है. राजा ही नहीं जो भी वन में रहते हैं वे मृगों का खुल कर या छुप कर वध करते रहते हैं”, उस ने कहा. “कभी अपने यज्ञ के लिए अगस्त्य ऋषि ने एक वन के सारे मृगों का वध कर उन्हे देवताओं को चढ़ाया था. यज्ञ के होम भी उन्होने मृगों की वसा से ही किए थे. मृग के वध में किसी मनुष्य को कैसा अपराध बोध हो डाकता है?”

“तुम ने मुझे मारा, इस के लिए मैं तुम्हे कोई दोष नहीं दे रहा हूँ”, मृग ने कहा. “पर जब मैं रति क्रीड़ा में रत था उस समय मुझे मार कर तुम ने अक्षम्य अपराध किया है. मैं प्रसन्न था किंतु तुम ने मेरी प्रसन्नता परिपूर्ण नहीं होने दी. तुम नीतिज्ञ हो, अपने कर्तव्य समझते हो. तुम एक राजा हो. निष्ठुरों को दंड देना राजा का कर्तव्य होता है पर तुम स्वयं निष्ठुर बन गये हो.

“और राजन, जान लो, मैं मृग नहीं एक मुनि हूँ. अपने लज्जा-भाव के चलते मैं मनुष्य रूप में काम क्रीड़ा नहीं कर पा रहा था. तुम्हे इस का संज्ञान नहीं था इस लिए तुम ब्रह्म हत्या के पाप से मुक्त रहोगे किंतु मैं तुम्हे निश्चित शाप दूँगा. काल तुम्हारे प्रति उतना ही निष्ठुर रहेगा जितना तुम आज क्रीड़ा-रत मृग युगल के प्रति निष्ठुर रहे. जिस क्षण तुम अपनी इच्छा पूर्ति के लिए अपनी पत्नी के पास जाओगे उसी क्षण तुम्हारी मृत्यु हो जाएगी. तुम ने मेरे आनंद के क्षणों में मेरी मृत्यु ला दी है राजन, तुम्हारे आनंद के क्षणों में तुम्हारी मृत्यु आ जाएगी.” यह कहते कहते मृग के प्राण निकल गये.

राजा पांडु सोचने लगा. “जो स्वभाव से नीच होते हैं वे उच्च कुल में जन्म लेने पर भी अपनी वासनाओं के ऊपर नहीं उठ पाते. मेरे पिता राजर्षि शांतनु के पुत्र थे, किंतु सुना जाता है उनकी उत्कट काम-वासना ने उन्हें अल्पायु में मार दिया. उन्ही के क्षेत्र में वेदव्यास ने मुझे उत्पन्न किया है. ऐसे महान ऋषि का पुत्र होने पर भी मैं अपनी इच्छाओं से बँधा रहता हूँ. लगता है देवताओं ने भी मेरा साथ छोड़ दिया है.” यह सब सोच कर पांडु ने ब्रह्मचर्य व्रत पालन की सोची. “मैं तपस्या कर अपनी इच्छाओं को नियंत्रित रखूँगा और पत्नियों को छोड़ भिक्षा वृत्ति अपना लूँगा.  जो भिक्षा मिलेगी उसे ही खा कर किसी वृक्ष के नीचे सो लूँगा. मैं आनद और विषाद से ऊपर उठ जाउंगा. भिक्षा के लिए पसारे मेरे हाथ को कोई काट दे या कोई उस पर चंदन लेपे, मैं दोनो को समान दृष्टि से देखुंगा …”

इस तरह बिलखते हुए पांडु ने कुंती और माद्री को हस्तिनापुर जा कर सबों को कह देने को कहा कि पांडु वानप्रस्थ हो कर तपस्वी बन गया है. पर उस की पत्नियाँ उसे छोड़ने को तैयार नहीं थीं. तीनो ने साथ रह, वन में तपस्वियों के जीवन जीने का निश्चय कर अपने आभूषण, मुकुट आदि वन में रहने वाले ब्राह्मणों को दान किए और अपने अनुचरों को हस्तिनापुर भेज दिए. पत्नियों के साथ कंद मूल खाते हुए पांडु चैत्ररथ और काल्कूट पर्वतों को पार कर गंदमादन पहुँच गया. वहाँ कुछ समय बिता कर वह विशाल जलाशय इंद्रद्युम्न के निकट गया; वहाँ उस ने हंसकूट और शतशृंग (सौ शिखर) पर्वतों पर अपने आप को तपश्चर्य्या में समर्पित कर दिया.  तपस्या करते करते, अपने मन को पूर्णतः नियंत्रित रख, अपने आप को ईश्वर चिंतन में डुबा कर पांडु ने अपने तप से स्वर्ग जाने की शक्ति प्राप्त कर ली. वहाँ रहने वाले अन्य ऋषि उसे अपने अनुज या पुत्र सा स्नेह देते थे. क्षत्रिय वंश में जन्म ले कर भी पांडु एक ब्रह्मर्षि तुल्य हो गया था.

एक दिन पांडु ने ऋषियों को अपने कष्ट बताए. “किसी मनुष्य पर चार कोटि के ऋण होते हैं: पितृ के, देवताओं के, ऋषियों के और अन्य मनुष्यों के. देवताओं के ऋण यज्ञादि से चुकाए जाते हैं, ऋषियों के ऋण अध्ययन से, अन्य मनुष्यों के ऋण दयालु और मानवोचित जीवन जीने से चुक जाते हैं और पितृ के ऋण चुकाने के लिए पुत्र उत्पन्न करने पड़ते हैं. मैं तीन ऋणों से तो अपने आप  को मुक्त समझता हूँ पर पुत्रहीन होने के चलते पितृ ऋण से मुक्त नहीं हो पाया हूँ.
“जैसे किस महर्षि ने मेरे पिता के क्षेत्र से मुझे उत्पन्न किया है वैसे ही क्या आप में से कोई मेरे क्षेत्र से मेरे लिए पुत्र उत्पन्न करने की कृपा करेंगे?”

पर ऋषियों ने उसे आश्वस्त किया कि उसके भी पुत्र होंगे, “हम अपनी दिव्य दृष्टि से देख पा रहे हैं, तुम्हारे अनेक प्रतापी पुत्र लिखे हुए हैं, तुम्हे ऐसे दुखी नहीं होना चाहिए.”

ऋषियों की बात सुन और अपनी अक्षमता को ध्यान में रख पांडु ने कुंती से एकांत में इस की चर्चा की. “शास्वत कीर्ति के लिए पंडितों ने पुत्र-प्राप्ति आवश्यक बताया है. यज्ञ, दान, तप और व्रत भी पुत्रहीन को पुण्य नहीं देते हैं. मरणोपरांत, पुत्रहीन होने के चलते मैं सात्विक आनंद के क्षेत्रों में नहीं जा पाऊँगा. मृग के शाप के चलते मैं पुत्र उत्पन्न नहीं कर सकता, किंतु शास्त्रों में छः प्रकार के पुत्र बताए गये हैं: किसी व्यक्ति का अपनी विवाहिता पत्नी से उत्पन्न पुत्र, उस की पत्नी से किसी सिद्ध, गुणवंत पुरुष द्वारा दया भाव से उत्पन्न किया गया पुत्र, उस की पत्नी से किसी पुरुष द्वारा धन के एवज में उत्पन्न किया गया पुत्र,  उस की मृत्यु के बाद उसकी पत्नी से उत्पन्न पुत्र, किसी की पत्नी का कौमार्यावस्था में उत्पन्न पुत्र और किसी अपवित्र पत्नी का पुत्र.

“यदि किसी कारण से पहले प्रकार के पुत्र नहीं हों तो माता को दूसरे प्रकार के पुत्रों को लाने के प्रयास करने  चाहिए. स्वयंभू मनु ने भी कहा है कि यदि किसी व्यक्ति के पुत्र नहीं हो रहे हों तो उसे अपनी पत्नी से दूसरे पुरुष के द्वारा पुत्र उत्पन्न करवाने चाहिए.

“शारदण्डायन की पुत्री को जब उसके पति ने किसी से पुत्र उत्पन्न करवाने को कहा था तो उस ने अपने ऋतु काल में चौरस्ते पर मिले एक तपस्वी ब्राह्मण से अनुरोध कर उस से तीन पराक्रमी पुत्र पाए थे. तुम भी कुंती उस क्षत्रिय स्त्री की तरह मेरे लिए पुत्र उत्पन्न करो.”
 
पांडु को ऐसे बोलते सुन कुंती स्तब्ध हो गयी. “यह आप क्या कह रहे हैं?” कुंती ने कहा “मैं आप की विवाहिता हूँ. आप मुझ से पुत्र उत्पन्न करेंगे जिन के चलते आप के साथ मैं भी स्वर्ग जा पाऊंगी. किसी दूसरे पुरुष के आलिंगन में जाने की मैं कभी सोच भी नहीं सकती हूँ.

“प्राचीन कल में पुरु वंश में व्यूषिताश्व नाम का एक सत्य-प्रिय और धार्मिक राजा हुआ था. उस के एक यज्ञ में इंद्र और महर्षियों के साथ देव गण आए थे. इंद्र सोम पान से और ब्राह्मण यज्ञ में मिले उपहारों से अपनी सुध खो बैठे थे. राजर्षि के यज्ञ का संपादन बेसुध हुए देव और महर्षियों ने किया था और राजा व्यूषिताश्व वैसे ही चमकने लगा था जैसे तुषार छँटने के बाद सूर्य. राजा ने उस यज्ञ के बाद अश्वमेध यज्ञ भी संपन्न किया. समुद्र तट तक के सभी क्षेत्रों को जीत कर व्यूषिताश्व अपनी प्रजा की वैसे रक्षा करता था जैसे कोई पिता अपने बच्चों की. उस ने बहुत दान दिए और अन्य यज्ञ भी किए. उस की एक पत्नी थी भद्रा, काक्षिवात की पुत्री. भद्रा अपूर्व सुंदरी थी और राजा रानी में प्रगाढ़ स्नेह था. वे कभी अलग नहीं रह पाते थे किंतु अतिशय भोग विलास  के चलते राजा यक्ष्मा ग्रस्त हो कर समय से पहले स्वर्ग सिधार गया. भद्रा के कोई पुत्र नहीं था और अब उसके कष्ट का कोई अंत नहीं दिख रहा था.

"भद्रा विलाप कर रही थी 'पति की मृत्यु के बाद स्त्रियों का जीवन निरुद्देश्य हो जाता है. विधवा स्त्रियाँ जीती नहीं हैं बस अपने आप को इस संसार में किसी तरह घसीटती हैं. विधवाओं के लिए मृत्यु एक वरदान है. मैं भी आप के साथ चली जाना चाहती हूँ. अवश्य किसी जन्म में मैने किसी स्नेह-सिक्त युगल को विलग कर दिया होगा नहीं तो यह दुर्भाग्य मुझे नही मिलता देखने को'.

"अपने पति के शव को अपने दोनो हाथों से पकड़ कर भद्रा इस तरह विलाप कर रही थी जब उसे अशरीरी शब्द सुनाई पड़े “रो मत भद्रे” उस के मृत पति के स्वर में ये शब्द आ रहे थे “मैं तुम्हे संतान दूँगा. चंद्रमा के आठवें और चौदहवें दिन तुम स्नान कर मुझे साथ ले अपनी शैय्या पर सोना”.

“भद्रा ने वैसा ही किया और उस के मृत पति ने उसे सात पुत्र दिए – तीन शाल्व और चार माद्र.”
व्यूषिताश्व की कथा सुना कर कुंती ने कहा “जब वह राजा मृत्यु के बाद भी पुत्र दे सकता था राजन, तो आप के जैसा तपस्वी हमें क्यों नही दे सकेगा?”

पांडु भी जानता था कि व्यूषिताश्व ने मृत्यु के बाद भी अपनी रानी को पुत्र दिए थे. “वह देव-तुल्य था”, पांडु ने कहा “मैं तुम्हे नीतिज्ञ ब्राह्मणों से सुनी बात सुनाता हूँ. प्राचीन काल में स्त्रियाँ अपने घरों में बँधी नही रहती थीं और न ही वे अपने पति या किसी और संबंधी पर आश्रित रहती थीं. उन दिनों वे स्वच्छन्द विचरती थीं और स्वेच्छा से आनंद – विहार करती चलती थीं. अपने पतियों के प्रति एकनिष्ठ नहीं रहने पर भी वे पतिता नहीं कही जातीं थी. उस काल की यही प्रथा थी. इस प्रथा को महर्षियों का समर्थन मिला हुआ है.  उत्तर कुरुओं में अभी भी इस प्रथा को सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है. वर्तमान प्रथा – स्त्री एक पति के साथ जीवन पर्यंत रहेगी – का कोई प्राचीन आधार नहीं है. यह एक नया प्रचलन है.” यह कह कर पांडु ने वर्तमान प्रथा स्थापित होने का प्रसंग सुनाया.

“कभी उद्दालक नाम के एक महर्षि को श्वेतकेतु नाम का एक तपस्वी पुत्र हुआ करता था. आज की प्रथा का जन्म श्वेतकेतु के क्रोध से हुआ है.  एक दिन श्वेतकेतु के पिता की उपस्थिति में एक ब्राह्मण ने आ कर उस की माँ के हाथ धर उसे चलने को कहने लगा. अपनी माँ को इस तरह बलात ले जाते हुए देख कर श्वेतकेतु बहुत क्रुद्ध हुआ. पुत्र के क्रोध को देख उद्दालक ने उसे शांत करते हुए कहा “यह एक प्राचीन परंपरा है पुत्र, इस पर क्रोध मत करो. सभी वर्णों की स्त्रियाँ स्वतन्त्र हैं.” श्वेतकेतु ने इस का विरोध किया और उसी ने वर्तमान प्रथा को स्थापित किया. अब किसी स्त्री का एकनिष्ठ नहीं रहना पाप पूर्ण है, उन्हे भ्रूण हत्या का दोषी माना जाता है. पुरुष भी यदि किसी पतिव्रता स्त्री का अतिक्रमण करते हैं तो वैसे ही पापी समझे जाते हैं. और जो स्त्री अपने पति की आज्ञा पर भी दूसरे से पुत्र उत्पन्न नहीं कराती है वह भी पाप पूर्ण हो जाती है.  

“राजा सौदास (1) के पुत्र अश्मक को वसिष्ठ ने सौदास की पत्नी मदयंती से उत्पन्न किया था. कुरू वंश को जीवित रखने के लिए हमें वेद व्यास ने हमारी माताओं से उत्पन्न किया था. मैने जो कुछ भी तुम से कहा है वह सर्वथा धर्म संगत है.  नीतिज्ञों ने यह भी कहा है कि स्त्रियों को गर्भ धारण के उपयुक्त समय में अपने पतियों के पास ही जाना चाहिए किंतु अन्य समय वे कहीं भी जाने को स्वततन्त्र हैं. वेद कहते हैं कि पत्नी को पति की आज्ञा का कभी उल्लंघन नहीं करना चाहिए. और मेरा यह अनुरोध तो तुम्हे कभी नहीं उठाना चाहिए क्यों कि मैं पुत्र उत्पन्न करने में असमर्थ हूँ".




(1) राजा सौदास इक्ष्वाकु वंश के, कोसल के राजा सुदास का पुत्र था. उस के अन्य नाम मित्रसह और कल्माषपाद थे. कुछ संदर्भों के अनुसार सौदास इक्ष्वाकु वंश के ही ऋतुपर्ण का पुत्र था. (इसी ऋतुपर्ण की अश्वशाला में निषाद राज नल ने चाकरी की थी.)

अपने अश्वमेध यज्ञ में एक राक्षस की माया के चलते उस ने अपने रित्विज वसिष्ठ को भोजन में नर-माँस दे दिया था.  पता चलने पर वसिष्ठ ने सौदास को नरभक्षी बन जाने का शाप दिया. जब वसिष्ठ को राक्षस की माया  का पता चला तो उस ने शाप की अवधि सीमित कर 12 वर्ष कर दी थी. सौदास निर्दोष था, उस ने भी वसिष्ठ को शाप देने के लिए जल उठाया, फिर गुरु को शाप देने के अनौचित्य की सोच ठिठक गया. उस जल को वह पृथ्वी पर नहीं गिरा सकता था क्यों कि वैसा करने पर दुर्भिक्ष आता और आकाश में नहीं फेंक सकता था क्यों कि वैसे करने पर मेघ हट जाते. उस ने उस जल को अपने पैरों पर फेंक दिया. तब तक जल इतना तप्त हो चुका था कि उस के पैर काले हो गये और उस का नाम कल्माषपाद पड़ा.

अपने नर-भक्षण के काल में उस ने एक सहवास रत ब्राह्मण का भक्षण किया था जब ब्राह्मणी से उसे समागम के समय मर जाने का शाप मिल गया था. पुत्र उत्पन्न करने में असमर्थ, सौदास ने अपनी रानी मदयंती से पुत्र उत्पन्न करने के लिए वसिष्ठ को नियुक्त किया था और इस तरह उसके पुत्र अश्मक का जन्म हुआ था.

Thursday, 21 May 2015

आदि पर्व (28): कौरवों के जन्म

जनमेजय ने गांधारी के सौ पुत्रों की सुन वैशम्पायन से पूछा था “कितने वर्षों में गांधारी ने अपने सौ पुत्रों को जन्मा था? और धृतराष्ट्र अपनी पतिव्रता पत्नी के साथ कैसा व्यवहार करता था? उस की वह वैश्य पत्नी कौन थी जिस से उसे एक पुत्र हुआ था? और पांडु के शापित होने के बाद उसे पुत्र कैसे हुए? अपने पूर्वजों के विषय में जानने की मेरी इच्छा अभी समाप्त नहीं हुई है.कृपया यह सब आप मुझे विस्तार से सुनायें”

वैशम्पायन कहता है:

एक बार गांधारी के सत्कार से प्रसन्न हो वेदव्यास ने उसे मन चाहा वर दिया. गांधारी ने एक सौ प्रतापी पुत्र मांगे और व्यास "ऐसा ही होगा" कह चल पड़े. कुछ समय पश्चात गांधारी ने गर्भ धारण किया. दो वर्षों तक गर्भ रखने के बाद भी उस ने कुछ नहीं जन्मा. इस बीच कुंती ने एक अत्यंत तेजस्वी बालक को जन्म दिया. कुंती के पुत्र की सुन गांधारी बहुत कुंठित हो चली थी और क्षोभ में उस ने अपने पेट पर बहुत जोर से प्रहार किया. इस आघात से उसका गर्भ गिर गया, दो वर्षों के बाद लौह कंदूक की तरह कठोर एक मांस पिंड निकला था उस के पेट से. दुखी गांधारी ने अपनी दासियों से उस पिंड को फेंक आने को कहा. पर तब तक व्यास वहां पहुँच गए. वे अपनी दिव्य  दृष्टि से मांस पिंड के जनन को जान गए थे.

"यह क्या किया आप ने गांधारी?"  व्यास ने दुःखी स्वर में पूछा
"मैं थक गयी थी अपना गर्भ ढोते ढोते" गांधारी ने सच सच बताया "और सुना कि कुंती ने सूर्य के सामान देदीप्यमान बालक को जन्म दिया है तो मैं अपने आप को रोक नहीं पायी"

"मेरी बात कभी झूठी नहीं होती, आपको धैर्य रखना चाहिए था" व्यास ने कहा फिर उन्होंने एक सौ घी से भरे घड़े मंगवाए और मांस पिंड पर शीतल जल का छिड़काव करवाया.  जल छिड़कने के थोड़ी देर बाद वह मांस पिंड सौ भागों में बँट गया. व्यास घी से भरे हर घड़े में पिन्ड के एक भाग को डालने लगा. जिस समय व्यास यह कर रहा था उस समय गांधारी सोचने लगी “कृष्ण द्वैपायन की बात सच हो कर रहेगी और मुझे सौ पुत्र अवश्य होंगे किंतु कितना अच्छा होता यदि इन सौ पुत्रों के साथ मुझे एक पुत्री भी होती. पुत्री होने से महाराज धृतराष्ट्र मरणोपरांत उन क्षेत्रों में भी जा पाएँगे जहाँ बस वही जाते हैं जिनकी पुत्री के पुत्र हुए हों. और यदि मुझे पुत्री नहीं हुई तो मैं वह स्नेह कभी नहीं जान पाऊँगी जो किसी पुत्री की मां को अपने जामाता के लिए होता है. यदि मैने अपने जीवन में कुछ भी तप किए हों, कुछ भी दान धर्म किए हों तो प्रभु मुझे एक पुत्री भी दे दें”

तब तक व्यास ने, जो स्वयं हर घड़े में पिन्ड के एक एक भाग को रख रहा था, गांधारी से कहा “इन सौ घड़ों में तुम्हारे सौ पुत्र हैं. मेरी बात असत्य नहीं होगी. पर अभी उस पिंड का एक भाग बचा हुआ है. यही समय आने पर तुम्हे दौहित्र (पुत्री का पुत्र) देगा.”  व्यास ने तब घी से भरा एक और घड़ा मँगवाया और उस घड़े में पिन्ड के अंतिम बचे भाग को रख कर घड़े को बंद करवा दिया.  सभी घड़ों को अच्छी तरह बंद कर महल के किसी सुरक्षित भाग में रखवा दिया गया. घड़ों के ढक्कन दो वर्ष के पहले नहीं हटाने को कह व्यास अपने आश्रम की ओर निकल गए.

समय आने पर इन्ही घड़ों में से एक से दुर्योधन का जन्म हुआ. दुर्योधन और पाण्डु-पुत्र भीम के जन्म एक ही दिन हुए थे. जन्म लेते ही दुर्योधन गधे के सुर में रोने और रेंकने लगा था. उसे सुन गधे, गिद्ध,शृगालऔर कौव्वे  भी, प्रत्युत्तर में मानो, जोर जोर से बोलने लगे थे. बहुत तेज हवा चलने लगी थी और कई स्थानो परआग भी लग गयी थी. इन अशुभ लक्षणों से धृतराष्ट्र भी डर गया था. उस ने भीष्म, विदुरऔर अनेक ज्ञानी ब्राह्मणों की एक सभा बुलवाई. यह मानते हुए कि युधिष्ठिर सब से बड़ा है और इस तरह राजा बनने का अधिकारी वही है, उस ने  अपने पुत्र दुर्योधन के विषय में पूछा."क्या मेरा ज्येष्ठ पुत्र राजा बन सकता है? मैं मात्र यह जानना चाहता हूँ कि आप के विचार से सत्य और विधि सम्मत क्या होगा?" 

धृतराष्ट्र की बात समाप्त होते ही  शृगाल और गिद्ध फिर बोलने लगे. ब्राह्मणों नेकहा "इन अशुभ लक्षणों से तो यही लग रहा है कि दुर्योधन कुल का नाश करेगा. इस बालक को छोड़ देने में ही सब की भलाई है. राजन, यदि आप इसे छोड़ दें तो भी आप के निन्यानबे पुत्र बचे रहते हैं. यदि आप अपने राजवंश  की वृद्धि चाहते हैं  तो इस बालक का परित्याग करने की सोचें".

ब्राह्मणों और विदुर के ऐसे प्रवचन के बाद भी पुत्र प्रेम के चलते धृतराष्ट्र अपने ज्येष्ठ पुत्र का परित्याग नहीं कर पाये. एक सौ एक घड़ों से धृतराष्ट्र और गांधारी के एक सौ पुत्र और एक पुत्री हुई थी. इनकेअतिरिक्त गांधारी जब गर्भवती थी उस समय जो दासी धृतराष्ट्र की सेवा कर रही थी उससे भी धृतराष्ट्र को एक पुत्र हुआ था - युयुत्सु. इस दासी पुत्र को ले कर धृतराष्ट्र कि कुल संतान थीं एक सौ एक पुत्र और एक पुत्री. 

वैशम्पायन ने तब जनमेजय के अनुरोध पर कौरवों केउनके जन्मके क्रम में नाम बताए: दुर्योधन, युयुत्सु, दुःशासन, दुःसह, दुःशल, जलसन्ध, सम, सह, विन्द, अनुविन्द, दुर्धर्ष, सुबाहु, दुष्प्रधर्षन, दुरमर्शन, दुर्मुख, दुश्कर्ण, कर्ण, विविंशति, विकर्ण, शल, सत्व, सुलोचन, चित्र, उपचित्र, चित्राक्ष, चरुचित्र, शरासन, दुर्माद, दुष्प्रगाह, विवित्सु, विकाटानन, ऊर्णनाभ, सुनभ, नंद, उपनंदक, त्रबाण, चित्रवर्मा, सुवर्मा, दुर्विमोचन, अयोबाहु, महाबाहु, चित्रांग, चित्रकुंडल, भीमवेग, भीमबल, बलाकी, बलवर्धन, उग्रायुध, भीम, कर्ण, कनकायु, दृढयुध, दृढ़वर्मा, दृढ़क्षत्र, सोमकीर्ति, अनुदार, दृढ़संध, जरासंध, सत्यसंध, सद, सुवाक, उग्रश्रवा, अश्वसेन,  सेनानी, दुष्पराजय, अपराजित, पंडितक, विशालक्ष, दुर्वार, दृढ़हस्त, सुहस्त, वातवेग, सुवर्चस, अदित्यकेतु, वाहवाशी, नागदंत, अग्रयायी, कवची, निषंग, पाश, दंडधर, धनुर्ग्रह, उग्र, भीमरथ, वीरबाहु, अलोलुप, अभ, रौद्रकर्मण, दृढ़रथ, अनदृश्य, कुंडभेदी, विरावी, दीर्घलोचन, प्रमथ, प्रमथि, दिर्घर, व्युढोरु, कनकध्वज, कुंडाशीऔर वीरज. (1)

इन एक सौ एक पुत्रों के अतिरिक्त धृतराष्ट्र कोएक पुत्री दुःशाला भी हुई थी. सब पुत्रों के योग्य स्त्रियों से विवाह हुए थे.दुःशाला का विवाह सिंधु प्रदेश के राजा जयद्रथ से हुआ था.




(1) नामों में भिन्न पाठों में बहुत अंतर हैं.

Wednesday, 20 May 2015

आदि पर्व (27): पांडु के विवाह और विश्वविजय

वैशम्पायन कह रहा है:

धृतराष्ट्र, पांडु और विदुर के जन्मों के बाद कुरुजंगल, कुरुक्षेत्र और कुरुओं की समृद्धि वापस आ गयी. समय पर अनुकूल वर्षा होने लगी, कृषकों के उत्पाद बढ़ने लगे, वृक्ष फलों और फूलों से भर गये, शिल्पियों को काम की कमी नहीं रही और व्यापारियों से नगर भर गये. रत्नाकर की तरह भरा पूरा परिपूर्ण हस्तिनापुर अपने महलों और परकोटों के चलते एक दूसरा अमरावती लगने लगा. कहीं कोई कृपण नहीं था, स्त्रियाँ विधवा नहीं होती थीं. जलाशय जल से भरे रहते थे और ब्राह्मणों के घर धन संपदा से. प्रजा के उल्लास को देख कर लगता था जैसे पूरे राज्य में बारहो महीने कोई महोत्सव मनाया जा रहा हो.

धृतराष्ट्र, पांडु और विदुर को भीष्म ने अपनी संतान की तरह पाल पोस कर बड़ा किया.  समय पर उनके वर्णानुकूल संस्कार हुए और उपयुक्त शिक्षा दी गयी. वेद, धनुर्विद्या, अश्वारोहण, गदा युद्ध, अर्थ और राज नीति, पुराण, इतिहास आदि अनेक विधाओं में वे पारंगत हो गये. पांडु महान धनुर्धारी बना, धृतराष्ट्र में अपार बल रहा और विदुर अपने समय के अद्वितीय धर्मज्ञ के रूप में उभरा.   समय आने पर पांडु हस्तिनापुर का राजा बना. धृतराष्ट्र अपनी दृष्टिहीनता के चलते और विदुर शूद्र माता से जन्म लेने के चलते राजा बनने के लिए उपयुक्त नहीं समझे गये थे.

धृतराष्ट्र और पांडु के विवाह के लिए भीष्म ने उच्च कुलों की रूपवती कन्याओं की खोज शुरू कर दी थी. तीन कन्यायें उसे सर्वाधिक उपयुक्त लगीं – यादव राजा शूरसेन की पुत्री पृथा, सुबल की पुत्री गांधारी और मद्रदेश की राजपुत्री माद्री.  इस बीच ब्राह्मणों से भीष्म को पता चला कि सुबल-पुत्री ने भगवान शिव को प्रसन्न कर एक सौ पुत्रों की माता बनने का वर प्राप्त किया है. सौ पुत्रों की सुन कर भीष्म ने तुरंत अपने संदेश वाहक सुबल के पास भेजे. दृष्टिहीन धृतराष्ट्र के हाथ अपनी पुत्री देने से सुबल हिचकिचा रहा था किंतु कुरू वंश की महानता और संपन्नता सोच वह तैयार हो गया. उस का होने वाला पति दृष्टिहीन है यह पता चलते ही गांधारी ने उस के सम्मान और स्नेह में अपनी आँखों पर सदा के लिए पट्टी बाँध ली. सुबल का पुत्र शकुनी अपनी बहन के साथ हस्तिनापुर आया था, जँहा उस ने विधिवत धृतराष्ट्र के हाथों अपनी बहन को सौंप विवाह संपन्न कराया.

पांडु की पत्नी के लिए भीष्म ने यादव राजपुत्री पृथा को चुना था. वसुदेव के भाई यादव राजा शूरसेन था. उस का फुफेरा भाई राजा कुन्तिभोज बहुत दिनों तक निस्संतान रहा था. शूरसेन ने अपनी पहली संतान कुन्तिभोज को देने के वचन दिए थे. इस तरह उस की पहली पुत्री पृथा राजा कुन्तिभोज के महल में उस की दत्तक पुत्री कुंती के रूप में बड़ी हुई. पृथा में रूप और गुण दोनो भरे थे.  कुन्तिभोज ने उस के विवाह के लिए स्वयंवर का आयोजन किया, जिस में कुंती ने पांडु के गले में वरमाल डाल उसे अपना पति वरा. स्वयंवर में आए अन्य राजाओं के लौटने के बाद कुन्तिभोज ने पृथा और पांडु का विवाह आयोजित किया जिस में कुरु-कुमार और कुन्तिभोज की पुत्री इंद्र और पौलोमी से कम नहीं लग रहे थे. विवाह के बाद ब्राह्मणों के आशीर्वचनों और चारणों की स्तुति के बीच नव दंपति हस्तिनापुर आए.

कुंती के साथ पांडु के विवाह के कुछ दिनों बाद, पांडु के लिए एक और रानी लाने की सोच भीष्म ब्राह्मणों और अपनी चतुरंगी सेना के साथ बाह्लिक क्षेत्र में मद्र देश के राजा शल्य के पास गया. भीष्म के आगमन की सुन मद्र-राज ने, नगर के बाहर उस का स्वागत कर सम्मान पूर्वक उसे अपने महल में ला कर, उस के आने का उद्देश्य जानना चाहा. भीष्म ने उस से उसकी बहन माद्री की चर्चा की. माद्री विख्यात सुंदरी थी और उतनी ही सुशीला भी. भीष्म ने कहा “आप का वंश राजन, हर दृष्टि से हमारे लिए संबंध करने योग्य है और हम भी आप के लिए संबंध करने योग्य हैं. मैं राजा पांडु के लिए आप से माद्री के हाथ माँगने आया हूँ”

शल्य सहमत लगा. “मैं आप के परिवार को छोड़ किसी को नहीं देख पाता हूँ", शल्य ने कहा “जहाँ मैं अपनी बहन दे पाऊँ. किंतु राजन, हमारे परिवार की एक परंपरा है. अच्छी या बुरी जो भी हो वह प्राचीन परंपरा है जिस का उल्लंघन मैं नहीं कर सकता. आप भी उस परंपरा से परिचित होंगे. आप का इस तरह माद्री का हाथ माँगना उचित नहीं है.”

“किंतु राजन, यह परंपरा बुरी क्यों कही जाएगी” भीष्म ने कहा “आप के पूर्वजों ने एक प्राचीन परंपरा को जीवित रखा है. इस में कोई दोष नहीं है” और यह कहते हुए उस ने शल्य को बहुत सारी स्वर्ण मुद्रायें और स्वर्ण खंड दिए. “बाहर आप के लिए हाथी, घोड़े और रथ भी मैं ने ला रखे हैं. एक रथ पर मोतियों और मूंगों से भरे कुछ थैले भी आप के लिए हैं”.
इतने उपहारों को देख शल्य ने प्रसन्न हो अपनी बहन को आभूषणों से लाद, पांडु से विवाह के लिए हस्तिनापुर जाने दिया.   विवाह के बाद तीस दिनों तक अपनी दोनो पत्नियों के साथ  अंतःपुर में विहार-मग्न रह कर महाबाहु पांडु ने विश्व विजय पर निकलने की सोची.

भीष्म के चरणस्पर्श कर, धृतराष्ट्र और विदुर से विदा माँग एक विशाल सेना के साथ पांडु अपने महा अभियान पर निकला. पूर्व दिशा में बढ़ते हुए सबसे पहले उस ने दशार्णों पर विजय पाई. वहाँ से वह मगध की राजधानी राजगृह गया. मगध के राजा (दीर्घ ?) का वध कर पांडु ने उस के राजकोष, रथ और पशुओं को ले कर मिथिला की ओर प्रस्थान किया.  विदेह जीतने के बाद उस ने काशी, सुंभ, और पुंड्र पर भी अपने पराक्रम की ध्वजा लहराई. आगे बढ़ते हुए उस ने सभी राजाओं को अपने अधीन किया और पृथ्वी पर अपनी वही स्थिति बना ली जो स्वर्ग लोक में इंद्र की है – निर्विवादित नृपेश.

पराजित राजाओं ने पांडु को रत्न, स्वर्ण, मणि, मुक्ता आदि से लाद दिया. अपने अभियान से अकूत संपत्ति जीत कर पांडु हस्तिनापुर पहुँचा. उस की समृद्धि देख उत्साहित नागरिकों को राजा शांतनु के दिन याद आ गए जब इसी तरह पूरे भारतवर्ष के राजा हस्तिनापुर का आधिपत्य स्वीकार करते थे.

भीष्म की अगवानी में सबों ने नगर के बाहर अपने विजयी राजा का स्वागत किया. युद्ध से जीते धन – वैभव से लदे रथों, हाथियों और ऊंटों की कतार का अंत नहीं दिख रहा था.  पांडु ने भीष्म के चरण स्पर्श कर आशीष माँगे और नगाड़ों की तुमुल ध्वनि के बीच हस्तिनापुर में प्रवेश किया.

धृतराष्ट्र के निर्देश पर पांडु ने अपने बाहुबल से अर्जित धन को भीष्म, सत्यवती, अपनी माताओं और विदुर में बाँट दिये. कुरू वंश के सभी ज्येष्ठ उस से बहुत प्रसन्न हुए. अंबालिका की प्रसन्नता असीम थी. उस ने पांडु को वैसे ही गले लगाया जैसे कभी शची ने जयंत को लगाया था.

कुछ समय बाद पांडु अपनी दोनो रानियों के साथ, हस्तिनापुर के राज प्रासाद छोड़  वन में रहने चला गया. हिमालय के दक्षिणी भाग में शाल वृक्षों से आच्छादित एक पहाड़ी पर उस ने अपना घर बनाया, जहाँ उस का सारा समय मृगों के आखेट में या अपनी पत्नियों के साथ वन-भ्रमण में बीतता था.

इस बीच गंगा से भीष्म को पता चला कि राजा देवक के अपनी एक शूद्र पत्नी से बहुत रूपवती और सुशीला पुत्री है. भीष्म ने उस कन्या को अपने पिता के घर से ला कर विदुर के साथ उसका विवाह सम्पन कराया. और समय आने पर धर्मज्ञ विदुर के भी उसी के समान शिष्ट और गुणवान अनेक पुत्र हुए.

आदि पर्व (26): धृतराष्ट्र और पाण्डु के जन्म

दीर्घतमस और राजा बलि का प्रकरण सुना कर भीष्म ने वंश चलाने के लिए किसी योग्य ब्राह्मण को समुचित धन दे कर, उसके द्वारा  विचित्रवीर्य की दोनो रानियों से पुत्र उत्पन्न कराने का सुझाव दिया. भीष्म की बात सुन सत्यवती ने सलज्ज स्वर में कौमार्यावस्था में पराशर से उत्पन्न हुए अपने पुत्र द्वैपायन के विषय में बताया. “द्वैपायन जन्म के तुरंत बाद मुझे छोड़ कर वेदाध्ययन करने निकल गया था. उस ने वेदों का पुनर्संकलन किया है और अब वह वेद व्यास कहलाता है. जाते जाते उस ने मुझ से कह रखा था कि जब भी मुझे उस की आवश्यकता हो मैं बस उसका स्मरण कर उसे बुला सकती हूँ.    
“यदि उस ऋषि से हम भरत वंश चलाने के लिए दोनो रानियों से पुत्र उत्पन्न करने की प्रार्थना करें तो वह हमारी बात नहीं उठाएगा.” 

वेद व्यास का नाम सुन कर भीष्म ने अपने हाथ जोड़ कर कहा “जो धर्म, अर्थ और काम तीनो पर विचार कर ऐसे कर्तव्य करे कि भविष्य में धर्म और अधिक धर्म दे, अर्थ और अधिक अर्थ दे और काम और अधिक कामसुख दे, वही वास्तव में बुद्धिमान है. अभी जो तुम ने कहा है, माँ, उस में हमारा कल्याण है, वह धर्म संगत भी है और मैं इस का पूर्ण समर्थन करता हूँ”.

सत्यवती ने तब व्यास का स्मरण किया. व्यास उस समय वेदों की व्याख्या में व्यस्त था. अपनी शक्ति से वह जान गया कि उसकी माँ उसे बुला रही है, और वह सब कुछ छोड़ हस्तिनापुर राजमहल में प्रकट हो गया – काला, कुरूप और समय से पहले वृद्ध. सत्यवती  उसे गले लगा कर रोने लगी. व्यास के पूछने पर सत्यवती ने उसे बुलाने का उद्देश्य बताया. “महाराज शांतनु का पुत्र विचित्रवीर्य बिना कोई उत्तराधिकारी छोड़े स्वर्ग सिधार गया है.उस का यह भाई भीष्म अपनी प्रतिज्ञा के चलते न तो सिंहासन पर बैठेगा न ही हस्तिनापुर के लिए कोई उत्तराधिकारी उत्पन्न करेगा. यदि कुछ नहीं किया गया तो हस्तिनापुर में अराजकता छा जाएगी. जैसे भीष्म पिता के पक्ष से विचित्रवीर्य का भाई है वैसे ही तुम माता के पक्ष से उस के भाई हो. तुम मेरे ज्येष्ठ पुत्र हो जैसे विचित्रवीर्य मेरा कनिष्ठ पुत्र था.    
“भीष्म की प्रार्थना और मेरा आदेश है कि विचित्रवीर्य की दोनो पत्नियों से तुम एक एक पुत्र उत्पन्न करो. इस से सभी प्राणियों का कल्याण होगा, प्रजा की रक्षा होगी और देव-पुत्री समान दोनो रानियों के गोद भरेंगे”.

“तुम जो चाहती हो माँ”, व्यासने कहा, “वह सर्वथा धर्म संगत हैं, ऐसा पहले भी कई बार हुआ है, और मैं धर्म की रक्षा के लिए अवश्य तुम्हारे आदेश का पालन करूँगा.  मैं अपने दिवंगत भाई को वरुण और मित्र के समान पुत्र दूँगा. बस दोनो स्त्रियों को मेरे बताए व्रत का एक वर्ष तक पालन करने दो. जिस स्त्री ने कठोर व्रत नहीं किए हुए हों वह मेरे निकट नहीं आ पाएगी”.

“लेकिन व्यास, उतना समय कहाँ है?” सत्यवतीने कहा. “जिस राज्य में राजा नहीं रहता वहाँ की अरक्षित प्रजा का नाश हो जाता है, वहाँ यज्ञ नहीं हो पाते हैं और उस राज्य के ऊपर से बादल बिना बरसे निकल जाते हैं.”  

“यदि ऐसी आकुलता में मुझे अपने भाई को पुत्र देने हैं तो रानियों को मेरी यह कठोर कुरूपता सहनी पड़ेगी” व्यास ने कहा “मेरे इस रूप और मेरे दुर्गंध को सह पाना किसी कठिन व्रत से कम नहीं है. रानियों से कह दो कि वे शुभ वस्त्र और आभूषण धारण कर अपने शयन कक्ष में मेरी प्रतीक्षा करें.”

यह कह व्यास अदृश्य हो गया और सत्यवती अपनी पुत्र वधुओं को एकांत में सारी व्यवस्था समझाने चली. रानियाँ इस के लिए तैयार नहीं थीं किंतु सत्यवती ने बहुत धैर्य से बार बार आग्रह कर भरत वंश को नहीं मरने देने के लिए उन्हे सहमत कर लिया.  सत्यवती ने उन्हे व्यास का नाम नहीं बताया था बस यह कहा था कि विचित्रवीर्य के कोई ज्येष्ठ उनसे पुत्र उत्पन्न करेंगे.

उचित समय पर अंबिका अपने शयन कक्ष में ज्येष्ठ की प्रतीक्षा कर रही थी. “कौन हो सकता है यह?” वहसोच रही थी “भीष्म या कोई और वृद्ध कुरू?”  कक्ष में दीपक जल रहा था, अचानक व्यास ने प्रवेश किया.  व्यास कुरूप था, कठोर मुख , उलझी जटा, अस्त-व्यस्त दाढ़ी और धधकती हुईं आँखें थीं उसकी. अंबिका उसे नहीं देख पाई और भय से उस ने अपनी आँखें बंद कर लीं. कक्ष से बाहर निकलने पर व्यास ने सत्यवती को खड़ा पाया.
“पुत्र होगा इसे?” सत्यवाती नेपूछा.
“हाँ” व्यास ने कहा, “दस सहस्त्र हाथियों का बल रखने वाले राजर्षि पुत्र को यह जन्म देगी, और उस पुत्र के, समय आने पर, अपने एक सौ पुत्र होंगे. किंतु यह पुत्र दृष्टिहीन होगा”
“पर व्यास” सत्यावती ने कहा “कुरुओं के राजसिंहासन पर कोई दृष्टिहीन कैसे बैठ सकेगा? कुरूवंश को एक और पुत्र चाहिए, तुम दूसरी रानी को भी एक पुत्र दो”.

उचित समय पर व्यास विचित्रवीर्य की दूसरी पत्नीअंबालिका के पास भी गया. अंबालिका को भय से पीली होती देख व्यास ने कहा “मुझे देख कर तुम पीली पड़ गयी हो इसीलिए तुम्हे पीत वर्ण का पुत्र होगा. उसका नाम भी पांडु (अर्थात पीत, विवर्ण) रहेगा.

सत्यवती ने उसे फिर एक बार प्रयास करने को कहा. व्यास ने अपनी माँ की बात नहीं उठाई. किंतु जब सत्यवती ने अंबिका को दुबारा ऋषि के साथ रहने को कहा तो अंबिका ने, उसके विकट रूप को याद कर, अपने बदले अपनी एक दासी को अपने शयन कक्ष में बिठा दिया. व्यास के आने पर उस दासी ने उठ कर ऋषि का सत्कार किया और व्यास ने जाते समय उस से कहा था “तुम अब दासीनहीं रहोगी. तुम एक बहुत विद्वान और धार्मिक पुत्र को जन्म दोगी”

बाहर निकलने पर सत्यवती फिर खड़ी मिली. अंबिकाने अपने बदले अपनी दासी को भेजा था,यह बता कर व्यास विलुप्त हो गया.  समय पूरा होने पर उस दासी ने विदुर को जन्म दिया था. विद्वान विदुर के रूप में मान्डव्य ऋषि के शाप के चलते धर्मराज ने पृथ्वी पर शूद्र वर्ण में जन्म लिया था (1). विदुर धर्मज्ञ था उसे अर्थ और राजनीति का भी सम्यक ज्ञान था. उस में क्रोध औरलोभ का लेश भी नहीं था. अपनी दूरदृष्टि और अपने शांत स्वभाव से वह बस कुरुओं के कल्याणकी सोचता रहता था.

“और इस तरह” वैशम्पायन ने जनमेजय को कहा “भरत के वंश को चलाने के लिए धृतराष्ट्र और पांडु के जन्म हुए थे.”





(1) धर्मराजके शापित होने का प्रकरण आदिवंशावतरण पर्व (1) में है: लिंक 

Tuesday, 19 May 2015

आदि पर्व (25): विचित्रवीर्य और दीर्घतमस

शांतनु और सत्यवती के दो पुत्र हुए, चित्रांगद और विचित्रवीर्य.  विचित्रवीर्य बालक ही था जब उस के पिता काल कवलित हो गये.  शांतनु के देहावसान पर चित्रांगद हस्तिनापुर का राजा बना. चित्रांगद ने अपने राज्याभिषेक के शीघ्र बाद सभी राजाओं पर विजय प्राप्त कर ली थी और अपने समय में सब से पराक्रमी राजा माना जाने लगा था. उस के सामने कोई मनुष्य या असुर नहीं टिक सकता था. उस की बढ़ती शक्ति देख चित्रांगद ही नाम के एक गंधर्व ने एक दिन उसे युद्ध के लिए ललकारा. कुरुक्षेत्र में सरस्वती के किनारे दोनो चित्रांगद तीन वर्षों तक लड़ते रहे. अंत में मायावी  गंधर्व शांतनु-पुत्र पर भारी पड़ा और तीन वर्षों के बाद राजा चित्रांगद को युद्ध में मार कर वह गंधर्व  लोक को वापस लौट गया.

अपने भाई की अंत्येष्टि कर भीष्म ने बालक विचित्रवीर्य को हस्तिनापुर का राजा बनाया. शासन का सारा भर अपनी माता सत्यवती की इच्छा से भीष्म स्वयं संभाल रहा था. विचित्रवीर्य के वयस्क होने पर भीष्म को उस के विवाह की चिंता होने लगी. उन्ही दिनो काशी नरेश ने अपनी तीन पुत्रियों के लिए एक संयुक्त स्वयंवर आयोजित किया था. उसकी तीनो पुत्रियाँ, अंबा, अंबिका और अंबालिका बहुत रूपवती थीं और संपूर्ण भारतवर्ष के राजा उस स्वयंवर में भाग लेने काशी पहुँचे थे. भीष्म भी स्वयंवर स्थल पर पहुँचा, और उस ने घोषणा की कि वह तीनो को अपने भाई के लिए ले जा रहा है. ऐसा कह उस ने तीनो बहनों को बलात अपने रथ में बिठाया और वहाँ उपस्थित राजाओं को ललकारते हुए चल पड़ा.

भीष्म को इस तरह तीनो का अपहरण करते देख स्वयंवर में आए राजा बहुत कुपित हुए और अपने आभूषण उतार, कवच आदि धारण करउस के विरोध में खड़े हो गये. किंतु भीष्म के आगे उन की एक नहीं चली. उन्हे निष्क्रीय कर भीष्म कुछ आगे बढ़ा था जब पीछे से शल्य की ललकार सुनाई पड़ी –“रुको और युद्ध करो.”  भीष्म रुक गया, स्वयंवर में आए सभी राजा उन दोनो के युद्ध के मूक दर्शक बन खड़े हो गए. भीष्म ने शल्य के रथ के चारो घोड़ों को मार उस के सारथी  के भी प्राण हर लिए. किन्तु शल्य को उस ने छोड़ दिया.  पराजित शल्य अन्य राजाओं के साथ वापस लौटा.

सभी राजाओं को पराजित कर भीष्म उन तीनो राजपूत्रियों को ऐसे स्नेह के साथ हस्तिनापुर ले आया जैसे वे उसकी अपनी पुत्रियाँ हों. उन्हे देख सत्यवती और विचित्रवीर्य की प्रसन्नता की सीमा नहीं रही और एक शुभ मुहूर्त में राजा विचित्रवीर्य के विवाह की तैयारियाँ होने लगीं. इस बीच काशी नरेश की बड़ी पुत्री ने एक दिन ब्राह्मणों की उपस्थिति में भीष्म से कहा “स्वयंवर में मैं सौभ नरेश को वरने जा रही थी. हम ने पहले से यह निश्चित कर लिया था और मेरे पिता को भी इस की जानकारी थी. आप धर्मज्ञ हैं, यह जान कर आप जो उचित समझें वह करें”. अंबा की बात सुन भीष्म ने वेदज्ञ ब्राह्मणों से मंत्रणा की और ब्राह्मणों, अंगरक्षकों और दासियों के साथ अंबा को ससम्मान सौभ-पति के पास भिजवा दिया.

नियत समय पर विचित्रवीर्य का विवाह सम्पन हुआ.दोनो रानियाँ अप्सराओं सदृश सुंदरी थीं और राजा भी अश्विनिकुमारों से कम सुदर्शन नहीं था.  युवा राजा अपनी दोनो पत्नियों से इतना प्रसन्न था कि अगले सात वर्षों तक वह अंतःपुर से बाहर नहीं निकला. किंतु प्रारब्ध से उसका यह सुख देखा नहीं गया और विवाह के आठवें वर्ष में विचित्रवीर्य यक्ष्मा से ग्रस्त हो गया. सभी उपचार किये गये पर ज्ञानी वैद्यों के अथक प्रयास भी उसे नहीं बचा पाए; और एक दिन बिना कोई उत्तराधिकारी छोड़े विचित्रवीर्य स्वर्ग सिधार गया.  रोते मन से, युवा रानियों ने सत्यवती और भीष्म के साथ विचित्रवीर्य के प्रेत कार्य पूरे किए.

राजा पुरु के प्राचीन वंश को अब नष्ट होते देख सत्यवती ने भीष्म से हस्तिनापुर का राजा बन कर विवाह कर वंश को बढ़ाने की प्रार्थना की.  “महाराज शांतनु का वंश अब तुम्ही बचा सकते हो” सत्यवती ने कहा “वेद वेदांगों केज्ञान में तुम वृहस्पति और शुक्र से कम नहीं हो. अपने परिवार की परंपराओं के भी तुम्हे पूरे ज्ञान हैं. आवश्यकता पड़ने पर, संकट काल में, युक्ति का संबल लेना पड़ता है. अल्पायु में मेरा पुत्र, तुम्हारा भाई,स्वर्ग सिधार गया है. उस की पत्नियाँ पुत्र चाहती हैं, यह प्रतापी वंश भी पुत्र चाहता है जिस से यह चल पाए.
“सब कुछ देखते हुए मैं तुम्हे आज्ञा देती हूँ कि तुम दोनो रानियों से पुत्र उत्पन्न करो और हस्तिनापुर के राजा बन अपने लिए एक रानी लाओ”

सत्यवती ने वंश की रक्षा के लिए, कुरूकुल को नरक से बचाने के लिए भीष्म से यह कहा था. पर ऐसा कहते समय वह भीष्म कीअपरिमित सत्य-निष्ठा को भूल गयी थी. माता की बात सुन भीष्म ने स्पष्ट शब्दों में मना कर दिया.  “जो आप कह रहीं हैं माँ” भीष्म ने कहा “वह सर्वथा धर्म संगत है. किंतु आपने मेरे आजन्म ब्रह्मचर्य की शपथ भी सुन रखी होगी.  चाहे मिट्टी अपनी सुगंध खो दे या जल अपनी नमी खो दे,  चाहे सूर्य अपना ताप खो बैठे या चंद्रमा अपनी शीतलता,  मैं अपने वचन से कभी  नहीं हट सकता. मैं तीनो लोकों को छोड़ सकता हूँ, मैंस्वर्ग का आधिपत्य भी छोड़ सकता हूँ किंतु सत्य का साथ मैं कभी नहीं छोड़ सकता.
“इंद्र कभी शक्तिहीन हो सकता है,  धर्म राज कभी न्याय को भूल सकते हैं किंतु मैं अपने वचन कभी नहीं भुला सकता”.

सत्यवती इतनी सरलता से मानने वाली नहीं थी. “मैं तुम्हारा सत्य-प्रेम जानती हूँ. मैं यह भी जानती हूँ कि तुमने अपनी भीष्म प्रतिज्ञा मेरे ही चलते की थी.  पर इस संकट की वेला में अपने पूर्वजों के प्रति अपने कर्तव्य तुम कैसे भूल जा रहे हो?” यह कह सत्यवती फूट फूट कर रोने लगी. भीष्म ने उसे समझाया, किसी धर्मशास्त्र में कभी भी सत्य के अतिक्रमण को उचित नहीं माना गया है. ऐसे संकट में क्या उचित होगा इस पर ज्ञानी ब्राह्मणों के साथ मिल कर निर्णय लिया जा सकता है पर स्थापित धार्मिक आचार व्यवहार को तिलांजलि नहीं दी जा सकती. भीष्म ने क्षत्रियों के इतिहास से दो उदाहरण दिए.

जमदाग्नि के पुत्र राम ने, अपने पिता की हत्या के प्रतिशोध में,  हैहय राजा अर्जुन के सहस्त्र बाहुओं को अपने परशु से काट कर उसका वध किया था. उस के बाद वह विश्व-विजय पर निकला और पृथ्वी को उस ने इक्कीस बार क्षत्रिय विहीन किया था. जबक्षत्रियों की जाति समाप्ति पर आ गयी तो क्षत्रिय स्त्रियों ने वेदज्ञ ब्राह्मणों से पुत्र उत्पन्न कराए थे. वेदों में कहा गया है कि इस तरह से उत्पन्न हुआ पुत्र उस का होता है जिस ने उस पुत्र की माता से विवाह किया था. इस तरह क्षत्रिय जाति को पुनर्जीवन मिला था.

भीष्म का दूसरा उदाहरण दीर्घतमस ऋषि का था.

प्राचीन काल में कभी उतथ्य नाम का एक ऋषि होता था. एक दिन उस के अनुज,  देव-गुरु वृहस्पति ने उतथ्य की पत्नी ममता से सहवास की इच्छा व्यक्त की. ममता ने उसे मना किया “मेरे गर्भ में उतथ्य का पुत्र पल रहा है, उस ने वेदों के अध्ययन भी कर लिए हैं,वहाँ दो प्राणियों के लिए पर्याप्त जगह नहीं है. इस लिए, वृहस्पति, तुम अभी अपनी इच्छा पूर्ति की नहीं सोचो”. पर वृहस्पति की इच्छा बहुत बलवती थी और उस ने ममता को नहीं छोड़ा. गर्भस्थ शिशु सब सुन रहा था; उस ने भी वृहस्पति को मना किया. “कक्ष छोटा है, मैं इस में पहले से हूँ, आप प्रयास नहीं करें". फिर भी वृहस्पति ने ममता को अपने आलिंगन से बाहर नहीं जाने दिया.  पर गर्भस्थ शिशु के उपद्रव से वृहस्पति के प्रयास असफल रहे और उसके बीज नीचे धरा पर गिर गये. कुपित वृहस्पति ने उसे दृष्टिहीन रहने का शाप दिया और जन्म होने पर अपनी दृष्टिहीनता के चलते वह बालक दीर्घतमस के नाम से जाना गया.

दृष्टिहीन रहने पर भी अपने ज्ञान के चलते दीर्घतमस एक स्वस्थ और सुंदर ब्राह्मण कन्या प्रद्वेषी को अपनी पत्नी बना सका. प्रद्वेषी और दीर्घतमस के अनेक बच्चे हुए जिनमें गौतम ज्येष्ठ था. दुर्भाग्य वश ऋषि के सभी पुत्र मूर्ख और लोभी निकले. उन्हे अपने पिता के प्रति कोई भक्ति नहीं थी. धीरे धीरे प्रद्वेषी भी अपने पतिके विरुद्ध हो गयी. ऋषि के पूछने पर उस ने कहा “स्वामी को भर्तृ कहा जाता है क्योंकि वह अपनी पत्नी का भरण पोषण करता है; उसे पति भी कहा जाता है क्योंकि वह अपनी पत्नी की रक्षा करता है. पर तुम इन दोनो में से कुछ भी नहीं कर पाते. तुम जन्म से दृष्टिहीन हो, मैं ही तुम्हारा और तुम्हारे पुत्रों का भरण पोषण करती हूँ. अब मैं वह सब नहीं कर पाऊंगी.

प्रद्वेषी की बातें सुन दीर्घतमस बहुत रुष्ट हुआ और उस ने उस दिन नियम बनाए “आज से कोई स्त्री बस एक ही पुरुष के साथ संबंध रख सकती है. पति जीवित हो या नहीं यदि कोई स्त्री दूसरे पुरुष से संबंध बनाएगी तो पतिता मानी जाएगी. जिस स्त्री का पति नहीं हो वह सदैव संभावित पापी समझी जाएगी. धनिक स्त्रियाँ भी अपने धन को नहीं भोग सकेंगी. उन्हे आजन्म आक्षेप झेलने पड़ेंगे और उनके विषय में लोगों की सदा नीच धारणा रहेगी".

यह सब सुन कर प्रद्वेषी ने अपने पुत्रो से उसे गंगा में फेंक आने को कहा और पुत्रों ने उसे लकड़ी के एक बेड़े से बाँध गंगा मेंबहा दिया. दृष्टिहीन, वृद्ध दीर्घतमस ने बेड़े से बँधे बँधे कई राजाओं के क्षेत्र पार कर लिए थे जब उसका बेड़ा राजा बलि से जा लगा जो गंगा में स्नान कर रहा था.  बलि निस्संतान था, जब उसे पता चला कि उसने किसे बचाया है तो उस ने दीर्घतमस से अपने लिए पुत्र उत्पन्न करवाने की सोची. किंतु उसे वृद्ध और दृष्टिहीन जान बलि की रानी सुदेष्ना ने, स्वयं उसके पास नही जा कर, अपनी एक शूद्र दासी को उसके पास भेज दिया.  दीर्घतमस और उस दासी के ग्यारह पुत्र हुए थे. एक दिन राजा ने ऋषि से पूछा “क्या ये मेरे पुत्र हैं?”

“नहीं” ऋषि ने कहा “ये मेरे पुत्र हैं. मुझे अपने उपयुक्त नहीं समझ तुम्हारी रानी ने अपनी दासी को मेरे पास भेज दिया था".  राजा ने ऋषि से पुनः पुत्र पाने की प्रार्थना की और सुदेष्ना को ऋषि के पास भेजा. ऋषि ने रानी के शरीर को स्पर्श भर किया और कहा “तुम्हे सूर्य के सदृश तेजस्वी पुत्र होगा”.समय पर सुदेष्ना ने अंग नाम के एक राजर्षि को जन्म दिया.

दीर्घतमस और सुदेष्ना के पुत्र का प्रसंग सुना कर भीष्म ने कहा “इस तरह बलि का वंश चल पाया और इसी तरह अनेक क्षत्रिय महारथियों के जन्म ब्राह्मणों के बीज से हुए हैं. इसे जान कर, माता,  जो तुम उचित समझो, वह करो.”

आदि पर्व (24): भीष्म की प्रतिज्ञा

वैशम्पायन कह रहा है:

राजर्षि  शांतनु अपनी विद्वता,अपनेगुण और अपनी सत्य-निष्ठाके लिए विश्व विख्यात था. वह उदार, क्षमाशील, धैर्यवान औरअद्भुत पराक्रमी भी था, जिसका लोहा सभी राजा मानते थे. धर्म और अर्थ के मर्म को समझते हुए उस ने भरत वंश और समस्त मानव जाति की रक्षा की थी.

एक दिन आखेट में एक मृग का पीछा करते हुए गंगा के किनारे पहुँचे शांतनु ने भागीरथी को लगभग सूखा हुआ पाया. चकित हो जब उस ने अपनी दृष्टि दौड़ाई तो देखा कि एक तरुण धनुर्धर ने हँसते हुए अपने तीरों से गंगा की बहती धारा को रोक रखा है! वह तरुण और कोई नहीं उसका और गंगा का पुत्र गंगादत्त था पर राजा ने अपने पुत्र को उस के जन्म के बाद बस कुछ ही क्षणों के लिये देखा था और वह उसे नहीं पहचान पाया. तरुण ने अपने पिता को पहचान लिया था पर अपना परिचय देने की जगह अपनी माया शक्ति से शांतनु को मतिभ्रमित कर वह अदृश्य हो गया.

उस के विलुप्त हो जाने पर,  रहस्य को समझने के लिये राजा ने गंगा का आह्वान किया. उस किशोर के हाथ पकड़े प्रकट हो गंगा ने कहा “राजन,यह हमारा आठवाँ पुत्र है, जिसे मैने पालने के लिए अपने पास रखा था. इस के विद्याध्ययन का समय पूरा हो गया है. इस ने वसिष्ठ से वेदों के रहस्य सीखे हैं, सुरों के गुरु वृहस्पति और असुरों के गुरु शुक्र दोनो से इस ने ज्ञान प्राप्त किए हैं, और शस्त्र विद्या इस ने जमदाग्नि-पुत्र राम से पाई है. यह महान योद्धा है और यह राजा के सभी कर्तव्य भी समझता है. अब राजन, तुम अपने पुत्र को अपने साथ रखो”.

हर्षित शांतनु अपने पुत्र के साथ हस्तिनापुरआया और तुरंत उस ने गंगापुत्र देवव्रत को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया. देवव्रत के ज्ञान और उस के न्यायपूर्ण आचार व्यवहार से राज्य के ब्राह्मण, प्रजा और भारतवर्ष के अन्य राजा भी बहुत प्रसन्न थे.

देवव्रत को उत्तराधिकारी बनाने के चार वर्षों बाद, एक दिन यमुना तट पर शांतनु को एक अत्यंत मधुर सुगंध का भान हुआ. उस मादक, ललित सुगंध का स्रोत खोजने के क्रम में राजा को एक दिव्य सुंदरी कन्या दिखी.  पूछने पर पता चला कि वह धीवरों के मुखिया की बेटी थी. उस के सौंदर्य और शील से, उसके देह से आती मादक सुगंध से भी, शांतनु अपना ह्रदय खो बैठा था और उसे अपनी पत्नी बनाना चाहने लगा था. उसी दिन उस ने धीवर प्रमुख से उस कन्या के हाथ मांगे.

धीवर ने माना कि शांतनु से अधिक अच्छा वर उस की पुत्री के लिए कोई हो ही नहीं सकता, किंतु उस ने राजा से वचन माँगे कि शांतनु के बाद हस्तिनापुर का राजा उस की कन्या का पुत्र ही बनेगा, देवव्रत नहीं. शांतनु का हृदय इच्छा से जल रहा था पर उस ने ऐसे अन्यायपूर्ण वचन देने से मना कर दिया और दग्ध हृदय से वापस अपनी राजधानी लौट गया. हस्तिनापुर में, अपनी अतृप्त इच्छा से शांतनु बेचैन रह रहा था. पिता को दुखी औरअन्यमनस्क रहते देख देवव्रत ने एक दिन उस के दुख का कारण जानना चाहा “आपकी समृद्धि में कोई कमी नहीं आई है, सभी राजा आज भी आप की बातों के बाहर नहीं गये हैं फिर आप इतने दुखी क्यों रहते हैं? किस चिंता से आप दुर्बल होते जा रहे हैं?” 

“सच कह रहे हो तुम”, राजा ने कहा “मैं दुखी हूँ. मैं तुम्हारे विषय में सोच सोच कर चिंतित रहता हूँ. हमारे पुराने राजवंश रूपी वृक्ष के अब एक मात्र पल्लव तुम हो और तुम्हारा मन शस्त्र क्रीड़ा से कभी नहीं भरता है. मैं जीवन की अस्थिरता से डरता हूँ. यदि तुम्हारे ऊपर कोई संकट आ गया तो यह वंश पुत्र-हीन हो जाएगा. पर यह भी सच है कि तुम सौ पुत्रों से बढ़ कर हो, इसलिए मैं पुनर्विवाह की सोच भी नहीं सकता. मैं तुम्हारा कल्याण चाहता हूँ जिस से यह वंश चलता रहे.
“ज्ञानियों ने कहा है कि जिसे एक पुत्र है समझो उसे कोई पुत्र नहीं है. यज्ञ और वेद-ज्ञान से प्राप्त होने वाले पुण्य एक पुत्र के होने से प्राप्त होने वाले पुण्य के एक छटाँक बराबर भी नहीं हैं. यदि किसी युद्धमें कभी तुम मारे गये तो भरत वंश का क्या होगा यही सोच कर मैं दुर्बल होता जा रहा हूँ.”

किंतु देवव्रत ने कच्ची गोलियाँ नहीं खेलीं थीं. राजा की बातें सुन वह राजा के वृद्ध मंत्री से मंत्रणा करने गया. मंत्री सारी बात जानता था और उस ने देव व्रत को सब कुछ बता दिया. धीवर की शर्त सुन देवव्रत ने, कुछ वयोवृद्ध क्षत्रिय राजाओं को साथ ले कर, धीवरों के मुखिया से अपने पिता के लिए गंधवती के हाथ माँगे. धीवर ने अपनी बात दुहाराई. “यदि इंद्र भी गंधवती का पिता रहता तो राजा शांतनु से अच्छा वर वह अपनी पुत्री के लिए नहीं खोज पाता.  गंधवती का जन्म तुम्हारे ही सदृश एक महान राजा के बीज से हुआ है. उस ने भी मुझे अनेक बार कहा है कि सत्यवती के लिए उपयुक्त वर राजा शांतनु ही हो सकते हैं. असित जैसे ब्रह्मर्षि के माँगने पर भी मैने इस कन्या के हाथ उन्हे नहीं दिए थे.
“बस एक चिंता मुझे है, यदि सत्यवती राजा शांतनु से विवाह करेगी तो उस के पुत्र को साम्राज्य के लिए तुम से लड़ना पड़ेगा; और ऐसा कोई असुर या गंधर्व भी नहीं है जो तुम पर विजय पा सके. यही मेरी एक मात्र आपत्ति है इस विवाह पर अन्यथा मैं जानता हूँ इस से अच्छा कुछ नहीं हो सकता."

देवव्रत धीवर की बात समझ गया. अपने पिता के प्रति उस की ऐसी भक्ति थी कि उस ने बिना हिचकिचाए, सभी राजाओं के सामने शपथ ली कि सत्यवती और शांतनु का पुत्र ही हस्तिनापुर का उत्तराधिकारी बनेगा और कि “मैं अभी से हस्तिनापुर के राज-सिंहासन से अपने आप को अलग कर ले रहा हूँ, उस सिंहासन पर जो भी मेरे अधिकार रहे हों उन सब अधिकारों को मैं इसी क्षण त्याग रहा हूँ”.

पिता के लिए देवव्रत के ऐसे त्याग पर उस के साथ आए सभी राजा आश्चर्य चकित थे, किंतु धीवर अभी भी संतुष्ट नहीं हुआ था. “मैं जानता हूँ तुम ने, अपने गुणों के अनुरूप, अपने पिता के लिए यह महान त्याग किया है. मुझे पूरा विश्वास है इन राजाओं के बीच कहे अपने वचन से तुम कभी नहीं डिगोगे, किंतु कन्या के पिता को बहुत चिंतायें रहतीं हैं. तुम तो कभी राजा बनने की नहीं सोचोगे पर तुम्हारे पुत्र जो तुम्हारे ही जैसे प्रतापी होंगे यदि वे चाहेंगे तो मेरी पुत्री के पुत्रों को उनके उत्तराधिकार से वंचित कर देंगे”   

देवव्रत ने पुनः एक शपथ ली. “केवट राज, मेरी बात सुनो. मैने हस्तिनापुर पर अपने अधिकार छोड़ दिए हैं और अब मैं यह कह रहा हूँ कि वे कभी उत्पन्न ही नहीं होंगे जिन से तुम भय  खा रहे हो” देव वरत ने  कहा “मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि मैं आजन्म ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करूँगा. मेरे कोई पुत्र कभी नहीं होंगे जो तुम्हारी पुत्री के पुत्रों के सिंहासनारूढ़ होने में कोई बाधा डालें.मैं पुत्र-हीन रहूँगा फिर भी मैं जानता हूँ मरणोपरांत मुझे शास्वत आनंद के क्षेत्र प्राप्त होंगे”. उस की बात सुन सभी राजा हतप्रभ थे.अंतरिक्ष में देव, गंधर्व और ब्रह्मर्षि जमा हो गये. अप्सरायें उस पर पुष्प वृष्टि करने लगीं और देवताओं ने उस की प्रतिज्ञा को "भीष्म" बताया. और उस दिन से देवव्रत भीष्म कहलाने लगा.

धीवर को अब कोई आपत्ति नहीं थी. सत्यवती के निकट जा कर भीष्म ने कहा “आप इस रथ पर चढ़ें माता, अब हम अपने घर चलेंगे”. 

हस्तिनापुर पहुँच कर भीष्म ने जो कुछ हुआ था वह सब राजा शांतनु को बताया. सभी एकत्रित राजा उस के इस असाधारण पिता-भक्ति से चकित थे और एक स्वर में उन्हों कहा था “यह वास्तव में भीष्म है”. प्रसन्न चित्त से शांतनु ने तब अपने पुत्र को गले लगाते वर दिया “जब तक तुम जीना चाहोगे पुत्र, मृत्यु तुम्हारे पास नहीं भटकेगी. तुम्हारी आज्ञा ले कर ही काल तुम्हारे समीप कभी आ पाएगा.”