वैशम्पायन कह रहा है:
राजर्षि शांतनु अपनी विद्वता,अपनेगुण और अपनी सत्य-निष्ठाके लिए विश्व विख्यात था. वह उदार, क्षमाशील, धैर्यवान औरअद्भुत पराक्रमी भी था, जिसका लोहा सभी राजा मानते थे. धर्म और अर्थ के मर्म को समझते हुए उस ने भरत वंश और समस्त मानव जाति की रक्षा की थी.
एक दिन आखेट में एक मृग का पीछा करते हुए गंगा के किनारे पहुँचे शांतनु ने भागीरथी को लगभग सूखा हुआ पाया. चकित हो जब उस ने अपनी दृष्टि दौड़ाई तो देखा कि एक तरुण धनुर्धर ने हँसते हुए अपने तीरों से गंगा की बहती धारा को रोक रखा है! वह तरुण और कोई नहीं उसका और गंगा का पुत्र गंगादत्त था पर राजा ने अपने पुत्र को उस के जन्म के बाद बस कुछ ही क्षणों के लिये देखा था और वह उसे नहीं पहचान पाया. तरुण ने अपने पिता को पहचान लिया था पर अपना परिचय देने की जगह अपनी माया शक्ति से शांतनु को मतिभ्रमित कर वह अदृश्य हो गया.
उस के विलुप्त हो जाने पर, रहस्य को समझने के लिये राजा ने गंगा का आह्वान किया. उस किशोर के हाथ पकड़े प्रकट हो गंगा ने कहा “राजन,यह हमारा आठवाँ पुत्र है, जिसे मैने पालने के लिए अपने पास रखा था. इस के विद्याध्ययन का समय पूरा हो गया है. इस ने वसिष्ठ से वेदों के रहस्य सीखे हैं, सुरों के गुरु वृहस्पति और असुरों के गुरु शुक्र दोनो से इस ने ज्ञान प्राप्त किए हैं, और शस्त्र विद्या इस ने जमदाग्नि-पुत्र राम से पाई है. यह महान योद्धा है और यह राजा के सभी कर्तव्य भी समझता है. अब राजन, तुम अपने पुत्र को अपने साथ रखो”.
हर्षित शांतनु अपने पुत्र के साथ हस्तिनापुरआया और तुरंत उस ने गंगापुत्र देवव्रत को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया. देवव्रत के ज्ञान और उस के न्यायपूर्ण आचार व्यवहार से राज्य के ब्राह्मण, प्रजा और भारतवर्ष के अन्य राजा भी बहुत प्रसन्न थे.
देवव्रत को उत्तराधिकारी बनाने के चार वर्षों बाद, एक दिन यमुना तट पर शांतनु को एक अत्यंत मधुर सुगंध का भान हुआ. उस मादक, ललित सुगंध का स्रोत खोजने के क्रम में राजा को एक दिव्य सुंदरी कन्या दिखी. पूछने पर पता चला कि वह धीवरों के मुखिया की बेटी थी. उस के सौंदर्य और शील से, उसके देह से आती मादक सुगंध से भी, शांतनु अपना ह्रदय खो बैठा था और उसे अपनी पत्नी बनाना चाहने लगा था. उसी दिन उस ने धीवर प्रमुख से उस कन्या के हाथ मांगे.
धीवर ने माना कि शांतनु से अधिक अच्छा वर उस की पुत्री के लिए कोई हो ही नहीं सकता, किंतु उस ने राजा से वचन माँगे कि शांतनु के बाद हस्तिनापुर का राजा उस की कन्या का पुत्र ही बनेगा, देवव्रत नहीं. शांतनु का हृदय इच्छा से जल रहा था पर उस ने ऐसे अन्यायपूर्ण वचन देने से मना कर दिया और दग्ध हृदय से वापस अपनी राजधानी लौट गया. हस्तिनापुर में, अपनी अतृप्त इच्छा से शांतनु बेचैन रह रहा था. पिता को दुखी औरअन्यमनस्क रहते देख देवव्रत ने एक दिन उस के दुख का कारण जानना चाहा “आपकी समृद्धि में कोई कमी नहीं आई है, सभी राजा आज भी आप की बातों के बाहर नहीं गये हैं फिर आप इतने दुखी क्यों रहते हैं? किस चिंता से आप दुर्बल होते जा रहे हैं?”
“सच कह रहे हो तुम”, राजा ने कहा “मैं दुखी हूँ. मैं तुम्हारे विषय में सोच सोच कर चिंतित रहता हूँ. हमारे पुराने राजवंश रूपी वृक्ष के अब एक मात्र पल्लव तुम हो और तुम्हारा मन शस्त्र क्रीड़ा से कभी नहीं भरता है. मैं जीवन की अस्थिरता से डरता हूँ. यदि तुम्हारे ऊपर कोई संकट आ गया तो यह वंश पुत्र-हीन हो जाएगा. पर यह भी सच है कि तुम सौ पुत्रों से बढ़ कर हो, इसलिए मैं पुनर्विवाह की सोच भी नहीं सकता. मैं तुम्हारा कल्याण चाहता हूँ जिस से यह वंश चलता रहे.
“ज्ञानियों ने कहा है कि जिसे एक पुत्र है समझो उसे कोई पुत्र नहीं है. यज्ञ और वेद-ज्ञान से प्राप्त होने वाले पुण्य एक पुत्र के होने से प्राप्त होने वाले पुण्य के एक छटाँक बराबर भी नहीं हैं. यदि किसी युद्धमें कभी तुम मारे गये तो भरत वंश का क्या होगा यही सोच कर मैं दुर्बल होता जा रहा हूँ.”
किंतु देवव्रत ने कच्ची गोलियाँ नहीं खेलीं थीं. राजा की बातें सुन वह राजा के वृद्ध मंत्री से मंत्रणा करने गया. मंत्री सारी बात जानता था और उस ने देव व्रत को सब कुछ बता दिया. धीवर की शर्त सुन देवव्रत ने, कुछ वयोवृद्ध क्षत्रिय राजाओं को साथ ले कर, धीवरों के मुखिया से अपने पिता के लिए गंधवती के हाथ माँगे. धीवर ने अपनी बात दुहाराई. “यदि इंद्र भी गंधवती का पिता रहता तो राजा शांतनु से अच्छा वर वह अपनी पुत्री के लिए नहीं खोज पाता. गंधवती का जन्म तुम्हारे ही सदृश एक महान राजा के बीज से हुआ है. उस ने भी मुझे अनेक बार कहा है कि सत्यवती के लिए उपयुक्त वर राजा शांतनु ही हो सकते हैं. असित जैसे ब्रह्मर्षि के माँगने पर भी मैने इस कन्या के हाथ उन्हे नहीं दिए थे.
“बस एक चिंता मुझे है, यदि सत्यवती राजा शांतनु से विवाह करेगी तो उस के पुत्र को साम्राज्य के लिए तुम से लड़ना पड़ेगा; और ऐसा कोई असुर या गंधर्व भी नहीं है जो तुम पर विजय पा सके. यही मेरी एक मात्र आपत्ति है इस विवाह पर अन्यथा मैं जानता हूँ इस से अच्छा कुछ नहीं हो सकता."
देवव्रत धीवर की बात समझ गया. अपने पिता के प्रति उस की ऐसी भक्ति थी कि उस ने बिना हिचकिचाए, सभी राजाओं के सामने शपथ ली कि सत्यवती और शांतनु का पुत्र ही हस्तिनापुर का उत्तराधिकारी बनेगा और कि “मैं अभी से हस्तिनापुर के राज-सिंहासन से अपने आप को अलग कर ले रहा हूँ, उस सिंहासन पर जो भी मेरे अधिकार रहे हों उन सब अधिकारों को मैं इसी क्षण त्याग रहा हूँ”.
पिता के लिए देवव्रत के ऐसे त्याग पर उस के साथ आए सभी राजा आश्चर्य चकित थे, किंतु धीवर अभी भी संतुष्ट नहीं हुआ था. “मैं जानता हूँ तुम ने, अपने गुणों के अनुरूप, अपने पिता के लिए यह महान त्याग किया है. मुझे पूरा विश्वास है इन राजाओं के बीच कहे अपने वचन से तुम कभी नहीं डिगोगे, किंतु कन्या के पिता को बहुत चिंतायें रहतीं हैं. तुम तो कभी राजा बनने की नहीं सोचोगे पर तुम्हारे पुत्र जो तुम्हारे ही जैसे प्रतापी होंगे यदि वे चाहेंगे तो मेरी पुत्री के पुत्रों को उनके उत्तराधिकार से वंचित कर देंगे”
देवव्रत ने पुनः एक शपथ ली. “केवट राज, मेरी बात सुनो. मैने हस्तिनापुर पर अपने अधिकार छोड़ दिए हैं और अब मैं यह कह रहा हूँ कि वे कभी उत्पन्न ही नहीं होंगे जिन से तुम भय खा रहे हो” देव वरत ने कहा “मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि मैं आजन्म ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करूँगा. मेरे कोई पुत्र कभी नहीं होंगे जो तुम्हारी पुत्री के पुत्रों के सिंहासनारूढ़ होने में कोई बाधा डालें.मैं पुत्र-हीन रहूँगा फिर भी मैं जानता हूँ मरणोपरांत मुझे शास्वत आनंद के क्षेत्र प्राप्त होंगे”. उस की बात सुन सभी राजा हतप्रभ थे.अंतरिक्ष में देव, गंधर्व और ब्रह्मर्षि जमा हो गये. अप्सरायें उस पर पुष्प वृष्टि करने लगीं और देवताओं ने उस की प्रतिज्ञा को "भीष्म" बताया. और उस दिन से देवव्रत भीष्म कहलाने लगा.
धीवर को अब कोई आपत्ति नहीं थी. सत्यवती के निकट जा कर भीष्म ने कहा “आप इस रथ पर चढ़ें माता, अब हम अपने घर चलेंगे”.
हस्तिनापुर पहुँच कर भीष्म ने जो कुछ हुआ था वह सब राजा शांतनु को बताया. सभी एकत्रित राजा उस के इस असाधारण पिता-भक्ति से चकित थे और एक स्वर में उन्हों कहा था “यह वास्तव में भीष्म है”. प्रसन्न चित्त से शांतनु ने तब अपने पुत्र को गले लगाते वर दिया “जब तक तुम जीना चाहोगे पुत्र, मृत्यु तुम्हारे पास नहीं भटकेगी. तुम्हारी आज्ञा ले कर ही काल तुम्हारे समीप कभी आ पाएगा.”
राजर्षि शांतनु अपनी विद्वता,अपनेगुण और अपनी सत्य-निष्ठाके लिए विश्व विख्यात था. वह उदार, क्षमाशील, धैर्यवान औरअद्भुत पराक्रमी भी था, जिसका लोहा सभी राजा मानते थे. धर्म और अर्थ के मर्म को समझते हुए उस ने भरत वंश और समस्त मानव जाति की रक्षा की थी.
एक दिन आखेट में एक मृग का पीछा करते हुए गंगा के किनारे पहुँचे शांतनु ने भागीरथी को लगभग सूखा हुआ पाया. चकित हो जब उस ने अपनी दृष्टि दौड़ाई तो देखा कि एक तरुण धनुर्धर ने हँसते हुए अपने तीरों से गंगा की बहती धारा को रोक रखा है! वह तरुण और कोई नहीं उसका और गंगा का पुत्र गंगादत्त था पर राजा ने अपने पुत्र को उस के जन्म के बाद बस कुछ ही क्षणों के लिये देखा था और वह उसे नहीं पहचान पाया. तरुण ने अपने पिता को पहचान लिया था पर अपना परिचय देने की जगह अपनी माया शक्ति से शांतनु को मतिभ्रमित कर वह अदृश्य हो गया.
उस के विलुप्त हो जाने पर, रहस्य को समझने के लिये राजा ने गंगा का आह्वान किया. उस किशोर के हाथ पकड़े प्रकट हो गंगा ने कहा “राजन,यह हमारा आठवाँ पुत्र है, जिसे मैने पालने के लिए अपने पास रखा था. इस के विद्याध्ययन का समय पूरा हो गया है. इस ने वसिष्ठ से वेदों के रहस्य सीखे हैं, सुरों के गुरु वृहस्पति और असुरों के गुरु शुक्र दोनो से इस ने ज्ञान प्राप्त किए हैं, और शस्त्र विद्या इस ने जमदाग्नि-पुत्र राम से पाई है. यह महान योद्धा है और यह राजा के सभी कर्तव्य भी समझता है. अब राजन, तुम अपने पुत्र को अपने साथ रखो”.
हर्षित शांतनु अपने पुत्र के साथ हस्तिनापुरआया और तुरंत उस ने गंगापुत्र देवव्रत को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया. देवव्रत के ज्ञान और उस के न्यायपूर्ण आचार व्यवहार से राज्य के ब्राह्मण, प्रजा और भारतवर्ष के अन्य राजा भी बहुत प्रसन्न थे.
देवव्रत को उत्तराधिकारी बनाने के चार वर्षों बाद, एक दिन यमुना तट पर शांतनु को एक अत्यंत मधुर सुगंध का भान हुआ. उस मादक, ललित सुगंध का स्रोत खोजने के क्रम में राजा को एक दिव्य सुंदरी कन्या दिखी. पूछने पर पता चला कि वह धीवरों के मुखिया की बेटी थी. उस के सौंदर्य और शील से, उसके देह से आती मादक सुगंध से भी, शांतनु अपना ह्रदय खो बैठा था और उसे अपनी पत्नी बनाना चाहने लगा था. उसी दिन उस ने धीवर प्रमुख से उस कन्या के हाथ मांगे.
धीवर ने माना कि शांतनु से अधिक अच्छा वर उस की पुत्री के लिए कोई हो ही नहीं सकता, किंतु उस ने राजा से वचन माँगे कि शांतनु के बाद हस्तिनापुर का राजा उस की कन्या का पुत्र ही बनेगा, देवव्रत नहीं. शांतनु का हृदय इच्छा से जल रहा था पर उस ने ऐसे अन्यायपूर्ण वचन देने से मना कर दिया और दग्ध हृदय से वापस अपनी राजधानी लौट गया. हस्तिनापुर में, अपनी अतृप्त इच्छा से शांतनु बेचैन रह रहा था. पिता को दुखी औरअन्यमनस्क रहते देख देवव्रत ने एक दिन उस के दुख का कारण जानना चाहा “आपकी समृद्धि में कोई कमी नहीं आई है, सभी राजा आज भी आप की बातों के बाहर नहीं गये हैं फिर आप इतने दुखी क्यों रहते हैं? किस चिंता से आप दुर्बल होते जा रहे हैं?”
“सच कह रहे हो तुम”, राजा ने कहा “मैं दुखी हूँ. मैं तुम्हारे विषय में सोच सोच कर चिंतित रहता हूँ. हमारे पुराने राजवंश रूपी वृक्ष के अब एक मात्र पल्लव तुम हो और तुम्हारा मन शस्त्र क्रीड़ा से कभी नहीं भरता है. मैं जीवन की अस्थिरता से डरता हूँ. यदि तुम्हारे ऊपर कोई संकट आ गया तो यह वंश पुत्र-हीन हो जाएगा. पर यह भी सच है कि तुम सौ पुत्रों से बढ़ कर हो, इसलिए मैं पुनर्विवाह की सोच भी नहीं सकता. मैं तुम्हारा कल्याण चाहता हूँ जिस से यह वंश चलता रहे.
“ज्ञानियों ने कहा है कि जिसे एक पुत्र है समझो उसे कोई पुत्र नहीं है. यज्ञ और वेद-ज्ञान से प्राप्त होने वाले पुण्य एक पुत्र के होने से प्राप्त होने वाले पुण्य के एक छटाँक बराबर भी नहीं हैं. यदि किसी युद्धमें कभी तुम मारे गये तो भरत वंश का क्या होगा यही सोच कर मैं दुर्बल होता जा रहा हूँ.”
किंतु देवव्रत ने कच्ची गोलियाँ नहीं खेलीं थीं. राजा की बातें सुन वह राजा के वृद्ध मंत्री से मंत्रणा करने गया. मंत्री सारी बात जानता था और उस ने देव व्रत को सब कुछ बता दिया. धीवर की शर्त सुन देवव्रत ने, कुछ वयोवृद्ध क्षत्रिय राजाओं को साथ ले कर, धीवरों के मुखिया से अपने पिता के लिए गंधवती के हाथ माँगे. धीवर ने अपनी बात दुहाराई. “यदि इंद्र भी गंधवती का पिता रहता तो राजा शांतनु से अच्छा वर वह अपनी पुत्री के लिए नहीं खोज पाता. गंधवती का जन्म तुम्हारे ही सदृश एक महान राजा के बीज से हुआ है. उस ने भी मुझे अनेक बार कहा है कि सत्यवती के लिए उपयुक्त वर राजा शांतनु ही हो सकते हैं. असित जैसे ब्रह्मर्षि के माँगने पर भी मैने इस कन्या के हाथ उन्हे नहीं दिए थे.
“बस एक चिंता मुझे है, यदि सत्यवती राजा शांतनु से विवाह करेगी तो उस के पुत्र को साम्राज्य के लिए तुम से लड़ना पड़ेगा; और ऐसा कोई असुर या गंधर्व भी नहीं है जो तुम पर विजय पा सके. यही मेरी एक मात्र आपत्ति है इस विवाह पर अन्यथा मैं जानता हूँ इस से अच्छा कुछ नहीं हो सकता."
देवव्रत धीवर की बात समझ गया. अपने पिता के प्रति उस की ऐसी भक्ति थी कि उस ने बिना हिचकिचाए, सभी राजाओं के सामने शपथ ली कि सत्यवती और शांतनु का पुत्र ही हस्तिनापुर का उत्तराधिकारी बनेगा और कि “मैं अभी से हस्तिनापुर के राज-सिंहासन से अपने आप को अलग कर ले रहा हूँ, उस सिंहासन पर जो भी मेरे अधिकार रहे हों उन सब अधिकारों को मैं इसी क्षण त्याग रहा हूँ”.
पिता के लिए देवव्रत के ऐसे त्याग पर उस के साथ आए सभी राजा आश्चर्य चकित थे, किंतु धीवर अभी भी संतुष्ट नहीं हुआ था. “मैं जानता हूँ तुम ने, अपने गुणों के अनुरूप, अपने पिता के लिए यह महान त्याग किया है. मुझे पूरा विश्वास है इन राजाओं के बीच कहे अपने वचन से तुम कभी नहीं डिगोगे, किंतु कन्या के पिता को बहुत चिंतायें रहतीं हैं. तुम तो कभी राजा बनने की नहीं सोचोगे पर तुम्हारे पुत्र जो तुम्हारे ही जैसे प्रतापी होंगे यदि वे चाहेंगे तो मेरी पुत्री के पुत्रों को उनके उत्तराधिकार से वंचित कर देंगे”
देवव्रत ने पुनः एक शपथ ली. “केवट राज, मेरी बात सुनो. मैने हस्तिनापुर पर अपने अधिकार छोड़ दिए हैं और अब मैं यह कह रहा हूँ कि वे कभी उत्पन्न ही नहीं होंगे जिन से तुम भय खा रहे हो” देव वरत ने कहा “मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि मैं आजन्म ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करूँगा. मेरे कोई पुत्र कभी नहीं होंगे जो तुम्हारी पुत्री के पुत्रों के सिंहासनारूढ़ होने में कोई बाधा डालें.मैं पुत्र-हीन रहूँगा फिर भी मैं जानता हूँ मरणोपरांत मुझे शास्वत आनंद के क्षेत्र प्राप्त होंगे”. उस की बात सुन सभी राजा हतप्रभ थे.अंतरिक्ष में देव, गंधर्व और ब्रह्मर्षि जमा हो गये. अप्सरायें उस पर पुष्प वृष्टि करने लगीं और देवताओं ने उस की प्रतिज्ञा को "भीष्म" बताया. और उस दिन से देवव्रत भीष्म कहलाने लगा.
धीवर को अब कोई आपत्ति नहीं थी. सत्यवती के निकट जा कर भीष्म ने कहा “आप इस रथ पर चढ़ें माता, अब हम अपने घर चलेंगे”.
हस्तिनापुर पहुँच कर भीष्म ने जो कुछ हुआ था वह सब राजा शांतनु को बताया. सभी एकत्रित राजा उस के इस असाधारण पिता-भक्ति से चकित थे और एक स्वर में उन्हों कहा था “यह वास्तव में भीष्म है”. प्रसन्न चित्त से शांतनु ने तब अपने पुत्र को गले लगाते वर दिया “जब तक तुम जीना चाहोगे पुत्र, मृत्यु तुम्हारे पास नहीं भटकेगी. तुम्हारी आज्ञा ले कर ही काल तुम्हारे समीप कभी आ पाएगा.”
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