Tuesday, 19 May 2015

आदि पर्व (25): विचित्रवीर्य और दीर्घतमस

शांतनु और सत्यवती के दो पुत्र हुए, चित्रांगद और विचित्रवीर्य.  विचित्रवीर्य बालक ही था जब उस के पिता काल कवलित हो गये.  शांतनु के देहावसान पर चित्रांगद हस्तिनापुर का राजा बना. चित्रांगद ने अपने राज्याभिषेक के शीघ्र बाद सभी राजाओं पर विजय प्राप्त कर ली थी और अपने समय में सब से पराक्रमी राजा माना जाने लगा था. उस के सामने कोई मनुष्य या असुर नहीं टिक सकता था. उस की बढ़ती शक्ति देख चित्रांगद ही नाम के एक गंधर्व ने एक दिन उसे युद्ध के लिए ललकारा. कुरुक्षेत्र में सरस्वती के किनारे दोनो चित्रांगद तीन वर्षों तक लड़ते रहे. अंत में मायावी  गंधर्व शांतनु-पुत्र पर भारी पड़ा और तीन वर्षों के बाद राजा चित्रांगद को युद्ध में मार कर वह गंधर्व  लोक को वापस लौट गया.

अपने भाई की अंत्येष्टि कर भीष्म ने बालक विचित्रवीर्य को हस्तिनापुर का राजा बनाया. शासन का सारा भर अपनी माता सत्यवती की इच्छा से भीष्म स्वयं संभाल रहा था. विचित्रवीर्य के वयस्क होने पर भीष्म को उस के विवाह की चिंता होने लगी. उन्ही दिनो काशी नरेश ने अपनी तीन पुत्रियों के लिए एक संयुक्त स्वयंवर आयोजित किया था. उसकी तीनो पुत्रियाँ, अंबा, अंबिका और अंबालिका बहुत रूपवती थीं और संपूर्ण भारतवर्ष के राजा उस स्वयंवर में भाग लेने काशी पहुँचे थे. भीष्म भी स्वयंवर स्थल पर पहुँचा, और उस ने घोषणा की कि वह तीनो को अपने भाई के लिए ले जा रहा है. ऐसा कह उस ने तीनो बहनों को बलात अपने रथ में बिठाया और वहाँ उपस्थित राजाओं को ललकारते हुए चल पड़ा.

भीष्म को इस तरह तीनो का अपहरण करते देख स्वयंवर में आए राजा बहुत कुपित हुए और अपने आभूषण उतार, कवच आदि धारण करउस के विरोध में खड़े हो गये. किंतु भीष्म के आगे उन की एक नहीं चली. उन्हे निष्क्रीय कर भीष्म कुछ आगे बढ़ा था जब पीछे से शल्य की ललकार सुनाई पड़ी –“रुको और युद्ध करो.”  भीष्म रुक गया, स्वयंवर में आए सभी राजा उन दोनो के युद्ध के मूक दर्शक बन खड़े हो गए. भीष्म ने शल्य के रथ के चारो घोड़ों को मार उस के सारथी  के भी प्राण हर लिए. किन्तु शल्य को उस ने छोड़ दिया.  पराजित शल्य अन्य राजाओं के साथ वापस लौटा.

सभी राजाओं को पराजित कर भीष्म उन तीनो राजपूत्रियों को ऐसे स्नेह के साथ हस्तिनापुर ले आया जैसे वे उसकी अपनी पुत्रियाँ हों. उन्हे देख सत्यवती और विचित्रवीर्य की प्रसन्नता की सीमा नहीं रही और एक शुभ मुहूर्त में राजा विचित्रवीर्य के विवाह की तैयारियाँ होने लगीं. इस बीच काशी नरेश की बड़ी पुत्री ने एक दिन ब्राह्मणों की उपस्थिति में भीष्म से कहा “स्वयंवर में मैं सौभ नरेश को वरने जा रही थी. हम ने पहले से यह निश्चित कर लिया था और मेरे पिता को भी इस की जानकारी थी. आप धर्मज्ञ हैं, यह जान कर आप जो उचित समझें वह करें”. अंबा की बात सुन भीष्म ने वेदज्ञ ब्राह्मणों से मंत्रणा की और ब्राह्मणों, अंगरक्षकों और दासियों के साथ अंबा को ससम्मान सौभ-पति के पास भिजवा दिया.

नियत समय पर विचित्रवीर्य का विवाह सम्पन हुआ.दोनो रानियाँ अप्सराओं सदृश सुंदरी थीं और राजा भी अश्विनिकुमारों से कम सुदर्शन नहीं था.  युवा राजा अपनी दोनो पत्नियों से इतना प्रसन्न था कि अगले सात वर्षों तक वह अंतःपुर से बाहर नहीं निकला. किंतु प्रारब्ध से उसका यह सुख देखा नहीं गया और विवाह के आठवें वर्ष में विचित्रवीर्य यक्ष्मा से ग्रस्त हो गया. सभी उपचार किये गये पर ज्ञानी वैद्यों के अथक प्रयास भी उसे नहीं बचा पाए; और एक दिन बिना कोई उत्तराधिकारी छोड़े विचित्रवीर्य स्वर्ग सिधार गया.  रोते मन से, युवा रानियों ने सत्यवती और भीष्म के साथ विचित्रवीर्य के प्रेत कार्य पूरे किए.

राजा पुरु के प्राचीन वंश को अब नष्ट होते देख सत्यवती ने भीष्म से हस्तिनापुर का राजा बन कर विवाह कर वंश को बढ़ाने की प्रार्थना की.  “महाराज शांतनु का वंश अब तुम्ही बचा सकते हो” सत्यवती ने कहा “वेद वेदांगों केज्ञान में तुम वृहस्पति और शुक्र से कम नहीं हो. अपने परिवार की परंपराओं के भी तुम्हे पूरे ज्ञान हैं. आवश्यकता पड़ने पर, संकट काल में, युक्ति का संबल लेना पड़ता है. अल्पायु में मेरा पुत्र, तुम्हारा भाई,स्वर्ग सिधार गया है. उस की पत्नियाँ पुत्र चाहती हैं, यह प्रतापी वंश भी पुत्र चाहता है जिस से यह चल पाए.
“सब कुछ देखते हुए मैं तुम्हे आज्ञा देती हूँ कि तुम दोनो रानियों से पुत्र उत्पन्न करो और हस्तिनापुर के राजा बन अपने लिए एक रानी लाओ”

सत्यवती ने वंश की रक्षा के लिए, कुरूकुल को नरक से बचाने के लिए भीष्म से यह कहा था. पर ऐसा कहते समय वह भीष्म कीअपरिमित सत्य-निष्ठा को भूल गयी थी. माता की बात सुन भीष्म ने स्पष्ट शब्दों में मना कर दिया.  “जो आप कह रहीं हैं माँ” भीष्म ने कहा “वह सर्वथा धर्म संगत है. किंतु आपने मेरे आजन्म ब्रह्मचर्य की शपथ भी सुन रखी होगी.  चाहे मिट्टी अपनी सुगंध खो दे या जल अपनी नमी खो दे,  चाहे सूर्य अपना ताप खो बैठे या चंद्रमा अपनी शीतलता,  मैं अपने वचन से कभी  नहीं हट सकता. मैं तीनो लोकों को छोड़ सकता हूँ, मैंस्वर्ग का आधिपत्य भी छोड़ सकता हूँ किंतु सत्य का साथ मैं कभी नहीं छोड़ सकता.
“इंद्र कभी शक्तिहीन हो सकता है,  धर्म राज कभी न्याय को भूल सकते हैं किंतु मैं अपने वचन कभी नहीं भुला सकता”.

सत्यवती इतनी सरलता से मानने वाली नहीं थी. “मैं तुम्हारा सत्य-प्रेम जानती हूँ. मैं यह भी जानती हूँ कि तुमने अपनी भीष्म प्रतिज्ञा मेरे ही चलते की थी.  पर इस संकट की वेला में अपने पूर्वजों के प्रति अपने कर्तव्य तुम कैसे भूल जा रहे हो?” यह कह सत्यवती फूट फूट कर रोने लगी. भीष्म ने उसे समझाया, किसी धर्मशास्त्र में कभी भी सत्य के अतिक्रमण को उचित नहीं माना गया है. ऐसे संकट में क्या उचित होगा इस पर ज्ञानी ब्राह्मणों के साथ मिल कर निर्णय लिया जा सकता है पर स्थापित धार्मिक आचार व्यवहार को तिलांजलि नहीं दी जा सकती. भीष्म ने क्षत्रियों के इतिहास से दो उदाहरण दिए.

जमदाग्नि के पुत्र राम ने, अपने पिता की हत्या के प्रतिशोध में,  हैहय राजा अर्जुन के सहस्त्र बाहुओं को अपने परशु से काट कर उसका वध किया था. उस के बाद वह विश्व-विजय पर निकला और पृथ्वी को उस ने इक्कीस बार क्षत्रिय विहीन किया था. जबक्षत्रियों की जाति समाप्ति पर आ गयी तो क्षत्रिय स्त्रियों ने वेदज्ञ ब्राह्मणों से पुत्र उत्पन्न कराए थे. वेदों में कहा गया है कि इस तरह से उत्पन्न हुआ पुत्र उस का होता है जिस ने उस पुत्र की माता से विवाह किया था. इस तरह क्षत्रिय जाति को पुनर्जीवन मिला था.

भीष्म का दूसरा उदाहरण दीर्घतमस ऋषि का था.

प्राचीन काल में कभी उतथ्य नाम का एक ऋषि होता था. एक दिन उस के अनुज,  देव-गुरु वृहस्पति ने उतथ्य की पत्नी ममता से सहवास की इच्छा व्यक्त की. ममता ने उसे मना किया “मेरे गर्भ में उतथ्य का पुत्र पल रहा है, उस ने वेदों के अध्ययन भी कर लिए हैं,वहाँ दो प्राणियों के लिए पर्याप्त जगह नहीं है. इस लिए, वृहस्पति, तुम अभी अपनी इच्छा पूर्ति की नहीं सोचो”. पर वृहस्पति की इच्छा बहुत बलवती थी और उस ने ममता को नहीं छोड़ा. गर्भस्थ शिशु सब सुन रहा था; उस ने भी वृहस्पति को मना किया. “कक्ष छोटा है, मैं इस में पहले से हूँ, आप प्रयास नहीं करें". फिर भी वृहस्पति ने ममता को अपने आलिंगन से बाहर नहीं जाने दिया.  पर गर्भस्थ शिशु के उपद्रव से वृहस्पति के प्रयास असफल रहे और उसके बीज नीचे धरा पर गिर गये. कुपित वृहस्पति ने उसे दृष्टिहीन रहने का शाप दिया और जन्म होने पर अपनी दृष्टिहीनता के चलते वह बालक दीर्घतमस के नाम से जाना गया.

दृष्टिहीन रहने पर भी अपने ज्ञान के चलते दीर्घतमस एक स्वस्थ और सुंदर ब्राह्मण कन्या प्रद्वेषी को अपनी पत्नी बना सका. प्रद्वेषी और दीर्घतमस के अनेक बच्चे हुए जिनमें गौतम ज्येष्ठ था. दुर्भाग्य वश ऋषि के सभी पुत्र मूर्ख और लोभी निकले. उन्हे अपने पिता के प्रति कोई भक्ति नहीं थी. धीरे धीरे प्रद्वेषी भी अपने पतिके विरुद्ध हो गयी. ऋषि के पूछने पर उस ने कहा “स्वामी को भर्तृ कहा जाता है क्योंकि वह अपनी पत्नी का भरण पोषण करता है; उसे पति भी कहा जाता है क्योंकि वह अपनी पत्नी की रक्षा करता है. पर तुम इन दोनो में से कुछ भी नहीं कर पाते. तुम जन्म से दृष्टिहीन हो, मैं ही तुम्हारा और तुम्हारे पुत्रों का भरण पोषण करती हूँ. अब मैं वह सब नहीं कर पाऊंगी.

प्रद्वेषी की बातें सुन दीर्घतमस बहुत रुष्ट हुआ और उस ने उस दिन नियम बनाए “आज से कोई स्त्री बस एक ही पुरुष के साथ संबंध रख सकती है. पति जीवित हो या नहीं यदि कोई स्त्री दूसरे पुरुष से संबंध बनाएगी तो पतिता मानी जाएगी. जिस स्त्री का पति नहीं हो वह सदैव संभावित पापी समझी जाएगी. धनिक स्त्रियाँ भी अपने धन को नहीं भोग सकेंगी. उन्हे आजन्म आक्षेप झेलने पड़ेंगे और उनके विषय में लोगों की सदा नीच धारणा रहेगी".

यह सब सुन कर प्रद्वेषी ने अपने पुत्रो से उसे गंगा में फेंक आने को कहा और पुत्रों ने उसे लकड़ी के एक बेड़े से बाँध गंगा मेंबहा दिया. दृष्टिहीन, वृद्ध दीर्घतमस ने बेड़े से बँधे बँधे कई राजाओं के क्षेत्र पार कर लिए थे जब उसका बेड़ा राजा बलि से जा लगा जो गंगा में स्नान कर रहा था.  बलि निस्संतान था, जब उसे पता चला कि उसने किसे बचाया है तो उस ने दीर्घतमस से अपने लिए पुत्र उत्पन्न करवाने की सोची. किंतु उसे वृद्ध और दृष्टिहीन जान बलि की रानी सुदेष्ना ने, स्वयं उसके पास नही जा कर, अपनी एक शूद्र दासी को उसके पास भेज दिया.  दीर्घतमस और उस दासी के ग्यारह पुत्र हुए थे. एक दिन राजा ने ऋषि से पूछा “क्या ये मेरे पुत्र हैं?”

“नहीं” ऋषि ने कहा “ये मेरे पुत्र हैं. मुझे अपने उपयुक्त नहीं समझ तुम्हारी रानी ने अपनी दासी को मेरे पास भेज दिया था".  राजा ने ऋषि से पुनः पुत्र पाने की प्रार्थना की और सुदेष्ना को ऋषि के पास भेजा. ऋषि ने रानी के शरीर को स्पर्श भर किया और कहा “तुम्हे सूर्य के सदृश तेजस्वी पुत्र होगा”.समय पर सुदेष्ना ने अंग नाम के एक राजर्षि को जन्म दिया.

दीर्घतमस और सुदेष्ना के पुत्र का प्रसंग सुना कर भीष्म ने कहा “इस तरह बलि का वंश चल पाया और इसी तरह अनेक क्षत्रिय महारथियों के जन्म ब्राह्मणों के बीज से हुए हैं. इसे जान कर, माता,  जो तुम उचित समझो, वह करो.”

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