Tuesday, 19 May 2015

आदि पर्व (23): भीष्म का जन्म

इक्ष्वाकु वंश में कभी महाभिष नाम का एक प्रतापी राजा हुआ था. अनेकअश्वमेध और राजसूय यज्ञ कर उस ने स्वर्ग में अपना स्थान बना लिया था.  एक दिन देव गण ब्रह्मा का पूजन कर रहे थे जब अन्य राजर्षियों के साथ महाभिष भी वहां उपस्थित था. पितामह ब्रह्मा की आराधना के लिए गंगा भी आई हुई थी. तभी हवा से गंगा के धवल वस्त्र कुछ हट गए और उसका शरीर अनावृत हो गया. देवताओं ने अपनी दृष्टि नीचे कर ली थी पर महाभिष धृष्टता पूर्वक देखता रहा. उसके इस अभद्र आचरण पर ब्रह्मा ने उसे शाप दिया "नीच, गंगा को देख कर तुम अपने आप को भूल बैठे थे इसलिए तुम पृथ्वी पर मनुष्यों के बीच जन्म लोगे.  गंगा को भी पृथ्वी पर जाना है;  वह वहां तुम्हे तब तक यातना देती रहेगी जब तक तुम उस पर क्रुद्ध हो उसे शाप-मुक्त न कर दो."        

महाभिष ने पृथ्वी पर कुरुवंश के राजा प्रतीप के पुत्र के रूप में जन्म लेने की इच्छा व्यक्त की. गंगा भी महाभिष को च्युत होते देख उसकी इच्छा करते हुए वहाँ से चल दी. मार्ग में उसे आठो वसु मिले जो दुखी मन से उसी पथ पर जा रहे थे. पूछने पर उन्हों ने बताया कि उनके एक क्षम्य, गौण अपराध पर वसिष्ठ ने क्रोध में आ उन्हें शाप दिया है.
"वसिष्ठ संध्या पूजन में लीन थे जब अज्ञानता वश, हम उन्हें देख नहीं पाये थे, हम उन्हें लांघ बैठे. आक्रोश में उन्होंने हमें मर्त्यलोक पर जन्म लेने का शाप दे दिया है. वसिष्ठ की बात तो कट नहीं सकती, आप से हे गंगे प्रार्थना है कि आप मानव देह धर कर हमें अपना पुत्र बना लें."

इस पर गंगा ने पूछा "आप लोगों ने किस के पुत्र के रूप में जन्म लेने की सोची है?"
"पुरू वंश के प्रतीप के होने वाले पुत्र शांतनु के, जो अपने समय का एक विश्व विख्यात राजा होगा"     
"यही मैंने भी सोचा था" गंगा ने कहा
"पर देवी, आप को अपने नवजात शिशुओं को जल में बहा देना होगा जिस से हम पृथ्वी पर समय बिताने के कष्ट से बच सकें"
"मैं ऐसा ही करुँगी" गंगा ने सहमति जताई "किन्तु शांतनु और मेरे विवाह से एक पुत्र तो बचना ही चाहिए"
इस पर वसुओं ने कहा "हम सब अपनी शक्तियों का आठवां भाग देंगे और उस से देवी आप को एक पूर्ण पुत्र मिल जाएगा जैसा आप चाहतीं  हैं. किन्तु आप के इस पुत्र को संतानहीन ही रहना पड़ेगा"  

गंगा के साथ पूरी व्यवस्था कर वसु अपने गंतव्य की ओर निकल गए.

उस समय पृथ्वी पर पुरूवंश के प्रतीप का राज था. एक बार प्रतीप गंगोत्री के निकट तप कर रहा था जब गंगा एक रूपसी नारी के भेष में उसके निकट जा उसकी गोद के दाहिने भाग में बैठ गयी. प्रतीप ने उस से पूछा कि वह कौन थी और क्या चाहती थी. गंगा ने कहा: "हे राजन, मैं तुम्हे चाहती हूँ, पति के रूप में; और स्वेच्छा से आती स्त्री को कभी मना नहीं करना चाहिए. मैं एक दिव्य स्त्री हूँ और मेरा सौंदर्य अतुलनीय है, मुझे स्वीकार कर लो."

"किन्तु सुंदरी, मैं कभी किसी अन्य स्त्री के निकट नहीं जाता. और तुम मेरी गोद के दाहिने भाग में बैठी हो. यह भाग पुत्री का रहता है, स्त्री गोद के बाएं भाग में बैठती है." राजा ने कहा" तुम दाहिने भाग में बैठ गयी हो इस लिए मैं कहूँगा तुम समय आने पर मेरे पुत्र से विवाह कर लेना. अपनी पुत्र-वधु के रूप में मैं तुम्हे स्वीकार करता हूँ."
"जैसी आप की इच्छा, राजन. मैं आप के पुत्र का वरण करुँगी किन्तु राजन, आप अपने पुत्र को निर्देश दे देंगे कि वह मेरे किसी व्यवहार की शुद्धता या उपयुक्तता पर कभी प्रश्न नहीं उठाएगा. और मेरा वचन है कि उसके साथ रह कर मैं उसे आनंदित रखूंगी और अपने गुणों और हमारे पुत्रों के चलते वह मरणोपरांत स्वर्ग को प्राप्त करेगा.  यह कह कर गंगा तत्काल अन्तर्धान हो गयी. और राजा अपने पुत्र के जन्म की प्रतीक्षा करने लगा जिस से वह उस दिव्य स्त्री को दिए अपने वचन पूरे कर पाये. प्रतीप के वार्धक्य में उसे पुत्र प्राप्त हुआ जिसे शांतनु नाम दिया गया.

शांतनु के युवा होने पर प्रतीप ने उस से कहा कि कुछ समय पहले एक दिव्य स्त्री मेरे पास तुम्हारी भलाई के लिए आई थी. यदि कभी एकांत में वह तुम से मिले और तुम से पुत्र प्रार्थना करे तो तुम उसे स्वीकार कर उस से विवाह कर लेना. और मेरा यह भी आदेश है कि उसके किसी कृत्य की उपयुक्तता या शुद्धता पर कोई प्रश्न उस से नहीं करना. यह सब कह कर शांतनु का राज्याभिषेक कर प्रतीप वानप्रस्थ हो गया.

एक दिन गंगा के किनारे विचरण करते हुए शांतनु को एक अत्यंत रूपवती कन्या मिली. दोनों एक दूसरे को कुछ देर तक देखते रह गए. शांतनु उस पर मोहित हो गया और उस ने पूछा "कौन हो तुम, सुंदरी? कोई देवी हो या किसी दानव की पुत्री हो? या गन्धर्व या कोई अप्सरा हो? चाहे यक्षी या नाग कन्या या कोई मानवी ही हो, मैं तुम से विवाह करना चाहता हूँ." 
सुंदरी ने अपने विषय में कुछ नहीं बोलते हुए राजा के परिणय प्रस्ताव को स्वीकार करते हुए कहा "राजन, मैं तुम्हारी पत्नी अवश्य बनूँगी और तुम्हारी सारी आज्ञाओं का पालन करुँगी, किन्तु हे राजन, मैं कुछ भी करूँ - चाहे तुम्हे प्रिय लगे चाहे अप्रिय - तुम हस्तक्षेप नहीं करना और न ही पूछना कि मैं ऐसा कुछ भी क्यों कररही हूँ."
"और राजन, मैं तभी तक तुम्हारे साथ रहूंगी जब तक तुम मेरे साथ सहज और अनुकूल व्यवहार रखोगे; यदि तुमने कुद्ध स्वर में मुझ से कभी बातें की तो मैं तुम्हे त्याग दूंगी.  

शांतनु प्रेम में अभिभूत था. उसे सारे प्रतिबन्ध स्वीकार थे. विवाह कर वे साथ रहने लगे. शांतनु उसके रूप, व्यवहार, सेवा भाव, और उसकी उदारता से सदैव प्रसन्न रहता था.
कालान्तर में उनके आठ पुत्र हुए. सभी बच्चों के मुख मंडल दैवी आभा से चमकते रहते थे. पर गंगा बच्चों के जन्म लेते ही उन्हें जल में प्रवाहित कर देती थी, शांतनु को यह बताते हुए कि यह तुम्हारे भले के लिए कर रही हूँ. राजा इस से दुखी हो जाता था पर उसे अपने वचन याद थे और वह गंगा को खोना नहीं चाहता था. जब गंगा आठवें बच्चे को भी प्रवाहित करने जा रही थी तो शांतनु से नहीं रहा गया और उस ने मना किया

"मत मारो इसे. कौन हो तुम जो अपने जाए बच्चों को इस निर्ममता से मार देती हो?"
"तुम पुत्र चाहते हो?"गंगा ने पूछा "मैं इसे नहीं मारती, रखो इसे. पर हमारे बीच हुए अनुबंध से मेरा तुम्हारे साथ रहने का समय समाप्त हो गया और मैं अब जा रही हूँ. जान जाओ राजन कि मैं गंगा हूँ, महान ऋषि भी जिसकी पूजा करते हैं. कुछ देवों के निमित्त सिद्ध करने के लिए मैं तुम्हारे साथ इतने दिनों तक रही. वसुओं को वसिष्ठ के शाप के चलते पृथ्वी पर जन्म लेना पड़ रहा था. पृथ्वी पर मात्र तुम उनके पिता बनने योग्य थे,  किन्तु उनकी माता बनने योग्य कोई स्त्री नहीं थी. इस लिए मानवी स्त्री का रूप धारण कर मैं तुम्हारी पत्नी बनी. वसुओं ने अनुरोध किया था कि जन्म के बाद मैं उन्हें शीघ्रातिशीघ्र पृथ्वी से मुक्त कर दूँ, इस पर भी कि हमारा एक पुत्र पूर्णायु भोगे. मेरे दिए इस पुत्र का नाम राजन, गंगादत्त रखना"

गंगा अब चली जाना चाहती थी पर शांतनु उसे रोकना चाहता था. उस ने गंगा से पूछा "वसुओं के किस दोष के चलते उन्हें यह शाप मिला था? और यदि गंगादत्त भी वसु है तो इस ने क्या अपराध किया था कि इसे लम्बे समय तक मर्त्य लोक पर रहना पडेगा?"  

गंगा ने पूरी कथा सुनाई. "कश्यप कीअनेक पत्नियों में दक्ष-पुत्री सुरभि भी एक है. सुरभि और दक्ष के नंदिनी नाम की एक पुत्री गो-रूप में है. नंदिनी साधारण गाय नहीं, कामधेनु है. वह किसी भी इच्छा को पूरी कर सकती है. वरुण के पुत्र वसिष्ठ मेरु पर्वत पर आश्रम बना कर रहते थे जहाँ उन्हों ने होम की सामग्रियों के लिए नंदिनी को मांग कर अपने आश्रम में रखा था. नंदिनी आश्रम में स्वच्छंद घूमती थी.

"एक दिन आठो वसु अपनी पत्नियों के साथ मेरु पर्वत के वनों में विहार कर रहे थे जब उन्होंने नंदिनी को देखा. नंदिनी में सभी मांगलिक चिह्न दीख रहे थे - बड़ी बड़ी आँखें, भरे पूरे थन, उत्तम सुडौल पूंछ, स्वस्थ खुर आदि. द्यौ (आठ वसुओं में से एक- अन्य नाम प्रभास) ने उसे दिखाते हुए कहा कि जो मनुष्य इसका दूध पी ले सहस्त्र वर्षों तक वह तरुण बना रह जाएगा. यह सुन  द्यौ कीपत्नी ने अपने स्वामी से कहा कि वह अपनी एक मानवी मित्र को नंदिनी देना चाहती है जिस से उस की मित्र पृथ्वी पर रह कर भी जरा, व्याधि आदि से सदा मुक्त रहे.   
"पत्नी की ऐसी बातें सुन, उसे प्रसन्न रखने के लिए द्यौ ने अन्य वसुओां की मदद से गाय चुरा ली. पत्नी की इच्छा पूरी करने की धुन में वह इस कार्य में निहित पाप को तो भूल ही गया था, वसिष्ठ जैसे तपस्वी ऋषि की शक्तियों को भी वह भूल बैठा था.

"दिन ढलने पर जब वसिष्ठ अपने आश्रम लौटे तो नंदिनी को नहीं पा कर उन्हों ने अपनी दिव्यदृष्टि से उसे खोजना आरम्भ किया. वे तुरंत जान गए कि द्यौ के नेतृत्व में वसुओं  ने उसे चुरा लिया है. उनका क्रोध जग गया. "वसुओं ने मेरी गाय चुराई है इस लिए उन्हें पृथ्वी पर जन्म लेना पडेगा."  शाप दे कर वसिष्ठ ने अपना ध्यान जपादि कर्मों में लगा दिया. वसुओं को तब तक अपने शप्त हो जाने का संज्ञान हो चुका था और वे लम्बे कदम भरते हुए वसिष्ठ के आश्रम में क्षमा याचना के लिए पहुँच गए.

"वसिष्ठ को मनाने में वे सफल नहीं हुए. किन्तु वसिष्ठ ने इतनी छूट दी कि द्यौ को छोड़, क्यों कि द्यौ चोरी में अग्रणी था, शेष सातो वसु अपने जन्म के एक वर्ष के अंदर ही पृथ्वी से मुक्त हो जाएंगे. द्यौ को अपने अपराध के दंड स्वरुप पृथ्वी पर पूर्णायु भोगना पडेगा, वसिष्ठ ने कहा, वह वीर, धार्मिक और पितृ भक्त रहेगा किन्तु पृथ्वी पर वह स्त्री सान्निध्य के सुख से वंचित रहेगा और पृथ्वी पर उसके कोई संतान नहीं होगी.

"वसिष्ठ के आश्रम से वसु मेरे पास आये.और उन्होंने मुझ से प्रार्थना की कि मैं पृथ्वी पर उनकी माँ बनूँ, साथ ही यह वचन भी लिया कि उनके जन्म के तुरंत बाद मैं उन्हें जल में बहा दूँ. हे राजन, मैं ने वही किया और उन्हें उनके पार्थिव जीवन से मुक्ति दिला दी. यह आठवां बालक स्वयं द्यौ है, जिसे पृथ्वी पर पूर्णायु भोगना है."

ऐसा कह देवी गंगा अपने बालक को साथ ले विलुप्त हो गयी. शांतनु का वह पुत्र गांगेय, देवव्रत और बाद में भीष्म कहलाया और हर कला में अपने पिता से कही अधिक निपुण निकला.  

अपनी पत्नी के विलुप्त हो जाने के बाद शांतनु बहुत भारी मन से हस्तिनापुर लौटा. वैशम्पायन कहता है  “मैं अब तुम्हे राजन, भरत वंश के उस प्रतापी राजा शान्तनु के गुणों और उस की भाग्यलक्ष्मी की कथा सुनाऊंगा – वही महाभारत है."

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