Friday, 8 May 2015

आदि पर्व (20): ययाति उपाख्यान (5)

वृद्ध और शक्तिहीन ययाति का अपने पुत्रों से गिड़गिड़ाते हुए उनकी तरुणाई मांगना सम्भवतः महाभारत के सर्वाधिक कारुणिक दृश्यों में गिना जाएगा. पर आगे बढ़ने के पहले आदि-पर्व में मिलता काल-निपात विचारणीय है. जब देवयानी और ययाति अशोक वन में टहल रहे थे तो शर्मिष्ठा के तीनो बच्चे इतने छोटे थे कि वे अपने पिता के घुटनों से लिपट गए थे. देवयानी वहां से, बिना किसी वाहन के, अपने पिता के घर की ओर चल दी थी और ययाति उसे मनाने के लिए उसके साथ चल रहा था. शुक्र के आश्रम से शापित ययाति तुरंत वापस अपनी राजधानी की ओर चल दिया था. कितना समय लगा होगा प्रतिष्ठानपुर से वृषपर्व के नगर जाने में और वहां से वापस आने में? वृषपर्व के नगर से असुर कन्याएं चित्ररथ के उपवन तक घूमते टहलते पहुँच जातीं थीं. और ययाति, रथ पर, अपनी राजधानी से आखेट के क्रम में वहाँ पहुँच जाता था. इस से लगता है कि रथ से प्रतिष्ठानपर से शुक्र का आश्रम अधिक से अधिक एक दिन की दूरी पर था. स्वस्थ व्यक्ति पैदल चलते हुए शायद एक मास ले और दुर्बल, जराक्रांत शायद एक या दो वर्ष. पर इन दो-ढाई वर्षों के बाद जब ययाति अपनी राजधानी पहुंचता है तो उस के शिशु वयस्क हो चुके मिलते हैं!

महल पहुँच कर जरा-जीर्ण ययाति ने अपने ज्येष्ठ पुत्र यदु को बुलाया. “शुक्र के अभिशाप से मैं समय से बहुत पहले जराक्रांत हो गया हूँ. मेरे बाल श्वेत हो गए हैं, शरीर पर झुर्रियां पड़ गयीं हैं, मेरे अंग शिथिल हो गए हैं, दृष्टि और श्रवण में भी दोष आ गए हैं; पर पुत्र, मन से मैं अभी भी युवा हूँ और वह सब करना चाहता हूँ जो एक नवयुवक करना चाहता है.
"मैं चाहता हूँ यदु, मेरे ज्येष्ठ पुत्र, तुम मेरी जरावस्था को ले कर अपना यौवन मुझे दे दो. कुछ समय तक यौवनं का सुख भोग कर मैं तुम्हारा यौवन लौटा अपनी जरता वापस ले लूंगा".

"पर वार्धक्य अपने साथ खाने पीने की अनंत असुविधाएं लाता है" यदु ने कहा "इस लिए राजन, मैं आप की जरावस्था नहीं ले सकता. जरता का अर्थ होता है सर पर श्वेत केश, मन में अवसाद, शरीर पर झुर्रियां, अंगों में दुर्बलता आदि आदि. आप के अनेक पुत्र हैं राजन. कुछ को आप बहुत अधिक मानते हैं किसी और से आप कहें कि वह आपकी जरता ले ले. 

"तुम मेरे पुत्र हो यदु, मेरे ज्येष्ठ पुत्र;  तुम्हारी शिराओं में मेरा ही रुधिर बहता है. किन्तु तुम मुझे कुछ दिनों के लिए भी अपना यौवन नहीं दे पा रहे हो" ययाति ने उसे शाप दिया "तुम्हारे पुत्र या उनके पुत्र कभी राजा नहीं बनेंगे. तुम्हारा वंश राज्य हीन होगा; कभी उस में कोई राजा नहीं बनेगा."

ययाति फिर अपने दूसरे पुत्र तुर्वसु की और मुड़ा. "मेरी दुर्बलता ले लो तुर्वसु और अपना यौवन दे दो मुझे जिस से मैं अभी कुछ समय और जीवन को भोग लूँ.  जब मैं भोग-विलास से संतुष्ट हो जाऊंगा तो मैं तुम्हारा यौवन लौटा कर अपना बुढ़ापा वापस ले लूंगा"

"पर मुझे बुढ़ापा असहनीय लगता है" तुर्वसु ने कहा "यह हर तरह की क्षुधा का नाश कर देता है और जब क्षुधा ही न रहेगी तो क्षुधा शांति का आनंद कैसे मिलेगा. यह सत्य है राजन कि माता-पिता की कृपा से ही पुत्र को जीवन मिलता है और इस लिए पुत्र अपने माता-पिता की जितनी भी सेवा कर सके वह कम ही है किन्तु अभी तो मैंने यौवन में प्रवेश ही किया है यह समय मेरे लिए यौवन को भोगने का है, उसे किसी को देने का नहीं." ययाति ने उसे भी शाप दिया. "तुम्हारा वंश, तुर्वसु, नष्ट हो जाएगा. तुम्हारे पुत्र अनार्यों के राजा बनेंगे".          

तुर्वसु को शाप दे कर ययाति ने शर्मिष्ठा के पुत्र द्रह्यु को बुलाया और उस से भी जवानी की भीख मांगी. पर द्रह्यु ने भी मना कर दिया "वृद्ध न तो हाथी, घोड़ों पर चढ़ सकते हैं न ही रथ पर और न ही स्त्रियों का संपर्क भोग सकते हैं. इस लिए राजन मैं आप का बुढ़ापा नहीं ले सकता." ययाति ने उसे भी शाप दिया "द्रह्यु तुम्हारी इच्छा कभी पूरी नहीं होगी, तुम ऐसे देश का राजा बनोगे जहाँ हाथी, घोड़े या रथ के जाने के लिए कोई मार्ग ही नहीं रहेगा. तुम्हारे राज्य जाने का एक मात्र वाहन नाव रहेगा."

ययाति ने अब अनु से याचना की पर अनु ने भी मना कर दिया "वृद्ध बच्चों की तरह खाते हैं और तो और वे समय पर होम भी नहीं कर पाते हैं; नहीं , मैं अभी वृद्ध बनना नहीं चाहता"  ययाति ने उसे भी शाप दिया. "तुम्हे शीघ्र जरावस्था का सामना करना पडेगा. तुम्हारे पुत्र अपने पूर्ण यौवन में काल कवलित होंगे और तुम इतने दुर्बल रहोगे कि होम / यज्ञ आदि कुछ भी नहीं कर सकोगे."

ययाति ने अब अपने कनिष्ठ पुत्र पुरू से उसका यौवन माँगा. और पुरू मान गया. "मैं आप की जरता और दुर्बलता स्वीकार करता हूँ राजन, आप मेरी युवावस्था ले लें और तब तक रखें जब तक आप चाहें." ययाति संतुष्ट हुआ और उस ने पुरू को वर दिया "तुम्हारे राज्य में प्रजा की सारी मनोकामनाएं सिद्ध होंगीं" और शुक्र का स्मरण करते हुए ययाति ने अपनी जरावस्था पुरू को दे दी और उस की युवावस्था ले ली.

ययाति को अपने पुत्र पुरू से उसका यौवन एक सहस्त्र वर्षों के लिए मिल गया था. पुनर्यौवन पा कर ययाति की पुरानी रुचियाँ  जो उसकी जीर्णावस्था में सुषुप्त पडी थीं फिर से जग गयीं.  जितना मन चाहे और जितना तन सह सके, उस ने अपने आप को आनन्द में डुबो  दिया. बस उस ने इस का ध्यान रखा कि सब कुछ काल / ऋतु के अनुकूल हो और कुछ भी धर्म के विरुद्ध न हो.

यज्ञादि से उस ने देवताओं को, श्राद्ध कर्म से पितरों को, और दान-धर्म से अपने राज्य के निर्धनों को प्रसन्न रखा. चारो वर्णों के साथ अपना व्यवहार उस ने उनके वर्ण-गुण के अनुकूल रखा - ब्राह्मणों को मन चाहा भोजन और सम्मान, वैश्यों को संरक्षण और शूद्रों के प्रति दया भाव.  इस के बाद जो मन आये करते हुए ययाति के एक सहस्त्र वर्ष आनन्द में कट गए.

वैसे तो शुक्र के अभिशाप से उसे छूट मिली थी शुक्र-दुहिता देवयानी के साथ रहने के लिए पर इस नए यौवन में उसे एक नयी नायिका मिल गयी थी -  विश्वाची(1), एक अप्सरा. विश्वाची के साथ ययाति कभी इंद्र के उपवनों में कभी कुबेर की अलकापुरी में और कभी मेरु पर्वत के शिखर पर क्रीड़ा-मग्न रहता था.    

और जब सहस्त्र वर्ष बीत गए तो राजा ययाति ने अपने पुत्र पुरू को बुलाया. "तुम्हारी उदारता के चलते पुरू, मैं ने जीवन के सभी सुखों को अपनी इच्छा भर और अपनी देह की शक्ति भर भोगा. पर भोग विलास से इच्छाएं कभी संतुष्ट नहीं होतीं, वे और प्रबल होतीं हैं जैसे अग्निकुंड में घी डालने से अग्नि-ज्वालायें अधिक प्रचंड हो जातीं हैं. यदि विश्व की सभी चीजें - धन, धान्य, पशु, स्वर्ण, रत्न, स्त्रियां आदि किसी एक व्यक्ति की संपत्ति हो जाएँ तब भी वह व्यक्ति संतुष्ट नहीं होगा.  एक ही मार्ग है - आस्वादन की क्षुधा पर विजय. सच्चा आनंद तो वही ले पाते हैं जिन्होंने सांसारिक वस्तुओं की चाह पर विजय पा लिया हो. सहस्त्र वर्षों से मेरा ह्रदय मेरे ऐच्छिक क्रिया-कलापों पर ही केंद्रित रहा है. फिर भी मेरी पिपासा बढती ही गयी, कभी घटने का नाम नहीं लिया. आज पुत्र मैं उसे उखाड़ फेंकता हूँ. आज के बाद मैं अपनी इच्छाओं को ह्रदय से निकल कर, अपने दिन वन में निर्दोष मृग शावकों के साथ बिताऊंगा.
"और हाँ पुरू, मैं तुम से बहुत खुश हूँ. तुम सदैव समृद्ध रहो, यह लो अपना यौवन और लौटा दो मुझे मेरा बुढ़ापा". 

ययाति फिर से जराक्रांत हो गया और पुरू ने अपनी खोयी जवानी वापस पा ली. ययाति ने पुरू को सिंहासन पर बिठाना चाहा पर उन की प्रजा ने इसका विरोध किया. चारो वर्णों के लोग, ब्राह्मणों के नेतृत्व में ययाति के ज्येष्ठ पुत्र यदु के पक्ष में खड़े हो गए. "देवयानी के ज्येष्ठ पुत्र यदु के अधिकार को छीन कर, राजन, आप पुरू को कैसे राजा बना सकते हैं? यदु के बाद देवयानी का ही पुत्र तुर्वसु है उसके बाद शर्मिष्ठा के दो पुत्र द्रह्यु और अनु हैं जो पुरू से बड़े हैं, वे सब पुरू से पहले राजा बनने के अधिकारी हैं. आप इस पर विचार करें."

ययाति ने कहा "सुने आप सब क्यों मैंने पुरू को राजा बनाने का निर्णय लिया है. फिर आप जो उचित समझें वह कहें. मेरे ज्येष्ठ पुत्र यदु ने मेरी आज्ञा का उल्लंघन किया है. पंडितों का कहना है कि जो पुत्र पिता की अवज्ञा करे वह पुत्र नहीं है. जो पुत्र अपने माता-पिता की आज्ञा माने, जो उनका भला चाहे, वही सच्चे अर्थ में पुत्र होता है. पुरू से बड़े मेरे चारो पुत्रों ने मेरी अवज्ञा की है. मात्र पुरू ने मेरा पूरा सम्मान किया है, मेरे सारी बातें मानी है और इसीलिए मैं उसे, अपने कनिष्ठ पुत्र को अपना उत्तराधिकारी बनाता हूँ.  

“नगर वासियों यह भी ध्यान में रखो कि पुरू ने मेरा बुढ़ापा एक सहस्त्र वर्षों के लिए ले लिया था और शुक्र ने भी कहा है कि जो पुत्र मेरा बुढ़ापा ले कर अपना यौवन मुझे देगा वही मेरे बाद राजा बन सकेगा."     

लोगों ने माना कि यदि सर्वगुण सम्पन्न पुत्र अपने माता-पिता की भलाई के लिए काम करता है तो निश्चय ही उस की समृद्धि होनी चाहिए, चाहे वह सबसे छोटा पुत्र ही क्यों न हो. इस तरह ययाति ने पुरू को राजा बनाया और कुछ समय बाद उस ने वानप्रस्थ आश्रम में प्रवेश ले लिया.

यदु के पुत्र यादव कहलाये, तुर्वसु के पुत्र  यवण, द्रह्यु के पुत्र भोज और अनु के पुत्र म्लेच्छ कहलाये. पुरू के पुत्र पौरव हुए, जिस वंश में भरत, भीष्म, युधिष्ठिर आदि ने जन्म लिया.   





(1) शकुंतला ने जिन छः श्रेष्ठ अप्सराओं के नाम गिनाए थे, उनमें विश्वाची भी थी.
उर्वशी पूर्वचित्तिश्च सहजन्या च मेनका ।
विश्वाची च घृताची च षडेवाप्सरसां वराः ।।

1 comment:

  1. बहुत सुन्दर, इस प्रकार की जानकारी से लोगों का ज्ञान वर्धन होता है

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