Thursday, 30 April 2015

आदि पर्व (19): ययाति उपाख्यान (4)

विवाह के बाद ययाति देवयानी, शर्मिष्ठा और सहस्त्र दासियों के साथ इंद्र की अमरावती के समतुल्य अपनी राजधानी प्रतिष्ठान पुर पहुंचा. देवयानी को ययाति ने अपने महल के अन्तःपुर में रखा और शर्मिष्ठा के लिए अशोक वृक्षों के एक कृत्रिम वन के बीच एक भव्य भवन बनवा दिया. शर्मिष्ठा और उसके साथ आयीं सहस्त्र दासियों के लिए उचित व्यवस्था कर राजा ययाति अपना सारा समय अन्तःपुर में बिताने लगा. समय पर देवयानी ने एक पुत्र को जन्म दिया. राजा के पुत्र होने पर पूरे राज्य में उत्सव मनाये गए. शर्मिष्ठा बरबस अपने बारे में सोचने लगी. अभी तक मैंने पति नहीं चुना है, संतान पता नही कब होंगीं; क्या मेरा नारी जीवन व्यर्थ रह जाएगा? मन ही मन उस ने ययाति से संतान प्राप्ति की ठान ली.

इसी बीच एक दिन अशोक वन में उसे ययाति अकेला मिल गया. दोनों एक दूसरे को देख ठिठक गए. एकांत का लाभ उठाते हुए शर्मिष्ठा ने राजा से प्रणय याचना की: "मेरा नारीत्व व्यर्थ मत चले जाने दो राजन, मुझे पुत्र दो. मैं रूप, गुण और समस्त कलाओं से सम्पन्न हूँ और मैं एक राजा की पुत्री भी हूँ - हर दृष्टि से मैं तुम्हारे अनुकूल हूँ"

"मैं जानता हूँ शर्मिष्ठा, तुम स्वाभिमानी असुरों की राजकन्या हो" ययाति ने उत्तर दिया "तुम्हारा रूप निश्चित ही अनिंद्य है, तुम सभी शुभ लक्षणों से युक्त हो किन्तु शुक्र ने मुझे आदेश दिया है कि मैं तुम्हे अपने पास न आने दूँ.           
"यह कहा गया है राजन कि" शर्मिष्ठा ने कहा "इन पांच अवसरों पर मिथ्या वादन पातक नही है: परिहास में, स्त्री-संसर्ग के उपक्रम में, विवाह काल में, और उस समय जब प्राण संकट में हों या जब सब कुछ लुट रहा हो."    
""राजा अपनी प्रजा का आदर्श होता है. मिथ्यावादी राजा विनाश को आमंत्रित करता है. मुझे कितनी ही बड़ी हानि की आशंका क्यों न हो, मैं मिथ्या वचन कभी नहीं निकालुंगा."

पर शर्मिष्ठा आसानी से छोड़ने वाली नहीं थी. "दूसरी तरह से देखो राजन तो मित्र का विवाह भी अपना ही विवाह होता है और मित्र का पति भी अपना ही पति"
ययाति की नीयत डगमगाने लगी. उस ने एक युक्ति भी सोची जिसकी लंगोट से उसके सद्व्यववहार की मान मर्यादा भी बची रह जाए. "तुम क्या चाहती हो? खुल कर बोलो" उस ने कहा "मैं ने आज तक किसी याचक को निराश नहीं किया है"

शर्मिष्ठा ने कहा "स्त्री रूप में जन्म ले कर भी यदि मैं निस्संतान रह गयी तो मैं घोर पातक की भागी होउंगी. राजन मुझे उस पातक से बचाओ. मुझे एक माँ बनाओ जिस से मैं सर्वोत्कृष्ट धर्म का पालन कर सकूँ."
"और राजन, यह सर्व विदित है कि स्त्री, दास और पुत्र अपने लिए नहीं कमा सकते. वे जो कुछ भी अर्जित करते हैं वह उनके स्वामी / पिता का होता है. मैं देवयानी की दासी हूँ और आप देवयानी के स्वामी हैं. इस लिए राजन आप मेरे भी स्वामी हुए. मेरी कामना पूरी करें स्वामी"   

ययाति को तैयार करने में शर्मिष्ठा को बहत श्रम नहीं करना पड़ा. शीघ्र ही ययाति को उसके कथन में सच्चाई दीखने लगी और और उस ने शर्मिष्ठा को वही सम्मान दिया जिसे वह अब तक मात्र देवयानी को देता आ रहा था. कुछ समय साथ बिता कर वे एक दूसरे से स्नेहसिक्त विदाई ले अपने अपने स्थान को लौट गए. उचित समय पर शर्मिष्ठा ने एक पुत्र को जन्म दिया जिसके मुख पर देवताओं सदृश चमक थी.  देर सबेर देवयानी को भी इस बालक के जन्म का पता चल ही गया. उसके ह्रदय में  भावनाओं का बवंडर घूमने लगा - ईर्ष्या, आश्चर्य, जुगुप्सा. भागी भागी वह शर्मिष्ठा के घर पहुँच पूछने लगी "अपनी इच्छाओं के वशीभूत हो तुमने यह कैसा पाप कर लिया?"
"पिछले वर्ष एक पवित्र आत्मा ऋषि यहाँ आये थे" शर्मिष्ठा ने कहा "वे वेदज्ञ थे और भक्तों को वरदान देने में भी सक्षम थे. मैं ने मातृत्व का धर्म पूरा करने के लिए उन्हें अपनी इच्छा बतायी और यह पुत्र उन्ही के आशीर्वाद का फल है"
"तुम कैसे सोच सकी कि मैं अपनी इच्छाओं में बह कर कुछ ऐसा कर बैठूंगी?" शर्मिष्ठा ने पूछा.

"तब तो ठीक है" देवयानी ने स्वीकार किया  "उस ब्राह्मण का नाम, गोत्र आदि कुछ याद है तुम्हे? पता चले तो मैं भी उस से मिलना चाहूंगी"
"अपने तपोबल से वे सूर्य की तरह देदीप्यमान थे और उन्हें देख कर मैंने उनके विषय में कुछ पूछने की आवश्यकता नहीं समझी"

मन मसोस कर देवयानी ने स्वीकार किया कि ऐसे ब्राह्मण से यदि शर्मिष्ठा को पुत्र मिला है तो कुछ अन्यथा नहीं सोचना है. इस तरह बातें कर देवयानी अपने महल चली गयी.

देवयानी से ययाति के दो पुत्र हुए और "ऋषि" की अनुकम्पा से शर्मिष्ठा को तीन.  एक दिन ऐसा हुआ कि ययाति और देवयानी राजा के विशाल उपवन में विचरण कर रहे थे जब उन्हें दिव्य आभा वाले तीन बालक दिखे. बच्चे इतने सुन्दर थे कि जो देखे बस देखते ही रह जाए. देवयानी उन्हें देख ययाति से पूछ बैठी "देवताओं के बालकों की तरह दीखते ये बच्चे किस के हैं?"

ययाति सोच रहा था कि कैसे आगे बढ़ा जाए पर देवयानी ने राजा के उत्तर की प्रतीक्षा न कर बच्चों से पूछ डाला "किन के बच्चे हो तुम तीनो? तुम्हारे माता पिता कौन हैं?"

बच्चों ने ययाति की ओर इंगित किया और माता का नाम शर्मिष्ठा बताया.  यह कह बच्चे ययाति के निकट आ कर उसके घुटनों से लिपट गए. पर ययाति उन्हें देवयानी की उपस्थिति में दुलार नहीं पाया और दुखी मन बच्चे उसे छोड़ कर रोते हुए अपनी माता के पास चल दिए. राजा अपनी दोष-जन्य कायरता पर लज्जित था किन्तु इतनी भी हिम्मत नहीं थी कि देवयानी के सामने उन्हें रोकने का प्रयास करे. देवयानी सब समझ गयी. पहला प्रहार उस ने अपने पति पर नहीं बल्कि अपनी सहेली और अब सौत पर किया.

"तुम शर्मिष्ठा मेरे ऊपर आश्रित हो, फिर भी मेरे ही ऊपर ऐसा अभिघात?"      
"प्रिय देवयानी, जो कुछ मैंने तुम्हे बताया था एक ऋषि के विषय में वह सब कुछ सत्य है. मैं ने सब कुछ सही और धर्माचरण के अनुकूल किया है. जब तुम ने राजा ययाति को अपना पति चुना था उसी समय मैं भी उसे अपना पति चुन लिया था. और मित्र, सच कहो तो मित्र का पति भी तो अपना ही पति है! तुम ब्राह्मण हो और मैं तुम्हारा सम्मान करती हूँ पर मैं उस से भी अधिक सम्मान इस राजर्षि का करती हूँ."

देवयानी यह सब सुन आग बबूला थी; अपने पति की ओर मुड़ उस ने कहा "तुमने, राजन, मेरे साथ घोर दुर्व्यवहार किया है" "मैं अब यहाँ नहीं रह सकती" ऐसा कहते रोती हुई देवयानी उठ कर अपने पिता के घर की दिशा में चल दी. ययाति घबड़ा गया. उसे मनाने के लिए मधुर बातें बोलते हुए उसके पीछे पीछे चलने लगा. पर देवयानी न मानी. अपने पिता के पास पहुँच कर उस ने घोषणा की "पाप के हाथों धर्म पिट गया. नीच उठ गए हैं और उच्च को गिरा दिया गया है. शर्मिष्ठा ने पुनः मुझे कष्ट पहुंचाया"

"इस राजा के" देवयानी बोलती रही "शर्मिष्ठा से तीन पुत्र हैं और मुझसे मात्र दो" और जोड़ दिया "राजा ययाति शास्त्रज्ञ माना जाता है पर, वह सत्य के पथ से विचलित रहा है"  

ययाति ने अपनी वासना के अभिभूत हो अतिचार किया था (और उसका भयानक फल भी उस ने पाया, जैसा हम देखेंगे). पर जिस चीज ने देवयानी को सबसे अधिक कष्ट पहुंचाया वह था शर्मिष्ठा को तीन पुत्र होना जब कि उसके मात्र दो थे. यहाँ भी वृषपर्व की पुत्री उस पर भारी पड़ी. शर्मिष्ठा एक राजा की पुत्री थी और यह संभव है कि राजा ययाति उसे अधिक ठीक से समझ पाता था और यह भी संभव है कि शर्मिष्ठा के लिए ययाति समकक्ष रहा हो.

यह सुन शुक्र ने ययाति को अदम्य जरा से आक्रान्त हो जाने का शाप दिया. ययाति ने अपनी सफाई दी - शर्मिष्ठा ने मुझ से पुत्र माँगा था - गर्भ धारण के लिए उपयुक्त काल में. वेद कहते हैं कि उस काल में यदि कोई काम पीड़िता किसी पुरुष से एकांत में आग्रह करे और वह पुरुष आगे न बढे तो वह भ्रूण हत्या के पाप का भागी होता है. और इसी कारण मैं शर्मिष्ठा के पास गया था.

"पर मैंने तुम्हे मना किया था उसके निकट जाने से. यदि शर्मिष्ठा ने ऐसी प्रार्थना की थी तो तुम्हारे लिये मुझसे आज्ञा लेना उचित रहता. पर चोरी छुपे आगे बढ़ तुम ने एक चोर का काम किया और तुम अभी से जराक्रांत हो जाओगे."

शुक्र के शाप से ययाति का यौवन तत्काल लुप्त हो गया. उसका शरीर जर्जर हो गया, उस के अंग शिथिल हो गए, उसकी दृष्टि क्षीण हो गयी और उसका तेजस्वी रूप न जाने कहाँ खो गया. ययाति ने शुक्र से प्रार्थना की "मैं अभी तक देवयानी से अघाया नहीं हूँ, अतः भार्गव मुझे कुछ और समय के लिए यौवन रहने दो जिसे मैं देवयानी के साथ बिता सकूँ."  
"मेरी बात तो कभी झूठ जाती नहीं है इस लिए जराक्रांत तो तुम्हे रहना ही पडेगा राजन, पर मैं यह छूट दे रहा हूँ कि तुम यदि कर सको तो अपनी जरावस्था को अपने किसी पुत्र की युवावस्था से बदल लो. तुम्हारा पुत्र जरा जीर्ण हो जाएगा और तुम तरुण"

ययाति व्यवहारिक था. उस ने शुक्र से कहा "भार्गव, कृपया ऐसा वर दो कि जो पुत्र मेरी जरावस्था ले कर अपना यौवन मुझे दे वही मेरे बाद राजा बने और उसके धर्म और प्रतिष्ठा की पताका सदा लहराती रहे"
शुक्र मान गया "राजन, जो पुत्र भी तुम्हे अपना यौवन देगा वही तुम्हारा उत्तराधिकारी बनेगा, वह पूर्णायु भोगेगा और उसे अनेक पुत्र होंगे.

वृषपर्व के नगर से ययाति और देवयानी वापस ययाति की राजधानी की और चले. ययाति चल नहीं पा रहा था. चलना तो दूर वह ठीक से खड़ा भी न हो पा रहा था. देवयानी के सहारे पर धीरे धीरे वह आगे बढ़ रहा था. और देवयानी? वह क्या सोच रही थी? वह चाहती थी शर्मिष्ठा को उसके किये का दंड मिले पर शर्मिष्ठा तो यथावत रह गयी और उसे ही अपने जीर्ण शीर्ण स्वामी को ढोते हुए चलना पड़ रहा था.

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