कुछ समय बाद देवयानी चित्ररथ के उसी उपवन में विहार करने आई थी. उसकी सेवा
में शर्मिष्ठा अपनी सहस्त्र दासियों के साथ थी. फूलों के मधु पी पी कर थकी
देवयानी लेट कर शर्मिष्ठा से अपने पाँव दबवा रही थी जब मृग के आखेट में
निकला ययाति पुनः उस उपवन में आया. दोनों सुंदरियों को देख वह चकित हो गया.
"कौन हो तुम दोनों? तुम्हारे पिता कौन हैं?" ययाति ने पूछा "ये सहस्त्र दासियाँ अवश्य तुम्हारी सेवा में हैं"
"मैं
असुरों के गुरु शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी हूँ. तुम ने कभी मेरा हाथ
धरा था." देवयानी ने कहा "और यह मेरी सेवा में लगी शर्मिष्ठा है, असुर राज
वृषपर्व की पुत्री"
ययाति ने पूछा "असुर राज की पुत्री तुम्हारी दासी कैसे बनी हुई है?"
"सब
कुछ प्रारब्ध की बात है, इन पर कुछ मत सोचो" देवयानी बोली "तुम अपने विषय
में बताओ. वस्त्रों से तुम राज परिवार के लग रहे हो. तुम्हारी वाणी किसी
वेदज्ञ की लग रही है. कौन हो तुम? क्या नाम है तुम्हारा? तुम्हारे पिता कौन
हैं?"
"जब मैं ब्रह्मचर्य आश्रम में था तो मैंने समस्त वेदों का अध्ययन
किया था" ययाति ने कहा "मैं ययाति हूँ, एक राजा का पुत्र और स्वयं एक
राजा."
"तुम इधर क्यों आये हो राजन?" देवयानी ने पूछा.
"मैं आखेट में
मृगों के पीछे था जब प्यास के चलते जल खोजते इधर चला आया. यदि मेरा यहाँ
आना तुम्हे अच्छा नहीं लग रहा हो तो आदेश दो मैं तुरंत चला जाऊंगा"
"नहीं
राजन, अपनी सब दासियों के साथ मैं तुम्हारे आदेश की प्रतीक्षा कर रही हूँ"
देवयानी ने बिना समय गंवाए कहा "तुम्हारी समृद्धि हो राजन, आओ मेरे सखा और
स्वामी बनो."
“मैं तुम्हारे योज्ञ नहीं हूँ” ययाती ने कहा
“तुम्हारे पिता शुक्र हैं, मुझ से बहुत ऊँचे. मृगलोचने, चारो वर्ण ब्रह्मा
के शरीर से निकले हैं पर उनकी शुद्धता एक सामान नहीं है. मैं क्षत्रिय हूँ
और ब्राह्मण कन्या से विवाह नहीं कर सकता"
पर देवयानी ययाति को
इतनी आसानी से छोड़ने वाली नहीं थी. "पर ब्राह्मणों और क्षत्रियों में पहले
भी सम्बन्ध स्थापित हो चुके हैं और भविष्य में भी होंगे. तुम एक राजर्षि के
पुत्र हो, ययाति, मेरे इस हाथ को तुम्हारे पहले कभी किसी पुरुष ने नहीं
धरा था. जब नहुष-पुत्र ने इसे एक बार धर लिया तो अब और कौन इसे धर सकता है.
आओ राजन मेरे स्वामी बनो."
"बुद्धिमान मानते हैं कि क्रुद्ध विषधर
सर्प से भी अधिक एक व्यक्ति को किसी ब्राह्मण से बच कर रहना चाहिए". ययाति
ने कहा "सर्प तो एक बार में एक व्यक्ति को ही मार सकता है पर क्रुद्ध
ब्राह्मण एक ही साथ पूरे नगर या पूरे राज्य को नष्ट कर सकता है. मैं
ब्राह्मणों से बच कर रहूंगा और तुम से मैं तब तक विवाह नहीं कर सकता जब तक
तुम्हारे पिता मेरे हाथों में तुम्हारा हाथ नहीं देते."
देवयानी ने
तब एक दासी को शुक्र के पास भेजा. दासी ने सारी बात शुक्र को बतायी और
शुक्र भी उपवन में आ गए. शुक्र को आया देख राजा ययाति ने ससम्मान उनकी
पूजा-अर्चना की और हाथ जोड़ शुक्र के आदेश की प्रतीक्षा में खड़ा हो रहा.
देवयानी ने अपने पिता को बताया कि किस प्रकार जब वह महा कष्ट में थी तो
राजा ययाति ने उसके हाथ गहे थे और कहा "मेरी प्रार्थना है कि आप मुझे इस
राजा के हाथों दान कर दें. मैं अन्य किसी ब्यक्ति से विवाह नहीं करुँगी"
"मेरी पुत्री ने तुम्हे चुन लिया है" शुक्र ने कहा "आओ नहुष-पुत्र, मैं उसे तुम्हे सौंप रहा हूँ, स्वीकार करो"
"पर विप्रवर, आप मुझे वर दें कि ऐसा करने से वर्ण संकर संतानोत्पत्ति का पाप मुझ पर नही आएगा" ययाति बहुत सतर्क हो चला है.
शुक्र
ने उसे आश्वस्त किया "उस पाप से मैं तुम्हे मुक्त करता हूँ, निश्चिन्त
रहो. देवयानी के साथ आनंदमय जीवन बिताओ. वृषपर्व की पुत्री शर्मिष्ठा
देवयानी के साथ जायेगी. उस का सम्मान करना पर उसे अपने निकट मत बुलाना."
शुभ
मुहूर्त में ययाति-देवयानी का विवाह संस्कार सभी शास्त्रोक्त कर्मों के
साथ संपन्न हुआ. देवयानी के साथ जब ययाति अपनी राजधानी लौटा तो उसके साथ
एक सहस्त्र दासियाँ भी थी और शर्मिष्ठा भी.
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