संजीवनी महाविद्या मिल जाने के बाद सुरों की मनः स्थिति बदल गयी. पहले वे
असुरों के भय से छिपे फिरते थे अब उनके उत्साह ने आक्रामक रूप ले लिया था.
कच के देवलोक पहुँचने के तुरंत बाद, इंद्र के नेतृत्व में वे असुरों से
युद्ध करने निकल पड़े. मार्ग में गन्धर्व चित्ररथ का एक उपवन था जिस के
सरोवर में असुर ललनाएँ जल क्रीड़ा कर रही थीं. इंद्र ने पवन का रूप धर
किनारे रखे उन के वस्त्र आपस में मिला दिए. जब वे बाहर निकलीं तो मिले जुले
वस्त्रों के ढेर से निकालते हुए जो जिसके हाथ आया उस ने वही पहन लिया. इसी
क्रम में देवयानी के कपडे असुर राज वृषपर्व की पुत्री शर्मिष्ठा ने पहन
लिए.
कुछ ही महीने हुए जब देवयानी ने कच के छल को पहचाना था. अब वह
सब कुछ सशंकित दृष्टि से देखती थी. शर्मिष्ठा ने उसी के कपडे भला क्यों
पहने? राजा की बेटी होने के चलते क्या वह असुरा अपने आप को ब्राह्मण के
समतुल्य समझने लगी?
"शर्मिष्ठा, तुम ने मेरे वस्त्र कैसे पहन लिए?" देवयानी ने कहा "मैं तुम्हारे राज-गुरु की पुत्री हूँ, चलो, उतारो मेरे वस्त्र"
शर्मिष्ठा राजा की पुत्री थी और उसे इस तरह की बोली सुनने की आदत नहीं थी; बिफर पड़ी.
"तुम्हारे
वस्त्र? तुम्हारा है ही क्या देवयानी? तुम्हारे चारण पिता मेरे पिता की
स्तुति, वन्दना में लगे रहते हैं और मेरे पिता के दिए दान या भिक्षा से
तुम्हारा घर चलता है. मैं असुर-राज की पुत्री हूँ. मेरे पिता भिक्षा देते
हैं; तुम्हारे पिता भिक्षा स्वीकार करते हैं. तुम्हारे कपडे, कपडे ही
क्यों, तुम्हारा सब कुछ मेरे पिता का दिया हुआ है."
क्रोध से
देवयानी की आँखें लाल हो गयीं और वह शर्मिष्ठा की देह से अपने वस्त्र
खींचने लगी. शर्मिष्ठा ने उसे धक्के दे कर निकट के एक सूखे कुँए में गिरा
दिया. जब उसे लगा कि देवयानी बचेगी नहीं तब वह संतुष्ट मन से नगर की दिशा
में चल दी.
शर्मिष्ठा के जाने के कुछ देर बाद, मृग के आखेट में
निकला, चन्द्रवंश का प्रतापी राजा ययाति वहां पानी खोजते आया. ययाति नहुष
का पुत्र था, पर ज्येष्ठ पुत्र नहीं. नहुष के ज्येष्ठ पुत्र यति ने अपना
राज्याधिकार त्याग एक तपस्वी का जीवन अपना लिया था. चन्द्रवंश में कनीय
पुत्रों के सिंहासन पर आसीन होने के उदाहरण बार बार आये हैं. प्रतीप का
ज्येष्ठ पुत्र देवापि चर्म रोग से पीड़ित था जिस के चलते हस्तिनापुर के
ब्राह्मणों ने उसका राज्याभिषेक न होने दिया और उसका अनुज शांतनु राजा बना
था. धृतराष्ट्र के दृष्टि-हीन होने के चलते उसका अनुज पाण्डु राजा बना था
(वैसे पाण्डु की अकाल मृत्यु के चलते धृतराष्ट्र बाद में राजा बन पाया था).
ज्येष्ठ कौन्तेय कर्ण अवैध जन्म के कारण राजा नहीं बन सका. और जैसा हम
देखेंगे ययाति का अपना ज्येष्ठ पुत्र भी राजा नहीं बन पाया.
ययाति
मृग के आखेट में निकला हुआ था जब उसे कुँए में गिरी देवयानी मिली थी.
चन्द्रवंशियों के मृग के आखेट में भी संभवतः प्रच्छन्न भाव कामेच्छा के हैं
- दुष्यंत को आखेट में शकुन्तला मिली थी, शांतनु को सत्यवती और पाण्डु का
प्राणहारी शाप उसे मृग के आखेट में ही मिला था.
पानी खोजते जब
ययाति ने कुँए में झांका तो बस देखता रह गया. पानी तो नहीं था पर अलौकिक
रूपवती एक तरुणी थी कुँए में; उस के मुख पटल पर दिव्य आभा थी और उस के नख
ऐसे चमक रहे थे जैसे वे परिष्कृत ताम्र पत्र के बने हों.
"कौन हो तुम,
श्यामे?" ययाति ने पूछा "तुम्हारे पिता कौन हैं और कैसे तुम इस कुंए में
गिर गयी हो?" ययाति ने देवयानी को श्यामा कहा. ब्राह्मण सुता का श्यामा
होना कुछ असामान्य लगता है. पर देवयानी की दोनों मातामह असुर कुल की थीं,
संभवतः इसी लिए वह श्याम-वर्णा थी. (ध्यातव्य है कि बृहस्पति की एक पत्नी
तारा भी श्याम-वर्णा ब्राह्मणी थी.)
"मैं आचार्य शुक्र की पुत्री
हूँ, उसी शुक्र की जो युद्ध में मृत असुरों को पुनर्जीवित कर देते हैं."
देवयानी ने कहा "तुम देखने से राज परिवार के लगते हो. लो मेरे दाहिने हाथ
को पकड़ो और मुझे बाहर खींच निकालो".
ययाति ने देवयानी के हाथ पकड़
उसे ऊपर निकाल लिया. फिर उस के बारे में सोचते हुए अपनी राजधानी की ओर निकल
पड़ा. देवयानी का सौंदर्य उस के ह्रदय में समा गया था. कुछ ही दिनों में वह
फिर पानी खोजते हुए उसी जलाशय के निकट आया था, शायद अंदर से देवयानी को
पुनः देखने की इच्छा उसे वहां धकेल लायी थी.
देवयानी ने कुँए से
बाहर निकल कर अपनी दासी से शुक्र को कहलवाया कि वह वापस वृषपर्व के नगर में
नहीं जायेगी. शुक्र भागे भागे आये, देवयानी ने उसे सारी बात बतायी - उनके
कपडे हवा के चलते मिल गए थे, शर्मिष्ठा ने उसके कपड़े पहन लिए थे और टोकने
पर कि गुरु-पुत्री के कपडे उस ने कैसे पहन लिए शर्मिष्ठा ने शुक्र को एक
भाड़े का प्रशंसक बताया जो पैसों के बदले वृषपर्व की स्तुति करता है.
"और
जब मैंने अपने वस्त्र छीनने का प्रयास किया तो उस ने उस कुँए में मुझे
गिरा दिया" कुँए की तरफ हाथ बढ़ाते हुए देबयानी ने कहा, और रोते हुए पूछने
लगी "क्या आप वास्तव में वृषपर्व की प्रशंसा कर के उस की दी हुई भिक्षा
स्वीकार करते हैं?"
"नहीं देवयानी, तुम किसी भिक्षुक या किसी
स्तुवत की पुत्री नहीं हो" शुक्र ने कहा "तुम्हारा पिता किसी की स्तुति
नहीं करता, सभी उस की स्तुति करने वाले हैं - चाहे वृषपर्व हो, चाहे राजा
ययाति चाहे इंद्र ही क्यों नहीं हो. मेरी शक्ति अचिन्त्य ब्रह्म से आती है
और मैं बस उसी का स्तुवत हूँ"
“पर याद रखना देवयानी जो व्यक्ति दूसरों
के कटु अप्रिय बातों को सह लेता है वह संसार जीत लेता है. जैसे सफल सारथी
घोड़ों को हमेशा नियंत्रण में रखता है वैसे ही सफल व्यक्ति अपने क्रोध को
हमेशा नियंत्रण में रखता है. अपने क्रोध को जीत लो तो सब कुछ जीत लोगी. जो
अपने क्रोध को दबा सकता है और दूसरों के कटु वचनों को अनसुना कर सकता है वह
निश्चय ही धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष सिद्ध कर पाता है.”
"मैं
क्रोध और क्षमा दोनों की शक्तियां जानती हूँ" शुक्र का प्रवचन सुन देवयानी
बोल पड़ी "पर यदि कोई शिष्य अशिष्ट व्यवहार करे तो उसका भला चाहने वाले गुरु
को कभी उसे क्षमा नहीं करना चाहिए. शर्मिष्ठा के निष्ठुर शब्दों से मेरा
हृदय जल रहा है. मैं ऐसी जगह नहीं रह सकती जहाँ सद्व्यवहार और कुलीनता का
कोई मूल्य नहीं है."
यह सुन शुक्र भी रुष्ट हुआ और उस ने
वृषपर्व से जा कहा "राजन, गरिष्ट भोजन की तरह पाप पचाए नहीं पचते. उनका फल
भोगना ही पड़ता है. तुम्हारे अनुयायियों ने विद्वान और कुलीन ब्राह्मण कच की
तीन बार ह्त्या की है और अब तुम्हारी पुत्री शर्मिष्ठा ने देवयानी के साथ
कुव्यवहार किया है, वृषपर्व, मैं तुम्हारे राज्य को छोड़ना चाहता हूँ"
"हे
भार्गव" हतप्रभ वृषपर्व ने कहा "यदि आप चले जाएंगे तो हम लोग यहाँ किसी
प्रकार नही टिक पाएंगे और पूरे असुर समाज को पाताल में जा छुपना पडेगा."
"असुर समाज को जहाँ जाना पड़े, वहां जाए" शुक्र ने कहा "यदि देवयानी यहाँ नहीं रुक सकती तो मैं भी नहीं टिक सकता."
"किन्तु
भार्गव" वृषपर्व ने विनती की "जो कुछ भी असुरों का है वह आप को समर्पित
है, वह आप ही का है. मैं भी आप की बात से बाहर नहीं हूँ. आप जो चाहते हैं
आज्ञा दें, बस हमें छोड़ कर न जाएँ."
"अगर यह सच है राजन तो जाओ और देवयानी को यहाँ रहने के लिए मना लो"
जब
देवयानी ने यह सब सुना तो उस ने अपने रुकने की शर्त रखी "शर्मिष्ठा अपनी
सहस्त्र दासियों के साथ सदैव मेरी सेवा में लगी रहे और विवाह के बाद मैं
जहाँ भी जाऊं वहां भी शर्मिष्ठा मेरी सेवा में मेरे साथ रहे"
शुक्र
के चले जाने से असुर समाज की दशा बहुत बुरी हो जाती. संजीवनी महाविद्या तो
चली ही जाती, असुर राज में यज्ञ आदि भी न हो पाते. शर्मिष्ठा यह समझती थी.
उस ने देवयानी की शर्तें सुनी तो अपने समाज को दुर्दशा से बचाने के लिए
तत्काल, बिना एक भी क्षण गंवाए तैयार हो गयी. "मैं अपने कुव्यवहार के चलते
शुक्र को नहीं जाने दूंगी; यदि उन्हें रोकने के लिए मुझे देवयानी की दासी
बननी पड़े तो वह भी सहर्ष स्वीकार है." और इस तरह अपनी एक सहस्त्र दासियों
के साथ शर्मिष्ठा स्वयं देवयानी की सेवा में उपस्थित हुई. "आज से मैं
तुम्हारी दासी हूँ देवयानी, सदैव तुम्हारी आज्ञा की प्रतीक्षा करुँगी."
"किन्तु
मैं तो तुम्हारे पिता के दिए दान-भिक्षा पर पलती हूँ, तुम्हारे पिता के
स्तुवत की पुत्री हूँ, तुम कैसे मेरी दासी बन रही ही?"
"अपने समाज
के सुख-समृद्धि के लिए हर व्यक्ति को सब कुछ करने के लिए तैयार रहना चाहिय"
शर्मिष्ठा ने प्रसन्न मुख से कहा "जहाँ कही भी तुम्हारे पिता तुम्हे विवाह
कर भेजेंगे, मैं सदैव तुम्हारी सेवा में रहूंगी"
और इस तरह असुर राज की पुत्री शर्मिष्ठा भृगु की पौत्री देवयानी की दासी बन गयी.
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