वैशम्पायन ने कहा “मैं अब उन राजर्षियों के पवित्र वंश वृक्ष का वर्णन करता हूँ, जिस में यादव और भारत वंश के राजा हुए थे.
प्रचेतस के दस पुत्रों ने अपने मुखों की अग्नि से पृथ्वी की विषाक्त वनस्पतियों को जला कर इसे रहने योग्य बनाया था. इन दस के बाद प्रचेतस के एक और पुत्र हुआ दक्ष. दक्ष से सभी जीवों का उद्भव हुआ है. उस की पच्चास पुत्रियाँ थीं. उस ने अपनी दस पुत्रियों को धर्म को दिए थे, तेरह कश्यप को और सत्ताईस चंद्र को. उस की सबसे बड़ी पुत्री से कश्यप ने बारह आदित्य पैदा किए थे. इन्हीं में इंद्र और सूर्य (विवस्वत) भी थे. विवस्वत का एक पुत्र था मनु. मनु के वंश में मानवों के जन्म हुए – ब्राह्मणों, क्षत्रियों और अन्य. बाद में ब्राह्मण और क्षत्रिय परस्पर मिल गये और वेदाध्ययन में लग गये. तब मनु के दस क्षत्रिय संतान हुईं: वेन, धृष्णु, नरिष्यंत, नाभाग, इक्ष्वाकु, करूष, शर्याती, आठवीं एक पुत्री इला, पृषध्रु और नाभागारिष्ट. इन सबों ने क्षात्र धर्म स्वीकार किया.
पुरुरवा का जन्म इला से हुआ था. यह भी सुना गया है कि इला उस की माता और पिता दोनो ही थी. मनुष्य होते हुए भी पुरुरवा अमर जीवों (देव, गंधर्व आदि) के साथ विचरता था. अपनी शक्ति के मद में चूर हो पुरुरवा ने ब्राह्मणों के धन छीन लिए थे. सनतकुमार ने उसे समझाया भी था किंतु जब उस ने उनकी भी नहीं सुनी तो ऋषियों के कोप से उसका नाश हुआ था.
पुरुरवा गंधर्वों के क्षेत्र से यज्ञ के लिए तीन अग्नियों को पृथ्वी पर लाया था. वहीं से वह अपने साथ उर्वशी भी लेता आया था. अप्सरा उर्वशी और पुरुरवा के पुत्र आयुष का बुद्धिमान और पराक्रमी पुत्र नहुष हुआ था. नहुष ने अपने राज्य का विस्तार किया था और धर्मनिष्ठ हो कर उस ने पूरी पृथ्वी पर शासन किया. उस ने पित्रियों, देवताओं, ऋषियों, ब्राह्मणों, गंधर्वों, नागों, राक्षसों, क्षत्रियों और वैश्यों को यथोचित आलंबन दिया था. अपने तप, निष्पक्ष न्याय और शक्ति से उस ने इंद्र बन कर इंद्रलोक पर भी राज किया. नहुष के छः पुत्र थे, भागवत के अनुसार यति, ययाति, संयति, आयाति, वियाति और कृति.
यति ने संन्यास ले लिया था और ययाति राजा बना. ययाति बहुत प्रतापी राजा था. उस ने पूरे विश्व पर राज क्या, और कभी अपने जीवन में कोई युद्ध नहीं हारा. उसकी दो पत्नियाँ थीं: देवयानी और शर्मिष्ठा. देवयानी के पुत्र यदु और तुर्वसु थे शर्मिष्ठा के द्रह्यु, अनु और पुरु. देवयानी शुक्र की पुत्री थी. शुक्र के शाप से जराक्रांत होने पर ययाति ने अपने पुत्रों से उनका यौवन माँगा. जो पुत्र भी ऐसा करता – पिता को अपना यौवन देता – उसे ययाति की जरावस्था झेलनी पड़ती. उसका कनिष्ठ पुत्र पुरु इस के लिए तैयार हो गया और ययाति ने फिर एक सहस्त्र वर्षों तक यौवन का आनंद लिया.
“इच्छायें कभी शांत नहीं होतीं” यह कहते हुए एक सहस्त्र वर्ष बाद उस ने पुरु को उसका यौवन लौटा कर अपनी जरावस्था वापस ले ली. “इच्छाओं को जितना पूरा करो, यज्ञ की अग्नि में घी डालने की तरह वे उतनी बलवती होती जाती हैं. यदि किसी को पृथ्वी का सारा धन,स्वर्ण, रत्न, स्त्रियाँ – सब कुछ मिल जाए – तब भी वह कभी तृप्त नहीं होगा.” यह देख ययाति पुरु को राजा बना वानप्रस्थ हो गया और अपनी तपस्या से पुण्य अर्जित कर मृत्योपरांत स्वर्ग लोक को गया.
लेकिन जनमेजय संतुष्ट नहीं हुआ और उसके अनुरोध पर वैशम्पायन ने ययाति की कथा विस्तार में सुनाई.
तीनो लोकों पर आधिपत्य के लिए प्राचीन काल में सुरों और असुरों के बीच सहस्त्रों वर्षों तक युद्ध हुए. युद्ध में विजय श्री की प्राप्ति के लिए दोनो यज्ञ किया करते थे. सुरों ने अंगिरस के पुत्र वृहस्पति को अपना आचार्य बनाया था और असुरों ने भृगु के पुत्र शुक्र को. शुक्र संजीविनी महाविद्या जानता था और युद्ध में मारे गये असुरों को वह पुनर्जीवित कर देता था. वृहस्पति इस महविद्या से अनिभिज्ञ था और सुरों की संख्या घटती जा रही थी.
थक कर सुरों ने वृहस्पति के ज्येष्ठ पुत्र कच को असुर राज वृषपर्व की नगरी भेजा जहाँ वह शुक्र का शिष्यत्व ले कर संजीविनी विद्या किसी तरह, चोरी छुपे सीख ले. प्रतिद्वंद्वी वृहस्पति के पुत्र का शुक्र ने स्वागत किया और कच को अपने आश्रम में जगह दी. और कच ने एक सहस्त्र वर्ष तक ब्रह्मचारी रह उनकी सेवा करने का संकल्प लिया.
कच आश्रम में एक समर्पित, स्वाध्यायी, ब्रह्मचारी की भाँति रहने लगा. आश्रम का कोई कार्य उसके लिए बहुत छोटा या बहुत कठिन नहीं था. वह गौ के साथ वन भी चला जाता था और संध्या-पूजन में देवयानी की भी सहायता करता था. कुछ ही दिनों में शुक्र उसे बहुत मानने लगे थे. वह शुक्र को तो पूरा सम्मान देता ही था, देवयानी की आवश्यकताओं के प्रति भी सचेत रहता था. वन से देवयानी के लिए भाँति भाँति के पुष्प, पल्लव, फल आदि लाता था साथ ही संगीत और नृत्य से भी वह देवयानी का मनोरंजन करता था. कुछ ही वर्षों में देवयानी को लगने लगा कि वह कच के बिना जीवित नहीं रह सकेगी.
असुर बृहस्पति के पुत्र के प्रति सशंकित थे. धीरे धीरे उन्हें विश्वास हो चला कि बृहस्पति ने कोई गहरी चाल चली है. चाल कुछ भी हो कच का वध कर देने से सब निष्फल हो जाएगा. यह सोच उन्होंने एक दिन वन में कच को मार डाला और उस के शरीर के टुकड़े कर वन्य जंतुओं को खिला दिए. संध्या पूजन की बेला तक कच रोज आ जाता था. जब गौवें बिना कच के लौट आयीं तो देवयानी से न रहा गया. उस ने शुक्र से अपने संदेह कहे - या तो कच कही गिर पड़ा होगा या हिंसक जंतु उसे खा गए होंगे - "कुछ भी करें पर उसे पुनर्जीवित कर यहाँ लेते आएं”.
शुक्र ने मृत संजीवनी मन्त्र पढ़ कर कच का आह्वान किया और बाघ, गीदड़ों के उदर चीरते हुए कच उपस्थित हो गया. देवयानी ने देर से आने का कारण पूछा तो कच ने सारी बात बताई. "मैं तो मर चुका था. होम के लिए जलावन और पूजन के लिए कुश चुन कर जैसे ही मैं आश्रम की ओर चलने को तैयार हो गौवों को एकत्रित कर रहा था कि कुछ असुरों ने मेरा परिचय पूछा. "मैं बृहस्पति का पुत्र कच हूँ" सुनते ही उन्होंने मेरी ह्त्या कर मुझे बाघ गीदड़ों को खिला दिया. मुनिवर के आदेश पर मैं उन जंतुओं के उदर चीर उपस्थित हुआ हूँ."
एक दूसरे अवसर पर जब देवयानी के लिए कच वन में पुष्प एकत्रित कर रहा था, असुरों ने उसे मार कर उसकी देह को पीस कर अवलेह बना समुद्र में प्लावित कर दिया. संध्या बेला देवयानी ने पुनः शुक्र से प्रार्थना की. शुक्र ने मंत्रोच्चारण कर कच का आह्वान किया और कच फिर पुनर्जीवित हो आ गया. देवयानी ने बातों बातों में उसे बता दिया कि दोनों अवसरों पर शुक्र ने उसके (देवयानी के) अनुरोध पर कच को पुनर्जीवित किया था.
कुछ दिनों बाद असुरों ने शुक्र को मद्य-पान के लिए आमंत्रित किया. शुक्र मदिरा प्रेमी थे और तब तक पीते रहे जब तक सारी मदिरा समाप्त नहीं हो गयी. डगमगाते कदमों से वे अपने आश्रम की ओर चले. दूर से उन्होंने देवयानी को आश्रम के द्वार पर बैठे रोते देखा. वे समझ गए और देवयानी को समझाने लगे:
"कच का असुरों ने फिर वध कर दिया है. मैं उसे कितनी बार वापस ला पाउँगा? किसी के लिए तुम्हारा इतना विलाप करना ठीक नहीं है."
पर देवयानी नहीं मानी और शुक्र देवयानी की बात नहीं टाल सके. संकल्प ले कर जब कच का आह्वान किया तो उनके उदर से कच की बोली सुनाई पड़ी.
"असुरों ने मेरा वध कर, मुझे जला कर, भस्म को मद्य में मिला कर, आप को पिला दिया है"
स्थिति गंभीर थी. शुक्र ने देवयानी को पूरी स्थिति बतायी; शुक्र और कच का अब एक साथ जीवित रहना संभव नहीं लग रहा था.
"अब मैं क्या कर सकता हूँ? कच को उसका जीवन मेरी मृत्यु के बाद ही मिल सकता है. बिना मेरे उदर चीरे वह बाहर नहीं आ सकता और उसके बाद मैं जी नहीं सकूंगा. पर तुम कह रही हो कि बिना कच के तुम जी नहीं सकती और अगर तुम्ही नहीं रहोगी तो मैं जी कर क्या करूंगा?"
और शुक्र ने अपने उदर में स्थित कच को महाविद्या सिखाई, कच उनकी देह चीर कर बाहर निकला और अपनी नयी सीखी महाविद्या से उस ने अपने गुरु को पुनर्जीवित किया. देवयानी प्रफुल्ल थी पर शुक्र बोझिल दीख रहे थे. पुत्री के प्रेम के चलते वे अपने यजमान के हितों की रक्षा नहीं पर पाये थे.
यह सब उस के सुरा पान के चलते हुआ था, यह सोच उस ने उस दिन से ब्राह्मणों के लिए मद्य पान वर्जित कर दिया. “जो नीच ब्राह्मण आज के बाद मद्यपान करेगा वह अपने सभी पुण्य खो देगा” शुक्र ने कहा “और वह ब्रह्म हत्या का पापी माना जाएगा.“
कच का लक्ष्य सिद्ध हो गया था पर उसके सहस्त्र वर्ष अभी पूरे नहीं हुए थे. अवधि पूरी होने पर गुरु के आशीष ले वह चलने की तैयारी करने लगा. गुरु को प्रणाम कर वह देवयानी की तरफ उन्मुख हुआ. इस के पहले कि वह कुछ बोले देवयानी बोल पड़ी "मैं तुम्हारे पिता बृहस्पति का उतना ही सम्मान करती हूँ कच, जितना तुम अपने गुरु, मेरे पिता का करते हो" फिर बिना किसी वाक् छल, बिना लज्जाशीलता का कोई बोझ उठाये उस ने कच से विवाह का प्रस्ताव रख दिया. कच को इस प्रस्ताव की आशंका थी पर वह कभी सोच नहीं सकता था कि यह विवाह प्रस्ताव इतना अनायास, बिना किसी छद्म के, ऐसे सरल वार्तालाप में आ जाएगा.
पर कच को यह स्वीकार्य नहीं था. उस ने कहा " मेरा पुनर्जन्म शुक्र के शरीर से हुआ है” कच ने कहा “इस तरह भी तुम मेरी बहन हो देवयानी, विवाह के विचार ही घोर पातक हैं. ऐसा मत करो. मैं तुम्हे आजन्म उसी स्नेह और श्रद्धा से याद करूँगा जिस से तुम्हारे पिता आचार्य शुक्र को"
कच को नहीं मानता देख देवयानी ने उसे शाप देते हुए कहा "जिस महाविद्या को पाने के लिए कच तुम ने मेरे साथ प्रेम का छल किया था वह विद्या हर अवसर पर तुम्हे छलेगी - जब कभी इस की आवश्यकता पड़ेगी तुम इसे भूल जाओगे"
कच काँप गया. "किन्तु देवयानी तुम्हारा यह शाप उस व्यक्ति पर नहीं लगेगा जिसे मैं यह विद्या सिखाऊंगा" उस ने भी प्रत्युत्तर दिया और चलते चलते जोड़ दिया "भृगु की पौत्री, मैं तो क्या कोई ब्राह्मण तुम से विवाह नहीं करेगा".
प्रचेतस के दस पुत्रों ने अपने मुखों की अग्नि से पृथ्वी की विषाक्त वनस्पतियों को जला कर इसे रहने योग्य बनाया था. इन दस के बाद प्रचेतस के एक और पुत्र हुआ दक्ष. दक्ष से सभी जीवों का उद्भव हुआ है. उस की पच्चास पुत्रियाँ थीं. उस ने अपनी दस पुत्रियों को धर्म को दिए थे, तेरह कश्यप को और सत्ताईस चंद्र को. उस की सबसे बड़ी पुत्री से कश्यप ने बारह आदित्य पैदा किए थे. इन्हीं में इंद्र और सूर्य (विवस्वत) भी थे. विवस्वत का एक पुत्र था मनु. मनु के वंश में मानवों के जन्म हुए – ब्राह्मणों, क्षत्रियों और अन्य. बाद में ब्राह्मण और क्षत्रिय परस्पर मिल गये और वेदाध्ययन में लग गये. तब मनु के दस क्षत्रिय संतान हुईं: वेन, धृष्णु, नरिष्यंत, नाभाग, इक्ष्वाकु, करूष, शर्याती, आठवीं एक पुत्री इला, पृषध्रु और नाभागारिष्ट. इन सबों ने क्षात्र धर्म स्वीकार किया.
पुरुरवा का जन्म इला से हुआ था. यह भी सुना गया है कि इला उस की माता और पिता दोनो ही थी. मनुष्य होते हुए भी पुरुरवा अमर जीवों (देव, गंधर्व आदि) के साथ विचरता था. अपनी शक्ति के मद में चूर हो पुरुरवा ने ब्राह्मणों के धन छीन लिए थे. सनतकुमार ने उसे समझाया भी था किंतु जब उस ने उनकी भी नहीं सुनी तो ऋषियों के कोप से उसका नाश हुआ था.
पुरुरवा गंधर्वों के क्षेत्र से यज्ञ के लिए तीन अग्नियों को पृथ्वी पर लाया था. वहीं से वह अपने साथ उर्वशी भी लेता आया था. अप्सरा उर्वशी और पुरुरवा के पुत्र आयुष का बुद्धिमान और पराक्रमी पुत्र नहुष हुआ था. नहुष ने अपने राज्य का विस्तार किया था और धर्मनिष्ठ हो कर उस ने पूरी पृथ्वी पर शासन किया. उस ने पित्रियों, देवताओं, ऋषियों, ब्राह्मणों, गंधर्वों, नागों, राक्षसों, क्षत्रियों और वैश्यों को यथोचित आलंबन दिया था. अपने तप, निष्पक्ष न्याय और शक्ति से उस ने इंद्र बन कर इंद्रलोक पर भी राज किया. नहुष के छः पुत्र थे, भागवत के अनुसार यति, ययाति, संयति, आयाति, वियाति और कृति.
यति ने संन्यास ले लिया था और ययाति राजा बना. ययाति बहुत प्रतापी राजा था. उस ने पूरे विश्व पर राज क्या, और कभी अपने जीवन में कोई युद्ध नहीं हारा. उसकी दो पत्नियाँ थीं: देवयानी और शर्मिष्ठा. देवयानी के पुत्र यदु और तुर्वसु थे शर्मिष्ठा के द्रह्यु, अनु और पुरु. देवयानी शुक्र की पुत्री थी. शुक्र के शाप से जराक्रांत होने पर ययाति ने अपने पुत्रों से उनका यौवन माँगा. जो पुत्र भी ऐसा करता – पिता को अपना यौवन देता – उसे ययाति की जरावस्था झेलनी पड़ती. उसका कनिष्ठ पुत्र पुरु इस के लिए तैयार हो गया और ययाति ने फिर एक सहस्त्र वर्षों तक यौवन का आनंद लिया.
“इच्छायें कभी शांत नहीं होतीं” यह कहते हुए एक सहस्त्र वर्ष बाद उस ने पुरु को उसका यौवन लौटा कर अपनी जरावस्था वापस ले ली. “इच्छाओं को जितना पूरा करो, यज्ञ की अग्नि में घी डालने की तरह वे उतनी बलवती होती जाती हैं. यदि किसी को पृथ्वी का सारा धन,स्वर्ण, रत्न, स्त्रियाँ – सब कुछ मिल जाए – तब भी वह कभी तृप्त नहीं होगा.” यह देख ययाति पुरु को राजा बना वानप्रस्थ हो गया और अपनी तपस्या से पुण्य अर्जित कर मृत्योपरांत स्वर्ग लोक को गया.
लेकिन जनमेजय संतुष्ट नहीं हुआ और उसके अनुरोध पर वैशम्पायन ने ययाति की कथा विस्तार में सुनाई.
तीनो लोकों पर आधिपत्य के लिए प्राचीन काल में सुरों और असुरों के बीच सहस्त्रों वर्षों तक युद्ध हुए. युद्ध में विजय श्री की प्राप्ति के लिए दोनो यज्ञ किया करते थे. सुरों ने अंगिरस के पुत्र वृहस्पति को अपना आचार्य बनाया था और असुरों ने भृगु के पुत्र शुक्र को. शुक्र संजीविनी महाविद्या जानता था और युद्ध में मारे गये असुरों को वह पुनर्जीवित कर देता था. वृहस्पति इस महविद्या से अनिभिज्ञ था और सुरों की संख्या घटती जा रही थी.
थक कर सुरों ने वृहस्पति के ज्येष्ठ पुत्र कच को असुर राज वृषपर्व की नगरी भेजा जहाँ वह शुक्र का शिष्यत्व ले कर संजीविनी विद्या किसी तरह, चोरी छुपे सीख ले. प्रतिद्वंद्वी वृहस्पति के पुत्र का शुक्र ने स्वागत किया और कच को अपने आश्रम में जगह दी. और कच ने एक सहस्त्र वर्ष तक ब्रह्मचारी रह उनकी सेवा करने का संकल्प लिया.
कच आश्रम में एक समर्पित, स्वाध्यायी, ब्रह्मचारी की भाँति रहने लगा. आश्रम का कोई कार्य उसके लिए बहुत छोटा या बहुत कठिन नहीं था. वह गौ के साथ वन भी चला जाता था और संध्या-पूजन में देवयानी की भी सहायता करता था. कुछ ही दिनों में शुक्र उसे बहुत मानने लगे थे. वह शुक्र को तो पूरा सम्मान देता ही था, देवयानी की आवश्यकताओं के प्रति भी सचेत रहता था. वन से देवयानी के लिए भाँति भाँति के पुष्प, पल्लव, फल आदि लाता था साथ ही संगीत और नृत्य से भी वह देवयानी का मनोरंजन करता था. कुछ ही वर्षों में देवयानी को लगने लगा कि वह कच के बिना जीवित नहीं रह सकेगी.
असुर बृहस्पति के पुत्र के प्रति सशंकित थे. धीरे धीरे उन्हें विश्वास हो चला कि बृहस्पति ने कोई गहरी चाल चली है. चाल कुछ भी हो कच का वध कर देने से सब निष्फल हो जाएगा. यह सोच उन्होंने एक दिन वन में कच को मार डाला और उस के शरीर के टुकड़े कर वन्य जंतुओं को खिला दिए. संध्या पूजन की बेला तक कच रोज आ जाता था. जब गौवें बिना कच के लौट आयीं तो देवयानी से न रहा गया. उस ने शुक्र से अपने संदेह कहे - या तो कच कही गिर पड़ा होगा या हिंसक जंतु उसे खा गए होंगे - "कुछ भी करें पर उसे पुनर्जीवित कर यहाँ लेते आएं”.
शुक्र ने मृत संजीवनी मन्त्र पढ़ कर कच का आह्वान किया और बाघ, गीदड़ों के उदर चीरते हुए कच उपस्थित हो गया. देवयानी ने देर से आने का कारण पूछा तो कच ने सारी बात बताई. "मैं तो मर चुका था. होम के लिए जलावन और पूजन के लिए कुश चुन कर जैसे ही मैं आश्रम की ओर चलने को तैयार हो गौवों को एकत्रित कर रहा था कि कुछ असुरों ने मेरा परिचय पूछा. "मैं बृहस्पति का पुत्र कच हूँ" सुनते ही उन्होंने मेरी ह्त्या कर मुझे बाघ गीदड़ों को खिला दिया. मुनिवर के आदेश पर मैं उन जंतुओं के उदर चीर उपस्थित हुआ हूँ."
एक दूसरे अवसर पर जब देवयानी के लिए कच वन में पुष्प एकत्रित कर रहा था, असुरों ने उसे मार कर उसकी देह को पीस कर अवलेह बना समुद्र में प्लावित कर दिया. संध्या बेला देवयानी ने पुनः शुक्र से प्रार्थना की. शुक्र ने मंत्रोच्चारण कर कच का आह्वान किया और कच फिर पुनर्जीवित हो आ गया. देवयानी ने बातों बातों में उसे बता दिया कि दोनों अवसरों पर शुक्र ने उसके (देवयानी के) अनुरोध पर कच को पुनर्जीवित किया था.
कुछ दिनों बाद असुरों ने शुक्र को मद्य-पान के लिए आमंत्रित किया. शुक्र मदिरा प्रेमी थे और तब तक पीते रहे जब तक सारी मदिरा समाप्त नहीं हो गयी. डगमगाते कदमों से वे अपने आश्रम की ओर चले. दूर से उन्होंने देवयानी को आश्रम के द्वार पर बैठे रोते देखा. वे समझ गए और देवयानी को समझाने लगे:
"कच का असुरों ने फिर वध कर दिया है. मैं उसे कितनी बार वापस ला पाउँगा? किसी के लिए तुम्हारा इतना विलाप करना ठीक नहीं है."
पर देवयानी नहीं मानी और शुक्र देवयानी की बात नहीं टाल सके. संकल्प ले कर जब कच का आह्वान किया तो उनके उदर से कच की बोली सुनाई पड़ी.
"असुरों ने मेरा वध कर, मुझे जला कर, भस्म को मद्य में मिला कर, आप को पिला दिया है"
स्थिति गंभीर थी. शुक्र ने देवयानी को पूरी स्थिति बतायी; शुक्र और कच का अब एक साथ जीवित रहना संभव नहीं लग रहा था.
"अब मैं क्या कर सकता हूँ? कच को उसका जीवन मेरी मृत्यु के बाद ही मिल सकता है. बिना मेरे उदर चीरे वह बाहर नहीं आ सकता और उसके बाद मैं जी नहीं सकूंगा. पर तुम कह रही हो कि बिना कच के तुम जी नहीं सकती और अगर तुम्ही नहीं रहोगी तो मैं जी कर क्या करूंगा?"
और शुक्र ने अपने उदर में स्थित कच को महाविद्या सिखाई, कच उनकी देह चीर कर बाहर निकला और अपनी नयी सीखी महाविद्या से उस ने अपने गुरु को पुनर्जीवित किया. देवयानी प्रफुल्ल थी पर शुक्र बोझिल दीख रहे थे. पुत्री के प्रेम के चलते वे अपने यजमान के हितों की रक्षा नहीं पर पाये थे.
यह सब उस के सुरा पान के चलते हुआ था, यह सोच उस ने उस दिन से ब्राह्मणों के लिए मद्य पान वर्जित कर दिया. “जो नीच ब्राह्मण आज के बाद मद्यपान करेगा वह अपने सभी पुण्य खो देगा” शुक्र ने कहा “और वह ब्रह्म हत्या का पापी माना जाएगा.“
कच का लक्ष्य सिद्ध हो गया था पर उसके सहस्त्र वर्ष अभी पूरे नहीं हुए थे. अवधि पूरी होने पर गुरु के आशीष ले वह चलने की तैयारी करने लगा. गुरु को प्रणाम कर वह देवयानी की तरफ उन्मुख हुआ. इस के पहले कि वह कुछ बोले देवयानी बोल पड़ी "मैं तुम्हारे पिता बृहस्पति का उतना ही सम्मान करती हूँ कच, जितना तुम अपने गुरु, मेरे पिता का करते हो" फिर बिना किसी वाक् छल, बिना लज्जाशीलता का कोई बोझ उठाये उस ने कच से विवाह का प्रस्ताव रख दिया. कच को इस प्रस्ताव की आशंका थी पर वह कभी सोच नहीं सकता था कि यह विवाह प्रस्ताव इतना अनायास, बिना किसी छद्म के, ऐसे सरल वार्तालाप में आ जाएगा.
पर कच को यह स्वीकार्य नहीं था. उस ने कहा " मेरा पुनर्जन्म शुक्र के शरीर से हुआ है” कच ने कहा “इस तरह भी तुम मेरी बहन हो देवयानी, विवाह के विचार ही घोर पातक हैं. ऐसा मत करो. मैं तुम्हे आजन्म उसी स्नेह और श्रद्धा से याद करूँगा जिस से तुम्हारे पिता आचार्य शुक्र को"
कच को नहीं मानता देख देवयानी ने उसे शाप देते हुए कहा "जिस महाविद्या को पाने के लिए कच तुम ने मेरे साथ प्रेम का छल किया था वह विद्या हर अवसर पर तुम्हे छलेगी - जब कभी इस की आवश्यकता पड़ेगी तुम इसे भूल जाओगे"
कच काँप गया. "किन्तु देवयानी तुम्हारा यह शाप उस व्यक्ति पर नहीं लगेगा जिसे मैं यह विद्या सिखाऊंगा" उस ने भी प्रत्युत्तर दिया और चलते चलते जोड़ दिया "भृगु की पौत्री, मैं तो क्या कोई ब्राह्मण तुम से विवाह नहीं करेगा".
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