वैशम्पायन कह रहा है:
धृतराष्ट्र, पांडु और विदुर के जन्मों
के बाद कुरुजंगल, कुरुक्षेत्र और कुरुओं की समृद्धि वापस आ गयी. समय पर
अनुकूल वर्षा होने लगी, कृषकों के उत्पाद बढ़ने लगे, वृक्ष फलों और फूलों
से भर गये, शिल्पियों को काम की कमी नहीं रही और व्यापारियों से नगर भर
गये. रत्नाकर की तरह भरा पूरा परिपूर्ण हस्तिनापुर अपने महलों और परकोटों
के चलते एक दूसरा अमरावती लगने लगा. कहीं कोई कृपण नहीं था, स्त्रियाँ
विधवा नहीं होती थीं. जलाशय जल से भरे रहते थे और ब्राह्मणों के घर धन
संपदा से. प्रजा के उल्लास को देख कर लगता था जैसे पूरे राज्य में बारहो
महीने कोई महोत्सव मनाया जा रहा हो.
धृतराष्ट्र,
पांडु और विदुर को भीष्म ने अपनी संतान की तरह पाल पोस कर बड़ा किया. समय
पर उनके वर्णानुकूल संस्कार हुए और उपयुक्त शिक्षा दी गयी. वेद,
धनुर्विद्या, अश्वारोहण, गदा युद्ध, अर्थ और राज नीति, पुराण, इतिहास आदि
अनेक विधाओं में वे पारंगत हो गये. पांडु महान धनुर्धारी बना, धृतराष्ट्र
में अपार बल रहा और विदुर अपने समय के अद्वितीय धर्मज्ञ के रूप में उभरा.
समय आने पर पांडु हस्तिनापुर का राजा बना. धृतराष्ट्र अपनी दृष्टिहीनता के
चलते और विदुर शूद्र माता से जन्म लेने के चलते राजा बनने के लिए उपयुक्त
नहीं समझे गये थे.
धृतराष्ट्र और पांडु के विवाह के लिए भीष्म ने
उच्च कुलों की रूपवती कन्याओं की खोज शुरू कर दी थी. तीन कन्यायें उसे
सर्वाधिक उपयुक्त लगीं – यादव राजा शूरसेन की पुत्री पृथा, सुबल की पुत्री
गांधारी और मद्रदेश की राजपुत्री माद्री. इस बीच ब्राह्मणों से भीष्म को
पता चला कि सुबल-पुत्री ने भगवान शिव को प्रसन्न कर एक सौ पुत्रों की माता
बनने का वर प्राप्त किया है. सौ पुत्रों की सुन कर भीष्म ने तुरंत अपने
संदेश वाहक सुबल के पास भेजे. दृष्टिहीन धृतराष्ट्र के हाथ अपनी पुत्री
देने से सुबल हिचकिचा रहा था किंतु कुरू वंश की महानता और संपन्नता सोच वह
तैयार हो गया. उस का होने वाला पति दृष्टिहीन है यह पता चलते ही गांधारी ने
उस के सम्मान और स्नेह में अपनी आँखों पर सदा के लिए पट्टी बाँध ली. सुबल
का पुत्र शकुनी अपनी बहन के साथ हस्तिनापुर आया था, जँहा उस ने विधिवत
धृतराष्ट्र के हाथों अपनी बहन को सौंप विवाह संपन्न कराया.
पांडु
की पत्नी के लिए भीष्म ने यादव राजपुत्री पृथा को चुना था. वसुदेव के भाई
यादव राजा शूरसेन था. उस का फुफेरा भाई राजा कुन्तिभोज बहुत दिनों तक
निस्संतान रहा था. शूरसेन ने अपनी पहली संतान कुन्तिभोज को देने के वचन दिए
थे. इस तरह उस की पहली पुत्री पृथा राजा कुन्तिभोज के महल में उस की दत्तक
पुत्री कुंती के रूप में बड़ी हुई. पृथा में रूप और गुण दोनो भरे थे.
कुन्तिभोज ने उस के विवाह के लिए स्वयंवर का आयोजन किया, जिस में कुंती ने
पांडु के गले में वरमाल डाल उसे अपना पति वरा. स्वयंवर में आए अन्य राजाओं
के लौटने के बाद कुन्तिभोज ने पृथा और पांडु का विवाह आयोजित किया जिस में
कुरु-कुमार और कुन्तिभोज की पुत्री इंद्र और पौलोमी से कम नहीं लग रहे थे.
विवाह के बाद ब्राह्मणों के आशीर्वचनों और चारणों की स्तुति के बीच नव
दंपति हस्तिनापुर आए.
कुंती के साथ पांडु के विवाह के कुछ दिनों
बाद, पांडु के लिए एक और रानी लाने की सोच भीष्म ब्राह्मणों और अपनी
चतुरंगी सेना के साथ बाह्लिक क्षेत्र में मद्र देश के राजा शल्य के पास
गया. भीष्म के आगमन की सुन मद्र-राज ने, नगर के बाहर उस का स्वागत कर
सम्मान पूर्वक उसे अपने महल में ला कर, उस के आने का उद्देश्य जानना चाहा.
भीष्म ने उस से उसकी बहन माद्री की चर्चा की. माद्री विख्यात सुंदरी थी और
उतनी ही सुशीला भी. भीष्म ने कहा “आप का वंश राजन, हर दृष्टि से हमारे लिए
संबंध करने योग्य है और हम भी आप के लिए संबंध करने योग्य हैं. मैं राजा
पांडु के लिए आप से माद्री के हाथ माँगने आया हूँ”
शल्य सहमत लगा.
“मैं आप के परिवार को छोड़ किसी को नहीं देख पाता हूँ", शल्य ने कहा “जहाँ
मैं अपनी बहन दे पाऊँ. किंतु राजन, हमारे परिवार की एक परंपरा है. अच्छी या
बुरी जो भी हो वह प्राचीन परंपरा है जिस का उल्लंघन मैं नहीं कर सकता. आप
भी उस परंपरा से परिचित होंगे. आप का इस तरह माद्री का हाथ माँगना उचित
नहीं है.”
“किंतु राजन, यह परंपरा बुरी क्यों कही जाएगी” भीष्म ने
कहा “आप के पूर्वजों ने एक प्राचीन परंपरा को जीवित रखा है. इस में कोई दोष
नहीं है” और यह कहते हुए उस ने शल्य को बहुत सारी स्वर्ण मुद्रायें और
स्वर्ण खंड दिए. “बाहर आप के लिए हाथी, घोड़े और रथ भी मैं ने ला रखे हैं.
एक रथ पर मोतियों और मूंगों से भरे कुछ थैले भी आप के लिए हैं”.
इतने
उपहारों को देख शल्य ने प्रसन्न हो अपनी बहन को आभूषणों से लाद, पांडु से
विवाह के लिए हस्तिनापुर जाने दिया. विवाह के बाद तीस दिनों तक अपनी दोनो
पत्नियों के साथ अंतःपुर में विहार-मग्न रह कर महाबाहु पांडु ने विश्व
विजय पर निकलने की सोची.
भीष्म के चरणस्पर्श कर, धृतराष्ट्र और
विदुर से विदा माँग एक विशाल सेना के साथ पांडु अपने महा अभियान पर निकला.
पूर्व दिशा में बढ़ते हुए सबसे पहले उस ने दशार्णों पर विजय पाई. वहाँ से
वह मगध की राजधानी राजगृह गया. मगध के राजा (दीर्घ ?) का वध कर पांडु ने उस
के राजकोष, रथ और पशुओं को ले कर मिथिला की ओर प्रस्थान किया. विदेह
जीतने के बाद उस ने काशी, सुंभ, और पुंड्र पर भी अपने पराक्रम की ध्वजा
लहराई. आगे बढ़ते हुए उस ने सभी राजाओं को अपने अधीन किया और पृथ्वी पर
अपनी वही स्थिति बना ली जो स्वर्ग लोक में इंद्र की है – निर्विवादित
नृपेश.
पराजित राजाओं ने पांडु को रत्न, स्वर्ण, मणि, मुक्ता आदि से
लाद दिया. अपने अभियान से अकूत संपत्ति जीत कर पांडु हस्तिनापुर पहुँचा.
उस की समृद्धि देख उत्साहित नागरिकों को राजा शांतनु के दिन याद आ गए जब
इसी तरह पूरे भारतवर्ष के राजा हस्तिनापुर का आधिपत्य स्वीकार करते थे.
भीष्म
की अगवानी में सबों ने नगर के बाहर अपने विजयी राजा का स्वागत किया. युद्ध
से जीते धन – वैभव से लदे रथों, हाथियों और ऊंटों की कतार का अंत नहीं दिख
रहा था. पांडु ने भीष्म के चरण स्पर्श कर आशीष माँगे और नगाड़ों की तुमुल
ध्वनि के बीच हस्तिनापुर में प्रवेश किया.
धृतराष्ट्र के निर्देश
पर पांडु ने अपने बाहुबल से अर्जित धन को भीष्म, सत्यवती, अपनी माताओं और
विदुर में बाँट दिये. कुरू वंश के सभी ज्येष्ठ उस से बहुत प्रसन्न हुए.
अंबालिका की प्रसन्नता असीम थी. उस ने पांडु को वैसे ही गले लगाया जैसे कभी
शची ने जयंत को लगाया था.
कुछ समय बाद पांडु अपनी दोनो रानियों के
साथ, हस्तिनापुर के राज प्रासाद छोड़ वन में रहने चला गया. हिमालय के
दक्षिणी भाग में शाल वृक्षों से आच्छादित एक पहाड़ी पर उस ने अपना घर
बनाया, जहाँ उस का सारा समय मृगों के आखेट में या अपनी पत्नियों के साथ
वन-भ्रमण में बीतता था.
इस बीच गंगा से भीष्म को पता चला कि राजा
देवक के अपनी एक शूद्र पत्नी से बहुत रूपवती और सुशीला पुत्री है. भीष्म ने
उस कन्या को अपने पिता के घर से ला कर विदुर के साथ उसका विवाह सम्पन
कराया. और समय आने पर धर्मज्ञ विदुर के भी उसी के समान शिष्ट और गुणवान
अनेक पुत्र हुए.
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