अपने कनिष्ठ और सब से प्रिय
पुत्र पुरू को गंगा-यमुना के मध्य भाग का राज दे कर, और अन्य पुत्रों को
दूर दराज भेज कर, ययाति वन में संन्यासी का जीवन व्यतीत करने लगा. कंद,
मूल, फल आदि खा कर और अपनी इन्द्रियों और विचारों को पूर्णतया अपने
नियंत्रण में रख कर राजा ने अपने यज्ञादि से देवताओं और पितरों को सदैव
प्रसन्न रखा. इस तरह उस ने एक सहस्त्र वर्ष बिताये.और उस के बाद एक वर्ष का
उस ने मौन व्रत रखा और उस के बाद एक वर्ष की उस ने कठोर तपश्चर्या की. इस
पूरे वर्ष वह चारो और लपलपाती आग के बीच, भगवान की स्तुति करते खड़ा रहा.
और इस के बाद छः मास वह सिर्फ वायु पर जीते हुए एक पैर पर खड़ा रहा. इस तरह
तप करते हुए, समय आने पर, राजा ययाति अपने सत्कर्मों से स्वर्ग गया.
स्वर्ग में ययाति देवों, साध्यों, मरुतगण और वसुओं का प्रिय आराध्य रहा. देवलोक से राजा ययाति यदा कदा ब्रह्मलोक भी चला जाया करता था. बहुत लम्बे काल तक वह इस तरह स्वर्गलोक और ब्रह्मलोक में विचरण करता रहा. एक दिन इंद्र के साथ ययाति घूम रहा था जब इंद्र ने उस से पूछा
"जब पुरू ने तुम्हारी जरावस्था ले ली तब तुम ने क्या कहा था राजन? "
"मैं ने उस से कहा कि गंगा और यमुना के मध्य का भू भाग, जो पृथ्वी का सही अर्थ में केंद्रीय भाग है, तुम्हारा रहेगा. और दूर दराज के क्षेत्रों को मैंने अपने दूसरे पुत्रों में बाँट दिया" ययाति ने कहा "मैं ने उसे कुछ उपदेश भी दिए, यथा: जिनको क्रोध नहीं रहता वे क्रोधियों से श्रेष्ठतर होते हैं; जो क्षमा कर सकते हैं वे निष्ठुरों से और इसी तरह मनुष्य पशुओं सेऔर ज्ञानी अज्ञानियों से श्रेष्ठतर होते हैं.
"कटु वचन से किसी को कष्ट मत दो, न ही अन्याय से कभी किसी को दबाने का प्रयास करो. यदि वाणी में मधुरता नहीं रहेगी तो समृद्धि पास नहीं फटकेगी. धार्मिक लोगों के अनुगामी बनो और दुष्टों का कुछ भी कहा अनसुना कर दो. तीनो लोकों में देवताओं के पूजन के लिए या मनुष्यों कोजीतने के लिए दया, मित्रता, दान और मधुर वाणी से बढ़ कर कुछ भी नहीं है. जो तुम्हारा सम्मान करें उनका तुम भी सम्मान करो और कभी किसी से कुछ मांगो नहीं"
यह सब सुन इंद्र ने ययाति से पूछा "तुम तो अपने कर्तव्य पालन कर वानप्रस्थ भी हुए थे और बहुत तप भी किया है तुम ने. तपश्चर्या में तुम अपने को किस के बराबर समझते हो?"
"तप में इंद्र" ययाति ने कहा "मैं किसी को - मनुष्य, देवता, गन्धर्व या महर्षिगण- किसी को भी अपने बराबर नहीं समझता हूँ"
"राजन यह बोल कर तुम ने अपने से श्रेष्ठ तपस्वियों का निरादर किया है" इंद्र ने कहा "श्रेष्ठ ही नहीं अपने समकक्ष तपस्वियों का भी अनादर किया है. अब तुम्हारे संचित पुण्य का ह्रास हो गया है और तुम्हे अब पृथ्वी पर जाना पडेगा"
निर्विकार भाव से ययाति ने कहा "यदि मेरे पुण्य का ह्रास हो गया है तो निश्चित मुझे पृथ्वी पर जाना पडेगा; पर हे इंद्र कुछ ऐसा करो कि पृथ्वी पर मैं धार्मिक लोगों के बीच रहूँ."
"राजन तुम धार्मिक और बुद्धिमान लोगों के बीच ही रहोगे" इंद्र ने कहा "और इस अनुभव के बाद, राजन, अपने से श्रेष्ठ या अपने समकक्ष लोगों का अनादर शायद कभी नहीं करोगे"
ययाति स्वर्ग लोक से गिर पड़ा.
स्वर्ग लोक से गिरता ययाति एक दम से धरती पर नहीं आ गया था. देर तक वह आकाश में रुका रहा था . वहां रुके ययाति को देख भूमि पर खड़े अष्टक (जो ययाति का दौहित्र था पर दोनों इस बात से अभी अनभिज्ञ हैं) ने चकित हो उस से पूछा "कौन हो तुम? तुम्हारा प्रताप तो बस इंद्र, सूर्य या विष्णु सा लगता है पर वे क्यों गिरने लगे; तुम हो कौन?”
उस ने फिर कहा "मैं इस तरह तुम्हारा नाम पूछने की अशिष्टता नहीं करता. पर तुम तो कुछ बोल नहीं रहे हो. पर कोई चिंता मत करो. जैसे मात्र अग्नि को ताप प्रसारण की शक्ति है, जैसे मात्र पृथ्वी ही बीज में जीवन फूँक सकती है, जैसे अकेला सूर्य ही सब कुछ प्रकाशित कर सकता है, वैसे ही केवल अतिथि किसी धार्मिक और ज्ञानी व्यक्ति को आज्ञा दे सकता है. निश्चिंत रहो तुम. पर बताओ तो, तुम हो कौन?
ययाति ने कहा: “मैं ययाति हूँ, नहुष का पुत्र और पुरू का पिता. सिद्ध और ऋषियों का अनादर करने के चलते मुझे देवलोक से निष्कासित कर दिया गया है. मैं गिर रहा हूँ क्योंकि मेरे पुण्य का ह्रास हो रहा है.”
विश्वामित्र का पुत्र अष्टक अब जान गया कि वह अपने नाना के साथ है पर ययाति अभी तक नहीं जान पाया है कि वहअपने नाती से बातें कर रहा है. अष्टक ने अपने नाना से कुछ ज्ञान प्राप्त करने की सोची और पूछा "कौन अधिक पूजनीय है, वह जो ज्ञान, तप में श्रेष्ठ हो या वह जिस ने पहले जन्म लिया हो?" अष्टक ने पूछा.
ययाति ने इसका स्पष्ट उत्तरनहीं दिया "एक पाप से चार पुण्य मिट जाते हैं. मिथ्याभिमान हर व्यक्ति को नरक की ओर धकेलता है. मैं ने भी कभी बहुत पुण्य अर्जित किये थे. पर वे सब मिट गए. मुझे देखते हुए, जो अपना भला चाहते हैं वे अवश्य अपने मिथ्याभिमानको दबा कर रखें. ज्ञानी अंदर से विनम्र होते हैं. वे ज्ञान का भी अभिमान नहीं करते. प्रारब्ध को सर्वशक्तिमान जान कर,बुद्धिमान सदैव संतुष्ट और स्थिर रहते हैं. वे दुःख में दुखी नहीं होते, न ही सुख में आनंदित. यदि प्रारब्ध सर्वोच्च है तो शोक और आनंद दोनों अशोभनीय हैं. मैंने अपने आप को कभी भयभीत नहीं होने दिया न ही मैं कभी दुखी हुआ क्यों कि होगा वही जो विधाता चाहेगा. कीट, पतंगे, घास, पत्थर सब को अपना कर्म भोग कर परमात्मा में मिल जाना है, इस स्थिति में क्षणिक या अनित्य दुःख या सुख पर शोक या आनंद में डूब जाना बुद्धिमानों का कामनहीं है."
अष्टक ने आकाश में रुके हुए ययाति से फिर पूछा "राजन आप किन किन लोकों में गए और कहाँ आपने कितना समयबिताया?"
ययाति ने कहा"अपनी तपश्चर्या से मैंने अनेक उच्च लोकों को प्राप्त किया जहाँ मैं एक सहस्त्र वर्षों तक रहा. उस के बाद एक सहस्त्र वर्ष मैंने इंद्रलोक से भी ऊपर एक लोक में बिताये. सहस्त्र वर्ष मैंने विष्णु लोक में भी बितायेऔर दस लक्ष वर्ष मैंने नंदन वन में अप्सराओं के साथ क्रीड़ा में बिताये जब मेरे तपोबल क्षीण हो गए और मुझे नंदन से निकल कर भूलोक पर आना पड़ा . भूलोक के मार्ग में मैंने तुम्हारे यज्ञ की वेदी से उठती धूम्र शिखाओं को देखा और मैं इधर चला आया."
"पर आप को नंदन छोड़ भूलोक पर क्यों आना पड़ा" अष्टकने पूछा.
"जैसे मित्र और सगे सम्बन्धी किसी के धन समाप्त हो जाने पर उसे छोड़ देते हैं वैसे ही इंद्र और अन्य देव किसी के पुण्य शेष हो जाने पर उसे छोड़ देते हैं."
"पर" अष्टक ने पूछा "देव लोक में पुण्य का नाश कैसे हो सकता है?"
"जो अपने पुण्य की स्वयं चर्चा करता है, उस के पुण्य का नाश होता है"
अष्टक ने पूछा "कैसे कोई उन क्षेत्रों को जाता है जहाँ से भूलोक पर नहीं लौटना पड़ता है - तप से या ज्ञान से?
ययाति ने बताया कि स्वर्गलोक के सात द्वार हैं: तप, परोपकार,चित्त-शान्ति, आत्म नियंत्रण, विनम्रता, सादगी और दयाशीलता. मिथ्याभिमान से ये सातो नष्ट हो जाते हैं. जो व्यक्ति ज्ञान प्राप्त कर अपने को बहुत ज्ञानी समझने लगता है और अपने ज्ञान से दूसरों की मान-मर्यादा नष्ट करने पर आमदा हो जाता है वह उच्च लोकों को कभी नहीं प्राप्त कर सखता है. अध्ययन, मौन, अग्नि के सामने पूजा और यज्ञादि - इन चार से भय दूर होते हैं. पर ये यदि मिथ्याभिमान के साथ हों तो भय दूर करने की जगह ये भय बढ़ाते हैं. जो ज्ञानी व्यक्तिअपना आधार सनातन ब्रह्म में देखते हैं वे इहलोक और परलोक दोनों में पूर्णशांति पाते हैं.
अष्टक: "गृहस्थ, भिक्षु, ब्रह्मचारी और वानप्रस्थ इन्हे पुण्य अर्जन के लिए क्या करनाचाहिए?"
"ब्रह्मचारी को" ययाति ने कहा "अध्ययन में समय तभी लगाना चाहिए जब गुरु का ऐसा आदेश हो. अन्यथा सदैव उसे गुरु की सेवा में रहना चाहिए. गुरु के सो जाने के बाद वह सोये और गुरु के जगने के पहले से जगा रहे. विनम्र रहे और अपनी भावनाओं पर पूरा नियंत्रण रखे तभी कोईब्रह्मचारी सफल हो पायेगा. गृहस्थ को पुण्य कमाने के लिए न्यायपूर्ण ढंग से धन अर्जित कर दान यज्ञ आदि करना चाहिए. सच्चा भिक्षु अपने जीवन निर्वाह के लिए कोई उपयोगी काम कभी नहीं करता, उसे अपने मनोभाव और भावावेश पर पूर्ण नियंत्रण रहता है वह किसी एकजगह पर दो रात नहीं रुकता और किसी गृहस्थ के घर कभी नहीं शरण लेता. विद्वान को वानप्रस्थ तभी होना चाहिए जब उस ने अपनी कामनाओं पर विजय प्राप्त कर लिया हो."
अष्टक के पूछने पर कि मुनि कौन होते हैं ययाति ने बताया कि मुनि होने के लिए वन में जाना आवश्यक नहीं है. वह अपने जन्म, परिवार और ज्ञान पर कोई अभिमान नहीं करता, तुच्छ और अपर्याप्त वस्त्रों में भी वह राजसी परिधान का सुख पाता है, जीवन यापन के लिए जो कुछ खाने को मिले उस से वह संतुष्ट रहता है और नगर या गांव में भी रह कर मौन रहता है. पर यदि ऐसा व्यक्ति वन में जा कर योग ध्यान कर सुख-दुःख, सम्मान-अवज्ञा, के प्रति पूर्णतः निर्विकार हो जाए तो वह अचिन्त्य ब्रह्म में मिल जाता है. और यदि कोई ऐसा व्यक्ति मद्यपान या मांसाहार भी करता है तो वह ऐसा बिना किसी अपेक्षा के करता है और न ही इसमें उसे कोई आनंद मिलता है न हीउसके पुण्य में इस से कोई ह्रास होता है.
अष्टक का अगला प्रश्न था ज्ञानी और तपस्वी में कौन पहले ब्रह्म प्राप्तकरता है?
"ज्ञानी वेद अध्ययन से जान जाते हैं कि" ययाति ने कहा "जो कुछ भी संसार में दिख रहा है वह माया है, और वे परमात्मा को शीघ्र प्राप्त कर लेते हैं. योग और ध्यान मार्ग पर चलने वालों को इसे समझने में देर लगती है. इस तरह ज्ञान से मुक्ति पहले मिलती है. पर यदि किसी कारणसे योगी को एक जन्म में मुक्तिनहीं मिल पाती है तो अगले जन्म में उसे पूर्व जन्म के योग का लाभ मिलता है. ज्ञानी अनश्वर सत्य को जानते हुए, निष्काम भाव से सांसारिक सुखों में डूबे रह कर भी ह्रदय में सत्य से विचलित नहीं होते और मुक्ति केअधिकारी बनते हैं. जिन्हे यह ज्ञान नहीं मिला पाता हैं उन्हें भक्ति और यज्ञ आदि करने चाहिए. पर मुक्ति की अभिलाषा से किये धर्म कर्म से मुक्ति नहीं मिलती."
यह सब सुन कर अष्टक नेपूछा कि उसके लिए, अर्थात अष्टक के भोगने के लिए,देवलोक में कोई क्षेत्र हैं या नही.ययाति ने उसे विश्वास जिलाया कि उसके लिए देवलोक में उतने ही क्षेत्र हैं जितने भूलोक पर गायें औरअश्व हैं. यह सुन अष्टक की प्रतिक्रिया थी कि "यदि मेरे धर्म कर्म से, मेरे तपो बल से देवलोक में मेरे लिए क्षेत्र हैं तो वह सब मैं राजन आप को दे रहा हूँ और आपको देवलोक से गिरने की कोई आवश्यकता नहीं."
"पर दान तो कोई ब्राह्मण ही ले सकता है" ययाति ने कहा "मैं नहीं ले पाउँगा तुम्हारा यह दान. मैंने स्वयं बहुत कुछ दान में दिया है. मैं दान स्वीकार करने का कलंक नही ले सकता."
ययाति का दूसरा दौहित्र प्रतर्दन भी वहीं था. उस ने भी पूछा कि उसके भोगने के लिए स्वर्ग में कोई क्षेत्र हैं या नहीं. ययाति के बताने पर कि प्रतर्दन के लिए भी असंख्य क्षेत्र हैं प्रतर्दन ने भी उन्हें ययाति को दे दिए. और कहा "अब आप को और नीचे नहीं गिरना है"
पर ययाति ने फिर वहीं बात कही. कोई राजा दान नहीं ले सकता. और योग और तप से अर्जित पुण्य तो कभी नहीं.
ययाति के ऐसे कहने पर उसके तीसरे दौहित्र वसुमत ने और चौथे दौहित्र शिवि ने भी वैसा ही कहा.उन्होंने राजा को अपने पुण्य बेचने का भी प्रस्ताव दिया. वसुमत एक तिनके बदले अपने सारे पुण्य अपने नाना को दे देना चाहता था पर ययाति ने इसे अनुचित व्यापार कह इस प्रस्ताव को भी स्वीकार नहीं किया.
तब तक आकाश में पांच स्वर्ण मंडित रथ प्रकट हुए. ययाति के दौहित्रों ने उस से उन रथों के विषय में पूछा और यह सुन के ये रथ देवलोक को ले जाते हैं पांचो उन रथों पर आसीन हो देवलोक को प्रस्थान कर गए.
स्वर्ग में ययाति देवों, साध्यों, मरुतगण और वसुओं का प्रिय आराध्य रहा. देवलोक से राजा ययाति यदा कदा ब्रह्मलोक भी चला जाया करता था. बहुत लम्बे काल तक वह इस तरह स्वर्गलोक और ब्रह्मलोक में विचरण करता रहा. एक दिन इंद्र के साथ ययाति घूम रहा था जब इंद्र ने उस से पूछा
"जब पुरू ने तुम्हारी जरावस्था ले ली तब तुम ने क्या कहा था राजन? "
"मैं ने उस से कहा कि गंगा और यमुना के मध्य का भू भाग, जो पृथ्वी का सही अर्थ में केंद्रीय भाग है, तुम्हारा रहेगा. और दूर दराज के क्षेत्रों को मैंने अपने दूसरे पुत्रों में बाँट दिया" ययाति ने कहा "मैं ने उसे कुछ उपदेश भी दिए, यथा: जिनको क्रोध नहीं रहता वे क्रोधियों से श्रेष्ठतर होते हैं; जो क्षमा कर सकते हैं वे निष्ठुरों से और इसी तरह मनुष्य पशुओं सेऔर ज्ञानी अज्ञानियों से श्रेष्ठतर होते हैं.
"कटु वचन से किसी को कष्ट मत दो, न ही अन्याय से कभी किसी को दबाने का प्रयास करो. यदि वाणी में मधुरता नहीं रहेगी तो समृद्धि पास नहीं फटकेगी. धार्मिक लोगों के अनुगामी बनो और दुष्टों का कुछ भी कहा अनसुना कर दो. तीनो लोकों में देवताओं के पूजन के लिए या मनुष्यों कोजीतने के लिए दया, मित्रता, दान और मधुर वाणी से बढ़ कर कुछ भी नहीं है. जो तुम्हारा सम्मान करें उनका तुम भी सम्मान करो और कभी किसी से कुछ मांगो नहीं"
यह सब सुन इंद्र ने ययाति से पूछा "तुम तो अपने कर्तव्य पालन कर वानप्रस्थ भी हुए थे और बहुत तप भी किया है तुम ने. तपश्चर्या में तुम अपने को किस के बराबर समझते हो?"
"तप में इंद्र" ययाति ने कहा "मैं किसी को - मनुष्य, देवता, गन्धर्व या महर्षिगण- किसी को भी अपने बराबर नहीं समझता हूँ"
"राजन यह बोल कर तुम ने अपने से श्रेष्ठ तपस्वियों का निरादर किया है" इंद्र ने कहा "श्रेष्ठ ही नहीं अपने समकक्ष तपस्वियों का भी अनादर किया है. अब तुम्हारे संचित पुण्य का ह्रास हो गया है और तुम्हे अब पृथ्वी पर जाना पडेगा"
निर्विकार भाव से ययाति ने कहा "यदि मेरे पुण्य का ह्रास हो गया है तो निश्चित मुझे पृथ्वी पर जाना पडेगा; पर हे इंद्र कुछ ऐसा करो कि पृथ्वी पर मैं धार्मिक लोगों के बीच रहूँ."
"राजन तुम धार्मिक और बुद्धिमान लोगों के बीच ही रहोगे" इंद्र ने कहा "और इस अनुभव के बाद, राजन, अपने से श्रेष्ठ या अपने समकक्ष लोगों का अनादर शायद कभी नहीं करोगे"
ययाति स्वर्ग लोक से गिर पड़ा.
स्वर्ग लोक से गिरता ययाति एक दम से धरती पर नहीं आ गया था. देर तक वह आकाश में रुका रहा था . वहां रुके ययाति को देख भूमि पर खड़े अष्टक (जो ययाति का दौहित्र था पर दोनों इस बात से अभी अनभिज्ञ हैं) ने चकित हो उस से पूछा "कौन हो तुम? तुम्हारा प्रताप तो बस इंद्र, सूर्य या विष्णु सा लगता है पर वे क्यों गिरने लगे; तुम हो कौन?”
उस ने फिर कहा "मैं इस तरह तुम्हारा नाम पूछने की अशिष्टता नहीं करता. पर तुम तो कुछ बोल नहीं रहे हो. पर कोई चिंता मत करो. जैसे मात्र अग्नि को ताप प्रसारण की शक्ति है, जैसे मात्र पृथ्वी ही बीज में जीवन फूँक सकती है, जैसे अकेला सूर्य ही सब कुछ प्रकाशित कर सकता है, वैसे ही केवल अतिथि किसी धार्मिक और ज्ञानी व्यक्ति को आज्ञा दे सकता है. निश्चिंत रहो तुम. पर बताओ तो, तुम हो कौन?
ययाति ने कहा: “मैं ययाति हूँ, नहुष का पुत्र और पुरू का पिता. सिद्ध और ऋषियों का अनादर करने के चलते मुझे देवलोक से निष्कासित कर दिया गया है. मैं गिर रहा हूँ क्योंकि मेरे पुण्य का ह्रास हो रहा है.”
विश्वामित्र का पुत्र अष्टक अब जान गया कि वह अपने नाना के साथ है पर ययाति अभी तक नहीं जान पाया है कि वहअपने नाती से बातें कर रहा है. अष्टक ने अपने नाना से कुछ ज्ञान प्राप्त करने की सोची और पूछा "कौन अधिक पूजनीय है, वह जो ज्ञान, तप में श्रेष्ठ हो या वह जिस ने पहले जन्म लिया हो?" अष्टक ने पूछा.
ययाति ने इसका स्पष्ट उत्तरनहीं दिया "एक पाप से चार पुण्य मिट जाते हैं. मिथ्याभिमान हर व्यक्ति को नरक की ओर धकेलता है. मैं ने भी कभी बहुत पुण्य अर्जित किये थे. पर वे सब मिट गए. मुझे देखते हुए, जो अपना भला चाहते हैं वे अवश्य अपने मिथ्याभिमानको दबा कर रखें. ज्ञानी अंदर से विनम्र होते हैं. वे ज्ञान का भी अभिमान नहीं करते. प्रारब्ध को सर्वशक्तिमान जान कर,बुद्धिमान सदैव संतुष्ट और स्थिर रहते हैं. वे दुःख में दुखी नहीं होते, न ही सुख में आनंदित. यदि प्रारब्ध सर्वोच्च है तो शोक और आनंद दोनों अशोभनीय हैं. मैंने अपने आप को कभी भयभीत नहीं होने दिया न ही मैं कभी दुखी हुआ क्यों कि होगा वही जो विधाता चाहेगा. कीट, पतंगे, घास, पत्थर सब को अपना कर्म भोग कर परमात्मा में मिल जाना है, इस स्थिति में क्षणिक या अनित्य दुःख या सुख पर शोक या आनंद में डूब जाना बुद्धिमानों का कामनहीं है."
अष्टक ने आकाश में रुके हुए ययाति से फिर पूछा "राजन आप किन किन लोकों में गए और कहाँ आपने कितना समयबिताया?"
ययाति ने कहा"अपनी तपश्चर्या से मैंने अनेक उच्च लोकों को प्राप्त किया जहाँ मैं एक सहस्त्र वर्षों तक रहा. उस के बाद एक सहस्त्र वर्ष मैंने इंद्रलोक से भी ऊपर एक लोक में बिताये. सहस्त्र वर्ष मैंने विष्णु लोक में भी बितायेऔर दस लक्ष वर्ष मैंने नंदन वन में अप्सराओं के साथ क्रीड़ा में बिताये जब मेरे तपोबल क्षीण हो गए और मुझे नंदन से निकल कर भूलोक पर आना पड़ा . भूलोक के मार्ग में मैंने तुम्हारे यज्ञ की वेदी से उठती धूम्र शिखाओं को देखा और मैं इधर चला आया."
"पर आप को नंदन छोड़ भूलोक पर क्यों आना पड़ा" अष्टकने पूछा.
"जैसे मित्र और सगे सम्बन्धी किसी के धन समाप्त हो जाने पर उसे छोड़ देते हैं वैसे ही इंद्र और अन्य देव किसी के पुण्य शेष हो जाने पर उसे छोड़ देते हैं."
"पर" अष्टक ने पूछा "देव लोक में पुण्य का नाश कैसे हो सकता है?"
"जो अपने पुण्य की स्वयं चर्चा करता है, उस के पुण्य का नाश होता है"
अष्टक ने पूछा "कैसे कोई उन क्षेत्रों को जाता है जहाँ से भूलोक पर नहीं लौटना पड़ता है - तप से या ज्ञान से?
ययाति ने बताया कि स्वर्गलोक के सात द्वार हैं: तप, परोपकार,चित्त-शान्ति, आत्म नियंत्रण, विनम्रता, सादगी और दयाशीलता. मिथ्याभिमान से ये सातो नष्ट हो जाते हैं. जो व्यक्ति ज्ञान प्राप्त कर अपने को बहुत ज्ञानी समझने लगता है और अपने ज्ञान से दूसरों की मान-मर्यादा नष्ट करने पर आमदा हो जाता है वह उच्च लोकों को कभी नहीं प्राप्त कर सखता है. अध्ययन, मौन, अग्नि के सामने पूजा और यज्ञादि - इन चार से भय दूर होते हैं. पर ये यदि मिथ्याभिमान के साथ हों तो भय दूर करने की जगह ये भय बढ़ाते हैं. जो ज्ञानी व्यक्तिअपना आधार सनातन ब्रह्म में देखते हैं वे इहलोक और परलोक दोनों में पूर्णशांति पाते हैं.
अष्टक: "गृहस्थ, भिक्षु, ब्रह्मचारी और वानप्रस्थ इन्हे पुण्य अर्जन के लिए क्या करनाचाहिए?"
"ब्रह्मचारी को" ययाति ने कहा "अध्ययन में समय तभी लगाना चाहिए जब गुरु का ऐसा आदेश हो. अन्यथा सदैव उसे गुरु की सेवा में रहना चाहिए. गुरु के सो जाने के बाद वह सोये और गुरु के जगने के पहले से जगा रहे. विनम्र रहे और अपनी भावनाओं पर पूरा नियंत्रण रखे तभी कोईब्रह्मचारी सफल हो पायेगा. गृहस्थ को पुण्य कमाने के लिए न्यायपूर्ण ढंग से धन अर्जित कर दान यज्ञ आदि करना चाहिए. सच्चा भिक्षु अपने जीवन निर्वाह के लिए कोई उपयोगी काम कभी नहीं करता, उसे अपने मनोभाव और भावावेश पर पूर्ण नियंत्रण रहता है वह किसी एकजगह पर दो रात नहीं रुकता और किसी गृहस्थ के घर कभी नहीं शरण लेता. विद्वान को वानप्रस्थ तभी होना चाहिए जब उस ने अपनी कामनाओं पर विजय प्राप्त कर लिया हो."
अष्टक के पूछने पर कि मुनि कौन होते हैं ययाति ने बताया कि मुनि होने के लिए वन में जाना आवश्यक नहीं है. वह अपने जन्म, परिवार और ज्ञान पर कोई अभिमान नहीं करता, तुच्छ और अपर्याप्त वस्त्रों में भी वह राजसी परिधान का सुख पाता है, जीवन यापन के लिए जो कुछ खाने को मिले उस से वह संतुष्ट रहता है और नगर या गांव में भी रह कर मौन रहता है. पर यदि ऐसा व्यक्ति वन में जा कर योग ध्यान कर सुख-दुःख, सम्मान-अवज्ञा, के प्रति पूर्णतः निर्विकार हो जाए तो वह अचिन्त्य ब्रह्म में मिल जाता है. और यदि कोई ऐसा व्यक्ति मद्यपान या मांसाहार भी करता है तो वह ऐसा बिना किसी अपेक्षा के करता है और न ही इसमें उसे कोई आनंद मिलता है न हीउसके पुण्य में इस से कोई ह्रास होता है.
अष्टक का अगला प्रश्न था ज्ञानी और तपस्वी में कौन पहले ब्रह्म प्राप्तकरता है?
"ज्ञानी वेद अध्ययन से जान जाते हैं कि" ययाति ने कहा "जो कुछ भी संसार में दिख रहा है वह माया है, और वे परमात्मा को शीघ्र प्राप्त कर लेते हैं. योग और ध्यान मार्ग पर चलने वालों को इसे समझने में देर लगती है. इस तरह ज्ञान से मुक्ति पहले मिलती है. पर यदि किसी कारणसे योगी को एक जन्म में मुक्तिनहीं मिल पाती है तो अगले जन्म में उसे पूर्व जन्म के योग का लाभ मिलता है. ज्ञानी अनश्वर सत्य को जानते हुए, निष्काम भाव से सांसारिक सुखों में डूबे रह कर भी ह्रदय में सत्य से विचलित नहीं होते और मुक्ति केअधिकारी बनते हैं. जिन्हे यह ज्ञान नहीं मिला पाता हैं उन्हें भक्ति और यज्ञ आदि करने चाहिए. पर मुक्ति की अभिलाषा से किये धर्म कर्म से मुक्ति नहीं मिलती."
यह सब सुन कर अष्टक नेपूछा कि उसके लिए, अर्थात अष्टक के भोगने के लिए,देवलोक में कोई क्षेत्र हैं या नही.ययाति ने उसे विश्वास जिलाया कि उसके लिए देवलोक में उतने ही क्षेत्र हैं जितने भूलोक पर गायें औरअश्व हैं. यह सुन अष्टक की प्रतिक्रिया थी कि "यदि मेरे धर्म कर्म से, मेरे तपो बल से देवलोक में मेरे लिए क्षेत्र हैं तो वह सब मैं राजन आप को दे रहा हूँ और आपको देवलोक से गिरने की कोई आवश्यकता नहीं."
"पर दान तो कोई ब्राह्मण ही ले सकता है" ययाति ने कहा "मैं नहीं ले पाउँगा तुम्हारा यह दान. मैंने स्वयं बहुत कुछ दान में दिया है. मैं दान स्वीकार करने का कलंक नही ले सकता."
ययाति का दूसरा दौहित्र प्रतर्दन भी वहीं था. उस ने भी पूछा कि उसके भोगने के लिए स्वर्ग में कोई क्षेत्र हैं या नहीं. ययाति के बताने पर कि प्रतर्दन के लिए भी असंख्य क्षेत्र हैं प्रतर्दन ने भी उन्हें ययाति को दे दिए. और कहा "अब आप को और नीचे नहीं गिरना है"
पर ययाति ने फिर वहीं बात कही. कोई राजा दान नहीं ले सकता. और योग और तप से अर्जित पुण्य तो कभी नहीं.
ययाति के ऐसे कहने पर उसके तीसरे दौहित्र वसुमत ने और चौथे दौहित्र शिवि ने भी वैसा ही कहा.उन्होंने राजा को अपने पुण्य बेचने का भी प्रस्ताव दिया. वसुमत एक तिनके बदले अपने सारे पुण्य अपने नाना को दे देना चाहता था पर ययाति ने इसे अनुचित व्यापार कह इस प्रस्ताव को भी स्वीकार नहीं किया.
तब तक आकाश में पांच स्वर्ण मंडित रथ प्रकट हुए. ययाति के दौहित्रों ने उस से उन रथों के विषय में पूछा और यह सुन के ये रथ देवलोक को ले जाते हैं पांचो उन रथों पर आसीन हो देवलोक को प्रस्थान कर गए.
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