Thursday, 21 May 2015

आदि पर्व (28): कौरवों के जन्म

जनमेजय ने गांधारी के सौ पुत्रों की सुन वैशम्पायन से पूछा था “कितने वर्षों में गांधारी ने अपने सौ पुत्रों को जन्मा था? और धृतराष्ट्र अपनी पतिव्रता पत्नी के साथ कैसा व्यवहार करता था? उस की वह वैश्य पत्नी कौन थी जिस से उसे एक पुत्र हुआ था? और पांडु के शापित होने के बाद उसे पुत्र कैसे हुए? अपने पूर्वजों के विषय में जानने की मेरी इच्छा अभी समाप्त नहीं हुई है.कृपया यह सब आप मुझे विस्तार से सुनायें”

वैशम्पायन कहता है:

एक बार गांधारी के सत्कार से प्रसन्न हो वेदव्यास ने उसे मन चाहा वर दिया. गांधारी ने एक सौ प्रतापी पुत्र मांगे और व्यास "ऐसा ही होगा" कह चल पड़े. कुछ समय पश्चात गांधारी ने गर्भ धारण किया. दो वर्षों तक गर्भ रखने के बाद भी उस ने कुछ नहीं जन्मा. इस बीच कुंती ने एक अत्यंत तेजस्वी बालक को जन्म दिया. कुंती के पुत्र की सुन गांधारी बहुत कुंठित हो चली थी और क्षोभ में उस ने अपने पेट पर बहुत जोर से प्रहार किया. इस आघात से उसका गर्भ गिर गया, दो वर्षों के बाद लौह कंदूक की तरह कठोर एक मांस पिंड निकला था उस के पेट से. दुखी गांधारी ने अपनी दासियों से उस पिंड को फेंक आने को कहा. पर तब तक व्यास वहां पहुँच गए. वे अपनी दिव्य  दृष्टि से मांस पिंड के जनन को जान गए थे.

"यह क्या किया आप ने गांधारी?"  व्यास ने दुःखी स्वर में पूछा
"मैं थक गयी थी अपना गर्भ ढोते ढोते" गांधारी ने सच सच बताया "और सुना कि कुंती ने सूर्य के सामान देदीप्यमान बालक को जन्म दिया है तो मैं अपने आप को रोक नहीं पायी"

"मेरी बात कभी झूठी नहीं होती, आपको धैर्य रखना चाहिए था" व्यास ने कहा फिर उन्होंने एक सौ घी से भरे घड़े मंगवाए और मांस पिंड पर शीतल जल का छिड़काव करवाया.  जल छिड़कने के थोड़ी देर बाद वह मांस पिंड सौ भागों में बँट गया. व्यास घी से भरे हर घड़े में पिन्ड के एक भाग को डालने लगा. जिस समय व्यास यह कर रहा था उस समय गांधारी सोचने लगी “कृष्ण द्वैपायन की बात सच हो कर रहेगी और मुझे सौ पुत्र अवश्य होंगे किंतु कितना अच्छा होता यदि इन सौ पुत्रों के साथ मुझे एक पुत्री भी होती. पुत्री होने से महाराज धृतराष्ट्र मरणोपरांत उन क्षेत्रों में भी जा पाएँगे जहाँ बस वही जाते हैं जिनकी पुत्री के पुत्र हुए हों. और यदि मुझे पुत्री नहीं हुई तो मैं वह स्नेह कभी नहीं जान पाऊँगी जो किसी पुत्री की मां को अपने जामाता के लिए होता है. यदि मैने अपने जीवन में कुछ भी तप किए हों, कुछ भी दान धर्म किए हों तो प्रभु मुझे एक पुत्री भी दे दें”

तब तक व्यास ने, जो स्वयं हर घड़े में पिन्ड के एक एक भाग को रख रहा था, गांधारी से कहा “इन सौ घड़ों में तुम्हारे सौ पुत्र हैं. मेरी बात असत्य नहीं होगी. पर अभी उस पिंड का एक भाग बचा हुआ है. यही समय आने पर तुम्हे दौहित्र (पुत्री का पुत्र) देगा.”  व्यास ने तब घी से भरा एक और घड़ा मँगवाया और उस घड़े में पिन्ड के अंतिम बचे भाग को रख कर घड़े को बंद करवा दिया.  सभी घड़ों को अच्छी तरह बंद कर महल के किसी सुरक्षित भाग में रखवा दिया गया. घड़ों के ढक्कन दो वर्ष के पहले नहीं हटाने को कह व्यास अपने आश्रम की ओर निकल गए.

समय आने पर इन्ही घड़ों में से एक से दुर्योधन का जन्म हुआ. दुर्योधन और पाण्डु-पुत्र भीम के जन्म एक ही दिन हुए थे. जन्म लेते ही दुर्योधन गधे के सुर में रोने और रेंकने लगा था. उसे सुन गधे, गिद्ध,शृगालऔर कौव्वे  भी, प्रत्युत्तर में मानो, जोर जोर से बोलने लगे थे. बहुत तेज हवा चलने लगी थी और कई स्थानो परआग भी लग गयी थी. इन अशुभ लक्षणों से धृतराष्ट्र भी डर गया था. उस ने भीष्म, विदुरऔर अनेक ज्ञानी ब्राह्मणों की एक सभा बुलवाई. यह मानते हुए कि युधिष्ठिर सब से बड़ा है और इस तरह राजा बनने का अधिकारी वही है, उस ने  अपने पुत्र दुर्योधन के विषय में पूछा."क्या मेरा ज्येष्ठ पुत्र राजा बन सकता है? मैं मात्र यह जानना चाहता हूँ कि आप के विचार से सत्य और विधि सम्मत क्या होगा?" 

धृतराष्ट्र की बात समाप्त होते ही  शृगाल और गिद्ध फिर बोलने लगे. ब्राह्मणों नेकहा "इन अशुभ लक्षणों से तो यही लग रहा है कि दुर्योधन कुल का नाश करेगा. इस बालक को छोड़ देने में ही सब की भलाई है. राजन, यदि आप इसे छोड़ दें तो भी आप के निन्यानबे पुत्र बचे रहते हैं. यदि आप अपने राजवंश  की वृद्धि चाहते हैं  तो इस बालक का परित्याग करने की सोचें".

ब्राह्मणों और विदुर के ऐसे प्रवचन के बाद भी पुत्र प्रेम के चलते धृतराष्ट्र अपने ज्येष्ठ पुत्र का परित्याग नहीं कर पाये. एक सौ एक घड़ों से धृतराष्ट्र और गांधारी के एक सौ पुत्र और एक पुत्री हुई थी. इनकेअतिरिक्त गांधारी जब गर्भवती थी उस समय जो दासी धृतराष्ट्र की सेवा कर रही थी उससे भी धृतराष्ट्र को एक पुत्र हुआ था - युयुत्सु. इस दासी पुत्र को ले कर धृतराष्ट्र कि कुल संतान थीं एक सौ एक पुत्र और एक पुत्री. 

वैशम्पायन ने तब जनमेजय के अनुरोध पर कौरवों केउनके जन्मके क्रम में नाम बताए: दुर्योधन, युयुत्सु, दुःशासन, दुःसह, दुःशल, जलसन्ध, सम, सह, विन्द, अनुविन्द, दुर्धर्ष, सुबाहु, दुष्प्रधर्षन, दुरमर्शन, दुर्मुख, दुश्कर्ण, कर्ण, विविंशति, विकर्ण, शल, सत्व, सुलोचन, चित्र, उपचित्र, चित्राक्ष, चरुचित्र, शरासन, दुर्माद, दुष्प्रगाह, विवित्सु, विकाटानन, ऊर्णनाभ, सुनभ, नंद, उपनंदक, त्रबाण, चित्रवर्मा, सुवर्मा, दुर्विमोचन, अयोबाहु, महाबाहु, चित्रांग, चित्रकुंडल, भीमवेग, भीमबल, बलाकी, बलवर्धन, उग्रायुध, भीम, कर्ण, कनकायु, दृढयुध, दृढ़वर्मा, दृढ़क्षत्र, सोमकीर्ति, अनुदार, दृढ़संध, जरासंध, सत्यसंध, सद, सुवाक, उग्रश्रवा, अश्वसेन,  सेनानी, दुष्पराजय, अपराजित, पंडितक, विशालक्ष, दुर्वार, दृढ़हस्त, सुहस्त, वातवेग, सुवर्चस, अदित्यकेतु, वाहवाशी, नागदंत, अग्रयायी, कवची, निषंग, पाश, दंडधर, धनुर्ग्रह, उग्र, भीमरथ, वीरबाहु, अलोलुप, अभ, रौद्रकर्मण, दृढ़रथ, अनदृश्य, कुंडभेदी, विरावी, दीर्घलोचन, प्रमथ, प्रमथि, दिर्घर, व्युढोरु, कनकध्वज, कुंडाशीऔर वीरज. (1)

इन एक सौ एक पुत्रों के अतिरिक्त धृतराष्ट्र कोएक पुत्री दुःशाला भी हुई थी. सब पुत्रों के योग्य स्त्रियों से विवाह हुए थे.दुःशाला का विवाह सिंधु प्रदेश के राजा जयद्रथ से हुआ था.




(1) नामों में भिन्न पाठों में बहुत अंतर हैं.

Wednesday, 20 May 2015

आदि पर्व (27): पांडु के विवाह और विश्वविजय

वैशम्पायन कह रहा है:

धृतराष्ट्र, पांडु और विदुर के जन्मों के बाद कुरुजंगल, कुरुक्षेत्र और कुरुओं की समृद्धि वापस आ गयी. समय पर अनुकूल वर्षा होने लगी, कृषकों के उत्पाद बढ़ने लगे, वृक्ष फलों और फूलों से भर गये, शिल्पियों को काम की कमी नहीं रही और व्यापारियों से नगर भर गये. रत्नाकर की तरह भरा पूरा परिपूर्ण हस्तिनापुर अपने महलों और परकोटों के चलते एक दूसरा अमरावती लगने लगा. कहीं कोई कृपण नहीं था, स्त्रियाँ विधवा नहीं होती थीं. जलाशय जल से भरे रहते थे और ब्राह्मणों के घर धन संपदा से. प्रजा के उल्लास को देख कर लगता था जैसे पूरे राज्य में बारहो महीने कोई महोत्सव मनाया जा रहा हो.

धृतराष्ट्र, पांडु और विदुर को भीष्म ने अपनी संतान की तरह पाल पोस कर बड़ा किया.  समय पर उनके वर्णानुकूल संस्कार हुए और उपयुक्त शिक्षा दी गयी. वेद, धनुर्विद्या, अश्वारोहण, गदा युद्ध, अर्थ और राज नीति, पुराण, इतिहास आदि अनेक विधाओं में वे पारंगत हो गये. पांडु महान धनुर्धारी बना, धृतराष्ट्र में अपार बल रहा और विदुर अपने समय के अद्वितीय धर्मज्ञ के रूप में उभरा.   समय आने पर पांडु हस्तिनापुर का राजा बना. धृतराष्ट्र अपनी दृष्टिहीनता के चलते और विदुर शूद्र माता से जन्म लेने के चलते राजा बनने के लिए उपयुक्त नहीं समझे गये थे.

धृतराष्ट्र और पांडु के विवाह के लिए भीष्म ने उच्च कुलों की रूपवती कन्याओं की खोज शुरू कर दी थी. तीन कन्यायें उसे सर्वाधिक उपयुक्त लगीं – यादव राजा शूरसेन की पुत्री पृथा, सुबल की पुत्री गांधारी और मद्रदेश की राजपुत्री माद्री.  इस बीच ब्राह्मणों से भीष्म को पता चला कि सुबल-पुत्री ने भगवान शिव को प्रसन्न कर एक सौ पुत्रों की माता बनने का वर प्राप्त किया है. सौ पुत्रों की सुन कर भीष्म ने तुरंत अपने संदेश वाहक सुबल के पास भेजे. दृष्टिहीन धृतराष्ट्र के हाथ अपनी पुत्री देने से सुबल हिचकिचा रहा था किंतु कुरू वंश की महानता और संपन्नता सोच वह तैयार हो गया. उस का होने वाला पति दृष्टिहीन है यह पता चलते ही गांधारी ने उस के सम्मान और स्नेह में अपनी आँखों पर सदा के लिए पट्टी बाँध ली. सुबल का पुत्र शकुनी अपनी बहन के साथ हस्तिनापुर आया था, जँहा उस ने विधिवत धृतराष्ट्र के हाथों अपनी बहन को सौंप विवाह संपन्न कराया.

पांडु की पत्नी के लिए भीष्म ने यादव राजपुत्री पृथा को चुना था. वसुदेव के भाई यादव राजा शूरसेन था. उस का फुफेरा भाई राजा कुन्तिभोज बहुत दिनों तक निस्संतान रहा था. शूरसेन ने अपनी पहली संतान कुन्तिभोज को देने के वचन दिए थे. इस तरह उस की पहली पुत्री पृथा राजा कुन्तिभोज के महल में उस की दत्तक पुत्री कुंती के रूप में बड़ी हुई. पृथा में रूप और गुण दोनो भरे थे.  कुन्तिभोज ने उस के विवाह के लिए स्वयंवर का आयोजन किया, जिस में कुंती ने पांडु के गले में वरमाल डाल उसे अपना पति वरा. स्वयंवर में आए अन्य राजाओं के लौटने के बाद कुन्तिभोज ने पृथा और पांडु का विवाह आयोजित किया जिस में कुरु-कुमार और कुन्तिभोज की पुत्री इंद्र और पौलोमी से कम नहीं लग रहे थे. विवाह के बाद ब्राह्मणों के आशीर्वचनों और चारणों की स्तुति के बीच नव दंपति हस्तिनापुर आए.

कुंती के साथ पांडु के विवाह के कुछ दिनों बाद, पांडु के लिए एक और रानी लाने की सोच भीष्म ब्राह्मणों और अपनी चतुरंगी सेना के साथ बाह्लिक क्षेत्र में मद्र देश के राजा शल्य के पास गया. भीष्म के आगमन की सुन मद्र-राज ने, नगर के बाहर उस का स्वागत कर सम्मान पूर्वक उसे अपने महल में ला कर, उस के आने का उद्देश्य जानना चाहा. भीष्म ने उस से उसकी बहन माद्री की चर्चा की. माद्री विख्यात सुंदरी थी और उतनी ही सुशीला भी. भीष्म ने कहा “आप का वंश राजन, हर दृष्टि से हमारे लिए संबंध करने योग्य है और हम भी आप के लिए संबंध करने योग्य हैं. मैं राजा पांडु के लिए आप से माद्री के हाथ माँगने आया हूँ”

शल्य सहमत लगा. “मैं आप के परिवार को छोड़ किसी को नहीं देख पाता हूँ", शल्य ने कहा “जहाँ मैं अपनी बहन दे पाऊँ. किंतु राजन, हमारे परिवार की एक परंपरा है. अच्छी या बुरी जो भी हो वह प्राचीन परंपरा है जिस का उल्लंघन मैं नहीं कर सकता. आप भी उस परंपरा से परिचित होंगे. आप का इस तरह माद्री का हाथ माँगना उचित नहीं है.”

“किंतु राजन, यह परंपरा बुरी क्यों कही जाएगी” भीष्म ने कहा “आप के पूर्वजों ने एक प्राचीन परंपरा को जीवित रखा है. इस में कोई दोष नहीं है” और यह कहते हुए उस ने शल्य को बहुत सारी स्वर्ण मुद्रायें और स्वर्ण खंड दिए. “बाहर आप के लिए हाथी, घोड़े और रथ भी मैं ने ला रखे हैं. एक रथ पर मोतियों और मूंगों से भरे कुछ थैले भी आप के लिए हैं”.
इतने उपहारों को देख शल्य ने प्रसन्न हो अपनी बहन को आभूषणों से लाद, पांडु से विवाह के लिए हस्तिनापुर जाने दिया.   विवाह के बाद तीस दिनों तक अपनी दोनो पत्नियों के साथ  अंतःपुर में विहार-मग्न रह कर महाबाहु पांडु ने विश्व विजय पर निकलने की सोची.

भीष्म के चरणस्पर्श कर, धृतराष्ट्र और विदुर से विदा माँग एक विशाल सेना के साथ पांडु अपने महा अभियान पर निकला. पूर्व दिशा में बढ़ते हुए सबसे पहले उस ने दशार्णों पर विजय पाई. वहाँ से वह मगध की राजधानी राजगृह गया. मगध के राजा (दीर्घ ?) का वध कर पांडु ने उस के राजकोष, रथ और पशुओं को ले कर मिथिला की ओर प्रस्थान किया.  विदेह जीतने के बाद उस ने काशी, सुंभ, और पुंड्र पर भी अपने पराक्रम की ध्वजा लहराई. आगे बढ़ते हुए उस ने सभी राजाओं को अपने अधीन किया और पृथ्वी पर अपनी वही स्थिति बना ली जो स्वर्ग लोक में इंद्र की है – निर्विवादित नृपेश.

पराजित राजाओं ने पांडु को रत्न, स्वर्ण, मणि, मुक्ता आदि से लाद दिया. अपने अभियान से अकूत संपत्ति जीत कर पांडु हस्तिनापुर पहुँचा. उस की समृद्धि देख उत्साहित नागरिकों को राजा शांतनु के दिन याद आ गए जब इसी तरह पूरे भारतवर्ष के राजा हस्तिनापुर का आधिपत्य स्वीकार करते थे.

भीष्म की अगवानी में सबों ने नगर के बाहर अपने विजयी राजा का स्वागत किया. युद्ध से जीते धन – वैभव से लदे रथों, हाथियों और ऊंटों की कतार का अंत नहीं दिख रहा था.  पांडु ने भीष्म के चरण स्पर्श कर आशीष माँगे और नगाड़ों की तुमुल ध्वनि के बीच हस्तिनापुर में प्रवेश किया.

धृतराष्ट्र के निर्देश पर पांडु ने अपने बाहुबल से अर्जित धन को भीष्म, सत्यवती, अपनी माताओं और विदुर में बाँट दिये. कुरू वंश के सभी ज्येष्ठ उस से बहुत प्रसन्न हुए. अंबालिका की प्रसन्नता असीम थी. उस ने पांडु को वैसे ही गले लगाया जैसे कभी शची ने जयंत को लगाया था.

कुछ समय बाद पांडु अपनी दोनो रानियों के साथ, हस्तिनापुर के राज प्रासाद छोड़  वन में रहने चला गया. हिमालय के दक्षिणी भाग में शाल वृक्षों से आच्छादित एक पहाड़ी पर उस ने अपना घर बनाया, जहाँ उस का सारा समय मृगों के आखेट में या अपनी पत्नियों के साथ वन-भ्रमण में बीतता था.

इस बीच गंगा से भीष्म को पता चला कि राजा देवक के अपनी एक शूद्र पत्नी से बहुत रूपवती और सुशीला पुत्री है. भीष्म ने उस कन्या को अपने पिता के घर से ला कर विदुर के साथ उसका विवाह सम्पन कराया. और समय आने पर धर्मज्ञ विदुर के भी उसी के समान शिष्ट और गुणवान अनेक पुत्र हुए.

आदि पर्व (26): धृतराष्ट्र और पाण्डु के जन्म

दीर्घतमस और राजा बलि का प्रकरण सुना कर भीष्म ने वंश चलाने के लिए किसी योग्य ब्राह्मण को समुचित धन दे कर, उसके द्वारा  विचित्रवीर्य की दोनो रानियों से पुत्र उत्पन्न कराने का सुझाव दिया. भीष्म की बात सुन सत्यवती ने सलज्ज स्वर में कौमार्यावस्था में पराशर से उत्पन्न हुए अपने पुत्र द्वैपायन के विषय में बताया. “द्वैपायन जन्म के तुरंत बाद मुझे छोड़ कर वेदाध्ययन करने निकल गया था. उस ने वेदों का पुनर्संकलन किया है और अब वह वेद व्यास कहलाता है. जाते जाते उस ने मुझ से कह रखा था कि जब भी मुझे उस की आवश्यकता हो मैं बस उसका स्मरण कर उसे बुला सकती हूँ.    
“यदि उस ऋषि से हम भरत वंश चलाने के लिए दोनो रानियों से पुत्र उत्पन्न करने की प्रार्थना करें तो वह हमारी बात नहीं उठाएगा.” 

वेद व्यास का नाम सुन कर भीष्म ने अपने हाथ जोड़ कर कहा “जो धर्म, अर्थ और काम तीनो पर विचार कर ऐसे कर्तव्य करे कि भविष्य में धर्म और अधिक धर्म दे, अर्थ और अधिक अर्थ दे और काम और अधिक कामसुख दे, वही वास्तव में बुद्धिमान है. अभी जो तुम ने कहा है, माँ, उस में हमारा कल्याण है, वह धर्म संगत भी है और मैं इस का पूर्ण समर्थन करता हूँ”.

सत्यवती ने तब व्यास का स्मरण किया. व्यास उस समय वेदों की व्याख्या में व्यस्त था. अपनी शक्ति से वह जान गया कि उसकी माँ उसे बुला रही है, और वह सब कुछ छोड़ हस्तिनापुर राजमहल में प्रकट हो गया – काला, कुरूप और समय से पहले वृद्ध. सत्यवती  उसे गले लगा कर रोने लगी. व्यास के पूछने पर सत्यवती ने उसे बुलाने का उद्देश्य बताया. “महाराज शांतनु का पुत्र विचित्रवीर्य बिना कोई उत्तराधिकारी छोड़े स्वर्ग सिधार गया है.उस का यह भाई भीष्म अपनी प्रतिज्ञा के चलते न तो सिंहासन पर बैठेगा न ही हस्तिनापुर के लिए कोई उत्तराधिकारी उत्पन्न करेगा. यदि कुछ नहीं किया गया तो हस्तिनापुर में अराजकता छा जाएगी. जैसे भीष्म पिता के पक्ष से विचित्रवीर्य का भाई है वैसे ही तुम माता के पक्ष से उस के भाई हो. तुम मेरे ज्येष्ठ पुत्र हो जैसे विचित्रवीर्य मेरा कनिष्ठ पुत्र था.    
“भीष्म की प्रार्थना और मेरा आदेश है कि विचित्रवीर्य की दोनो पत्नियों से तुम एक एक पुत्र उत्पन्न करो. इस से सभी प्राणियों का कल्याण होगा, प्रजा की रक्षा होगी और देव-पुत्री समान दोनो रानियों के गोद भरेंगे”.

“तुम जो चाहती हो माँ”, व्यासने कहा, “वह सर्वथा धर्म संगत हैं, ऐसा पहले भी कई बार हुआ है, और मैं धर्म की रक्षा के लिए अवश्य तुम्हारे आदेश का पालन करूँगा.  मैं अपने दिवंगत भाई को वरुण और मित्र के समान पुत्र दूँगा. बस दोनो स्त्रियों को मेरे बताए व्रत का एक वर्ष तक पालन करने दो. जिस स्त्री ने कठोर व्रत नहीं किए हुए हों वह मेरे निकट नहीं आ पाएगी”.

“लेकिन व्यास, उतना समय कहाँ है?” सत्यवतीने कहा. “जिस राज्य में राजा नहीं रहता वहाँ की अरक्षित प्रजा का नाश हो जाता है, वहाँ यज्ञ नहीं हो पाते हैं और उस राज्य के ऊपर से बादल बिना बरसे निकल जाते हैं.”  

“यदि ऐसी आकुलता में मुझे अपने भाई को पुत्र देने हैं तो रानियों को मेरी यह कठोर कुरूपता सहनी पड़ेगी” व्यास ने कहा “मेरे इस रूप और मेरे दुर्गंध को सह पाना किसी कठिन व्रत से कम नहीं है. रानियों से कह दो कि वे शुभ वस्त्र और आभूषण धारण कर अपने शयन कक्ष में मेरी प्रतीक्षा करें.”

यह कह व्यास अदृश्य हो गया और सत्यवती अपनी पुत्र वधुओं को एकांत में सारी व्यवस्था समझाने चली. रानियाँ इस के लिए तैयार नहीं थीं किंतु सत्यवती ने बहुत धैर्य से बार बार आग्रह कर भरत वंश को नहीं मरने देने के लिए उन्हे सहमत कर लिया.  सत्यवती ने उन्हे व्यास का नाम नहीं बताया था बस यह कहा था कि विचित्रवीर्य के कोई ज्येष्ठ उनसे पुत्र उत्पन्न करेंगे.

उचित समय पर अंबिका अपने शयन कक्ष में ज्येष्ठ की प्रतीक्षा कर रही थी. “कौन हो सकता है यह?” वहसोच रही थी “भीष्म या कोई और वृद्ध कुरू?”  कक्ष में दीपक जल रहा था, अचानक व्यास ने प्रवेश किया.  व्यास कुरूप था, कठोर मुख , उलझी जटा, अस्त-व्यस्त दाढ़ी और धधकती हुईं आँखें थीं उसकी. अंबिका उसे नहीं देख पाई और भय से उस ने अपनी आँखें बंद कर लीं. कक्ष से बाहर निकलने पर व्यास ने सत्यवती को खड़ा पाया.
“पुत्र होगा इसे?” सत्यवाती नेपूछा.
“हाँ” व्यास ने कहा, “दस सहस्त्र हाथियों का बल रखने वाले राजर्षि पुत्र को यह जन्म देगी, और उस पुत्र के, समय आने पर, अपने एक सौ पुत्र होंगे. किंतु यह पुत्र दृष्टिहीन होगा”
“पर व्यास” सत्यावती ने कहा “कुरुओं के राजसिंहासन पर कोई दृष्टिहीन कैसे बैठ सकेगा? कुरूवंश को एक और पुत्र चाहिए, तुम दूसरी रानी को भी एक पुत्र दो”.

उचित समय पर व्यास विचित्रवीर्य की दूसरी पत्नीअंबालिका के पास भी गया. अंबालिका को भय से पीली होती देख व्यास ने कहा “मुझे देख कर तुम पीली पड़ गयी हो इसीलिए तुम्हे पीत वर्ण का पुत्र होगा. उसका नाम भी पांडु (अर्थात पीत, विवर्ण) रहेगा.

सत्यवती ने उसे फिर एक बार प्रयास करने को कहा. व्यास ने अपनी माँ की बात नहीं उठाई. किंतु जब सत्यवती ने अंबिका को दुबारा ऋषि के साथ रहने को कहा तो अंबिका ने, उसके विकट रूप को याद कर, अपने बदले अपनी एक दासी को अपने शयन कक्ष में बिठा दिया. व्यास के आने पर उस दासी ने उठ कर ऋषि का सत्कार किया और व्यास ने जाते समय उस से कहा था “तुम अब दासीनहीं रहोगी. तुम एक बहुत विद्वान और धार्मिक पुत्र को जन्म दोगी”

बाहर निकलने पर सत्यवती फिर खड़ी मिली. अंबिकाने अपने बदले अपनी दासी को भेजा था,यह बता कर व्यास विलुप्त हो गया.  समय पूरा होने पर उस दासी ने विदुर को जन्म दिया था. विद्वान विदुर के रूप में मान्डव्य ऋषि के शाप के चलते धर्मराज ने पृथ्वी पर शूद्र वर्ण में जन्म लिया था (1). विदुर धर्मज्ञ था उसे अर्थ और राजनीति का भी सम्यक ज्ञान था. उस में क्रोध औरलोभ का लेश भी नहीं था. अपनी दूरदृष्टि और अपने शांत स्वभाव से वह बस कुरुओं के कल्याणकी सोचता रहता था.

“और इस तरह” वैशम्पायन ने जनमेजय को कहा “भरत के वंश को चलाने के लिए धृतराष्ट्र और पांडु के जन्म हुए थे.”





(1) धर्मराजके शापित होने का प्रकरण आदिवंशावतरण पर्व (1) में है: लिंक 

Tuesday, 19 May 2015

आदि पर्व (25): विचित्रवीर्य और दीर्घतमस

शांतनु और सत्यवती के दो पुत्र हुए, चित्रांगद और विचित्रवीर्य.  विचित्रवीर्य बालक ही था जब उस के पिता काल कवलित हो गये.  शांतनु के देहावसान पर चित्रांगद हस्तिनापुर का राजा बना. चित्रांगद ने अपने राज्याभिषेक के शीघ्र बाद सभी राजाओं पर विजय प्राप्त कर ली थी और अपने समय में सब से पराक्रमी राजा माना जाने लगा था. उस के सामने कोई मनुष्य या असुर नहीं टिक सकता था. उस की बढ़ती शक्ति देख चित्रांगद ही नाम के एक गंधर्व ने एक दिन उसे युद्ध के लिए ललकारा. कुरुक्षेत्र में सरस्वती के किनारे दोनो चित्रांगद तीन वर्षों तक लड़ते रहे. अंत में मायावी  गंधर्व शांतनु-पुत्र पर भारी पड़ा और तीन वर्षों के बाद राजा चित्रांगद को युद्ध में मार कर वह गंधर्व  लोक को वापस लौट गया.

अपने भाई की अंत्येष्टि कर भीष्म ने बालक विचित्रवीर्य को हस्तिनापुर का राजा बनाया. शासन का सारा भर अपनी माता सत्यवती की इच्छा से भीष्म स्वयं संभाल रहा था. विचित्रवीर्य के वयस्क होने पर भीष्म को उस के विवाह की चिंता होने लगी. उन्ही दिनो काशी नरेश ने अपनी तीन पुत्रियों के लिए एक संयुक्त स्वयंवर आयोजित किया था. उसकी तीनो पुत्रियाँ, अंबा, अंबिका और अंबालिका बहुत रूपवती थीं और संपूर्ण भारतवर्ष के राजा उस स्वयंवर में भाग लेने काशी पहुँचे थे. भीष्म भी स्वयंवर स्थल पर पहुँचा, और उस ने घोषणा की कि वह तीनो को अपने भाई के लिए ले जा रहा है. ऐसा कह उस ने तीनो बहनों को बलात अपने रथ में बिठाया और वहाँ उपस्थित राजाओं को ललकारते हुए चल पड़ा.

भीष्म को इस तरह तीनो का अपहरण करते देख स्वयंवर में आए राजा बहुत कुपित हुए और अपने आभूषण उतार, कवच आदि धारण करउस के विरोध में खड़े हो गये. किंतु भीष्म के आगे उन की एक नहीं चली. उन्हे निष्क्रीय कर भीष्म कुछ आगे बढ़ा था जब पीछे से शल्य की ललकार सुनाई पड़ी –“रुको और युद्ध करो.”  भीष्म रुक गया, स्वयंवर में आए सभी राजा उन दोनो के युद्ध के मूक दर्शक बन खड़े हो गए. भीष्म ने शल्य के रथ के चारो घोड़ों को मार उस के सारथी  के भी प्राण हर लिए. किन्तु शल्य को उस ने छोड़ दिया.  पराजित शल्य अन्य राजाओं के साथ वापस लौटा.

सभी राजाओं को पराजित कर भीष्म उन तीनो राजपूत्रियों को ऐसे स्नेह के साथ हस्तिनापुर ले आया जैसे वे उसकी अपनी पुत्रियाँ हों. उन्हे देख सत्यवती और विचित्रवीर्य की प्रसन्नता की सीमा नहीं रही और एक शुभ मुहूर्त में राजा विचित्रवीर्य के विवाह की तैयारियाँ होने लगीं. इस बीच काशी नरेश की बड़ी पुत्री ने एक दिन ब्राह्मणों की उपस्थिति में भीष्म से कहा “स्वयंवर में मैं सौभ नरेश को वरने जा रही थी. हम ने पहले से यह निश्चित कर लिया था और मेरे पिता को भी इस की जानकारी थी. आप धर्मज्ञ हैं, यह जान कर आप जो उचित समझें वह करें”. अंबा की बात सुन भीष्म ने वेदज्ञ ब्राह्मणों से मंत्रणा की और ब्राह्मणों, अंगरक्षकों और दासियों के साथ अंबा को ससम्मान सौभ-पति के पास भिजवा दिया.

नियत समय पर विचित्रवीर्य का विवाह सम्पन हुआ.दोनो रानियाँ अप्सराओं सदृश सुंदरी थीं और राजा भी अश्विनिकुमारों से कम सुदर्शन नहीं था.  युवा राजा अपनी दोनो पत्नियों से इतना प्रसन्न था कि अगले सात वर्षों तक वह अंतःपुर से बाहर नहीं निकला. किंतु प्रारब्ध से उसका यह सुख देखा नहीं गया और विवाह के आठवें वर्ष में विचित्रवीर्य यक्ष्मा से ग्रस्त हो गया. सभी उपचार किये गये पर ज्ञानी वैद्यों के अथक प्रयास भी उसे नहीं बचा पाए; और एक दिन बिना कोई उत्तराधिकारी छोड़े विचित्रवीर्य स्वर्ग सिधार गया.  रोते मन से, युवा रानियों ने सत्यवती और भीष्म के साथ विचित्रवीर्य के प्रेत कार्य पूरे किए.

राजा पुरु के प्राचीन वंश को अब नष्ट होते देख सत्यवती ने भीष्म से हस्तिनापुर का राजा बन कर विवाह कर वंश को बढ़ाने की प्रार्थना की.  “महाराज शांतनु का वंश अब तुम्ही बचा सकते हो” सत्यवती ने कहा “वेद वेदांगों केज्ञान में तुम वृहस्पति और शुक्र से कम नहीं हो. अपने परिवार की परंपराओं के भी तुम्हे पूरे ज्ञान हैं. आवश्यकता पड़ने पर, संकट काल में, युक्ति का संबल लेना पड़ता है. अल्पायु में मेरा पुत्र, तुम्हारा भाई,स्वर्ग सिधार गया है. उस की पत्नियाँ पुत्र चाहती हैं, यह प्रतापी वंश भी पुत्र चाहता है जिस से यह चल पाए.
“सब कुछ देखते हुए मैं तुम्हे आज्ञा देती हूँ कि तुम दोनो रानियों से पुत्र उत्पन्न करो और हस्तिनापुर के राजा बन अपने लिए एक रानी लाओ”

सत्यवती ने वंश की रक्षा के लिए, कुरूकुल को नरक से बचाने के लिए भीष्म से यह कहा था. पर ऐसा कहते समय वह भीष्म कीअपरिमित सत्य-निष्ठा को भूल गयी थी. माता की बात सुन भीष्म ने स्पष्ट शब्दों में मना कर दिया.  “जो आप कह रहीं हैं माँ” भीष्म ने कहा “वह सर्वथा धर्म संगत है. किंतु आपने मेरे आजन्म ब्रह्मचर्य की शपथ भी सुन रखी होगी.  चाहे मिट्टी अपनी सुगंध खो दे या जल अपनी नमी खो दे,  चाहे सूर्य अपना ताप खो बैठे या चंद्रमा अपनी शीतलता,  मैं अपने वचन से कभी  नहीं हट सकता. मैं तीनो लोकों को छोड़ सकता हूँ, मैंस्वर्ग का आधिपत्य भी छोड़ सकता हूँ किंतु सत्य का साथ मैं कभी नहीं छोड़ सकता.
“इंद्र कभी शक्तिहीन हो सकता है,  धर्म राज कभी न्याय को भूल सकते हैं किंतु मैं अपने वचन कभी नहीं भुला सकता”.

सत्यवती इतनी सरलता से मानने वाली नहीं थी. “मैं तुम्हारा सत्य-प्रेम जानती हूँ. मैं यह भी जानती हूँ कि तुमने अपनी भीष्म प्रतिज्ञा मेरे ही चलते की थी.  पर इस संकट की वेला में अपने पूर्वजों के प्रति अपने कर्तव्य तुम कैसे भूल जा रहे हो?” यह कह सत्यवती फूट फूट कर रोने लगी. भीष्म ने उसे समझाया, किसी धर्मशास्त्र में कभी भी सत्य के अतिक्रमण को उचित नहीं माना गया है. ऐसे संकट में क्या उचित होगा इस पर ज्ञानी ब्राह्मणों के साथ मिल कर निर्णय लिया जा सकता है पर स्थापित धार्मिक आचार व्यवहार को तिलांजलि नहीं दी जा सकती. भीष्म ने क्षत्रियों के इतिहास से दो उदाहरण दिए.

जमदाग्नि के पुत्र राम ने, अपने पिता की हत्या के प्रतिशोध में,  हैहय राजा अर्जुन के सहस्त्र बाहुओं को अपने परशु से काट कर उसका वध किया था. उस के बाद वह विश्व-विजय पर निकला और पृथ्वी को उस ने इक्कीस बार क्षत्रिय विहीन किया था. जबक्षत्रियों की जाति समाप्ति पर आ गयी तो क्षत्रिय स्त्रियों ने वेदज्ञ ब्राह्मणों से पुत्र उत्पन्न कराए थे. वेदों में कहा गया है कि इस तरह से उत्पन्न हुआ पुत्र उस का होता है जिस ने उस पुत्र की माता से विवाह किया था. इस तरह क्षत्रिय जाति को पुनर्जीवन मिला था.

भीष्म का दूसरा उदाहरण दीर्घतमस ऋषि का था.

प्राचीन काल में कभी उतथ्य नाम का एक ऋषि होता था. एक दिन उस के अनुज,  देव-गुरु वृहस्पति ने उतथ्य की पत्नी ममता से सहवास की इच्छा व्यक्त की. ममता ने उसे मना किया “मेरे गर्भ में उतथ्य का पुत्र पल रहा है, उस ने वेदों के अध्ययन भी कर लिए हैं,वहाँ दो प्राणियों के लिए पर्याप्त जगह नहीं है. इस लिए, वृहस्पति, तुम अभी अपनी इच्छा पूर्ति की नहीं सोचो”. पर वृहस्पति की इच्छा बहुत बलवती थी और उस ने ममता को नहीं छोड़ा. गर्भस्थ शिशु सब सुन रहा था; उस ने भी वृहस्पति को मना किया. “कक्ष छोटा है, मैं इस में पहले से हूँ, आप प्रयास नहीं करें". फिर भी वृहस्पति ने ममता को अपने आलिंगन से बाहर नहीं जाने दिया.  पर गर्भस्थ शिशु के उपद्रव से वृहस्पति के प्रयास असफल रहे और उसके बीज नीचे धरा पर गिर गये. कुपित वृहस्पति ने उसे दृष्टिहीन रहने का शाप दिया और जन्म होने पर अपनी दृष्टिहीनता के चलते वह बालक दीर्घतमस के नाम से जाना गया.

दृष्टिहीन रहने पर भी अपने ज्ञान के चलते दीर्घतमस एक स्वस्थ और सुंदर ब्राह्मण कन्या प्रद्वेषी को अपनी पत्नी बना सका. प्रद्वेषी और दीर्घतमस के अनेक बच्चे हुए जिनमें गौतम ज्येष्ठ था. दुर्भाग्य वश ऋषि के सभी पुत्र मूर्ख और लोभी निकले. उन्हे अपने पिता के प्रति कोई भक्ति नहीं थी. धीरे धीरे प्रद्वेषी भी अपने पतिके विरुद्ध हो गयी. ऋषि के पूछने पर उस ने कहा “स्वामी को भर्तृ कहा जाता है क्योंकि वह अपनी पत्नी का भरण पोषण करता है; उसे पति भी कहा जाता है क्योंकि वह अपनी पत्नी की रक्षा करता है. पर तुम इन दोनो में से कुछ भी नहीं कर पाते. तुम जन्म से दृष्टिहीन हो, मैं ही तुम्हारा और तुम्हारे पुत्रों का भरण पोषण करती हूँ. अब मैं वह सब नहीं कर पाऊंगी.

प्रद्वेषी की बातें सुन दीर्घतमस बहुत रुष्ट हुआ और उस ने उस दिन नियम बनाए “आज से कोई स्त्री बस एक ही पुरुष के साथ संबंध रख सकती है. पति जीवित हो या नहीं यदि कोई स्त्री दूसरे पुरुष से संबंध बनाएगी तो पतिता मानी जाएगी. जिस स्त्री का पति नहीं हो वह सदैव संभावित पापी समझी जाएगी. धनिक स्त्रियाँ भी अपने धन को नहीं भोग सकेंगी. उन्हे आजन्म आक्षेप झेलने पड़ेंगे और उनके विषय में लोगों की सदा नीच धारणा रहेगी".

यह सब सुन कर प्रद्वेषी ने अपने पुत्रो से उसे गंगा में फेंक आने को कहा और पुत्रों ने उसे लकड़ी के एक बेड़े से बाँध गंगा मेंबहा दिया. दृष्टिहीन, वृद्ध दीर्घतमस ने बेड़े से बँधे बँधे कई राजाओं के क्षेत्र पार कर लिए थे जब उसका बेड़ा राजा बलि से जा लगा जो गंगा में स्नान कर रहा था.  बलि निस्संतान था, जब उसे पता चला कि उसने किसे बचाया है तो उस ने दीर्घतमस से अपने लिए पुत्र उत्पन्न करवाने की सोची. किंतु उसे वृद्ध और दृष्टिहीन जान बलि की रानी सुदेष्ना ने, स्वयं उसके पास नही जा कर, अपनी एक शूद्र दासी को उसके पास भेज दिया.  दीर्घतमस और उस दासी के ग्यारह पुत्र हुए थे. एक दिन राजा ने ऋषि से पूछा “क्या ये मेरे पुत्र हैं?”

“नहीं” ऋषि ने कहा “ये मेरे पुत्र हैं. मुझे अपने उपयुक्त नहीं समझ तुम्हारी रानी ने अपनी दासी को मेरे पास भेज दिया था".  राजा ने ऋषि से पुनः पुत्र पाने की प्रार्थना की और सुदेष्ना को ऋषि के पास भेजा. ऋषि ने रानी के शरीर को स्पर्श भर किया और कहा “तुम्हे सूर्य के सदृश तेजस्वी पुत्र होगा”.समय पर सुदेष्ना ने अंग नाम के एक राजर्षि को जन्म दिया.

दीर्घतमस और सुदेष्ना के पुत्र का प्रसंग सुना कर भीष्म ने कहा “इस तरह बलि का वंश चल पाया और इसी तरह अनेक क्षत्रिय महारथियों के जन्म ब्राह्मणों के बीज से हुए हैं. इसे जान कर, माता,  जो तुम उचित समझो, वह करो.”

आदि पर्व (24): भीष्म की प्रतिज्ञा

वैशम्पायन कह रहा है:

राजर्षि  शांतनु अपनी विद्वता,अपनेगुण और अपनी सत्य-निष्ठाके लिए विश्व विख्यात था. वह उदार, क्षमाशील, धैर्यवान औरअद्भुत पराक्रमी भी था, जिसका लोहा सभी राजा मानते थे. धर्म और अर्थ के मर्म को समझते हुए उस ने भरत वंश और समस्त मानव जाति की रक्षा की थी.

एक दिन आखेट में एक मृग का पीछा करते हुए गंगा के किनारे पहुँचे शांतनु ने भागीरथी को लगभग सूखा हुआ पाया. चकित हो जब उस ने अपनी दृष्टि दौड़ाई तो देखा कि एक तरुण धनुर्धर ने हँसते हुए अपने तीरों से गंगा की बहती धारा को रोक रखा है! वह तरुण और कोई नहीं उसका और गंगा का पुत्र गंगादत्त था पर राजा ने अपने पुत्र को उस के जन्म के बाद बस कुछ ही क्षणों के लिये देखा था और वह उसे नहीं पहचान पाया. तरुण ने अपने पिता को पहचान लिया था पर अपना परिचय देने की जगह अपनी माया शक्ति से शांतनु को मतिभ्रमित कर वह अदृश्य हो गया.

उस के विलुप्त हो जाने पर,  रहस्य को समझने के लिये राजा ने गंगा का आह्वान किया. उस किशोर के हाथ पकड़े प्रकट हो गंगा ने कहा “राजन,यह हमारा आठवाँ पुत्र है, जिसे मैने पालने के लिए अपने पास रखा था. इस के विद्याध्ययन का समय पूरा हो गया है. इस ने वसिष्ठ से वेदों के रहस्य सीखे हैं, सुरों के गुरु वृहस्पति और असुरों के गुरु शुक्र दोनो से इस ने ज्ञान प्राप्त किए हैं, और शस्त्र विद्या इस ने जमदाग्नि-पुत्र राम से पाई है. यह महान योद्धा है और यह राजा के सभी कर्तव्य भी समझता है. अब राजन, तुम अपने पुत्र को अपने साथ रखो”.

हर्षित शांतनु अपने पुत्र के साथ हस्तिनापुरआया और तुरंत उस ने गंगापुत्र देवव्रत को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया. देवव्रत के ज्ञान और उस के न्यायपूर्ण आचार व्यवहार से राज्य के ब्राह्मण, प्रजा और भारतवर्ष के अन्य राजा भी बहुत प्रसन्न थे.

देवव्रत को उत्तराधिकारी बनाने के चार वर्षों बाद, एक दिन यमुना तट पर शांतनु को एक अत्यंत मधुर सुगंध का भान हुआ. उस मादक, ललित सुगंध का स्रोत खोजने के क्रम में राजा को एक दिव्य सुंदरी कन्या दिखी.  पूछने पर पता चला कि वह धीवरों के मुखिया की बेटी थी. उस के सौंदर्य और शील से, उसके देह से आती मादक सुगंध से भी, शांतनु अपना ह्रदय खो बैठा था और उसे अपनी पत्नी बनाना चाहने लगा था. उसी दिन उस ने धीवर प्रमुख से उस कन्या के हाथ मांगे.

धीवर ने माना कि शांतनु से अधिक अच्छा वर उस की पुत्री के लिए कोई हो ही नहीं सकता, किंतु उस ने राजा से वचन माँगे कि शांतनु के बाद हस्तिनापुर का राजा उस की कन्या का पुत्र ही बनेगा, देवव्रत नहीं. शांतनु का हृदय इच्छा से जल रहा था पर उस ने ऐसे अन्यायपूर्ण वचन देने से मना कर दिया और दग्ध हृदय से वापस अपनी राजधानी लौट गया. हस्तिनापुर में, अपनी अतृप्त इच्छा से शांतनु बेचैन रह रहा था. पिता को दुखी औरअन्यमनस्क रहते देख देवव्रत ने एक दिन उस के दुख का कारण जानना चाहा “आपकी समृद्धि में कोई कमी नहीं आई है, सभी राजा आज भी आप की बातों के बाहर नहीं गये हैं फिर आप इतने दुखी क्यों रहते हैं? किस चिंता से आप दुर्बल होते जा रहे हैं?” 

“सच कह रहे हो तुम”, राजा ने कहा “मैं दुखी हूँ. मैं तुम्हारे विषय में सोच सोच कर चिंतित रहता हूँ. हमारे पुराने राजवंश रूपी वृक्ष के अब एक मात्र पल्लव तुम हो और तुम्हारा मन शस्त्र क्रीड़ा से कभी नहीं भरता है. मैं जीवन की अस्थिरता से डरता हूँ. यदि तुम्हारे ऊपर कोई संकट आ गया तो यह वंश पुत्र-हीन हो जाएगा. पर यह भी सच है कि तुम सौ पुत्रों से बढ़ कर हो, इसलिए मैं पुनर्विवाह की सोच भी नहीं सकता. मैं तुम्हारा कल्याण चाहता हूँ जिस से यह वंश चलता रहे.
“ज्ञानियों ने कहा है कि जिसे एक पुत्र है समझो उसे कोई पुत्र नहीं है. यज्ञ और वेद-ज्ञान से प्राप्त होने वाले पुण्य एक पुत्र के होने से प्राप्त होने वाले पुण्य के एक छटाँक बराबर भी नहीं हैं. यदि किसी युद्धमें कभी तुम मारे गये तो भरत वंश का क्या होगा यही सोच कर मैं दुर्बल होता जा रहा हूँ.”

किंतु देवव्रत ने कच्ची गोलियाँ नहीं खेलीं थीं. राजा की बातें सुन वह राजा के वृद्ध मंत्री से मंत्रणा करने गया. मंत्री सारी बात जानता था और उस ने देव व्रत को सब कुछ बता दिया. धीवर की शर्त सुन देवव्रत ने, कुछ वयोवृद्ध क्षत्रिय राजाओं को साथ ले कर, धीवरों के मुखिया से अपने पिता के लिए गंधवती के हाथ माँगे. धीवर ने अपनी बात दुहाराई. “यदि इंद्र भी गंधवती का पिता रहता तो राजा शांतनु से अच्छा वर वह अपनी पुत्री के लिए नहीं खोज पाता.  गंधवती का जन्म तुम्हारे ही सदृश एक महान राजा के बीज से हुआ है. उस ने भी मुझे अनेक बार कहा है कि सत्यवती के लिए उपयुक्त वर राजा शांतनु ही हो सकते हैं. असित जैसे ब्रह्मर्षि के माँगने पर भी मैने इस कन्या के हाथ उन्हे नहीं दिए थे.
“बस एक चिंता मुझे है, यदि सत्यवती राजा शांतनु से विवाह करेगी तो उस के पुत्र को साम्राज्य के लिए तुम से लड़ना पड़ेगा; और ऐसा कोई असुर या गंधर्व भी नहीं है जो तुम पर विजय पा सके. यही मेरी एक मात्र आपत्ति है इस विवाह पर अन्यथा मैं जानता हूँ इस से अच्छा कुछ नहीं हो सकता."

देवव्रत धीवर की बात समझ गया. अपने पिता के प्रति उस की ऐसी भक्ति थी कि उस ने बिना हिचकिचाए, सभी राजाओं के सामने शपथ ली कि सत्यवती और शांतनु का पुत्र ही हस्तिनापुर का उत्तराधिकारी बनेगा और कि “मैं अभी से हस्तिनापुर के राज-सिंहासन से अपने आप को अलग कर ले रहा हूँ, उस सिंहासन पर जो भी मेरे अधिकार रहे हों उन सब अधिकारों को मैं इसी क्षण त्याग रहा हूँ”.

पिता के लिए देवव्रत के ऐसे त्याग पर उस के साथ आए सभी राजा आश्चर्य चकित थे, किंतु धीवर अभी भी संतुष्ट नहीं हुआ था. “मैं जानता हूँ तुम ने, अपने गुणों के अनुरूप, अपने पिता के लिए यह महान त्याग किया है. मुझे पूरा विश्वास है इन राजाओं के बीच कहे अपने वचन से तुम कभी नहीं डिगोगे, किंतु कन्या के पिता को बहुत चिंतायें रहतीं हैं. तुम तो कभी राजा बनने की नहीं सोचोगे पर तुम्हारे पुत्र जो तुम्हारे ही जैसे प्रतापी होंगे यदि वे चाहेंगे तो मेरी पुत्री के पुत्रों को उनके उत्तराधिकार से वंचित कर देंगे”   

देवव्रत ने पुनः एक शपथ ली. “केवट राज, मेरी बात सुनो. मैने हस्तिनापुर पर अपने अधिकार छोड़ दिए हैं और अब मैं यह कह रहा हूँ कि वे कभी उत्पन्न ही नहीं होंगे जिन से तुम भय  खा रहे हो” देव वरत ने  कहा “मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि मैं आजन्म ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करूँगा. मेरे कोई पुत्र कभी नहीं होंगे जो तुम्हारी पुत्री के पुत्रों के सिंहासनारूढ़ होने में कोई बाधा डालें.मैं पुत्र-हीन रहूँगा फिर भी मैं जानता हूँ मरणोपरांत मुझे शास्वत आनंद के क्षेत्र प्राप्त होंगे”. उस की बात सुन सभी राजा हतप्रभ थे.अंतरिक्ष में देव, गंधर्व और ब्रह्मर्षि जमा हो गये. अप्सरायें उस पर पुष्प वृष्टि करने लगीं और देवताओं ने उस की प्रतिज्ञा को "भीष्म" बताया. और उस दिन से देवव्रत भीष्म कहलाने लगा.

धीवर को अब कोई आपत्ति नहीं थी. सत्यवती के निकट जा कर भीष्म ने कहा “आप इस रथ पर चढ़ें माता, अब हम अपने घर चलेंगे”. 

हस्तिनापुर पहुँच कर भीष्म ने जो कुछ हुआ था वह सब राजा शांतनु को बताया. सभी एकत्रित राजा उस के इस असाधारण पिता-भक्ति से चकित थे और एक स्वर में उन्हों कहा था “यह वास्तव में भीष्म है”. प्रसन्न चित्त से शांतनु ने तब अपने पुत्र को गले लगाते वर दिया “जब तक तुम जीना चाहोगे पुत्र, मृत्यु तुम्हारे पास नहीं भटकेगी. तुम्हारी आज्ञा ले कर ही काल तुम्हारे समीप कभी आ पाएगा.”

आदि पर्व (23): भीष्म का जन्म

इक्ष्वाकु वंश में कभी महाभिष नाम का एक प्रतापी राजा हुआ था. अनेकअश्वमेध और राजसूय यज्ञ कर उस ने स्वर्ग में अपना स्थान बना लिया था.  एक दिन देव गण ब्रह्मा का पूजन कर रहे थे जब अन्य राजर्षियों के साथ महाभिष भी वहां उपस्थित था. पितामह ब्रह्मा की आराधना के लिए गंगा भी आई हुई थी. तभी हवा से गंगा के धवल वस्त्र कुछ हट गए और उसका शरीर अनावृत हो गया. देवताओं ने अपनी दृष्टि नीचे कर ली थी पर महाभिष धृष्टता पूर्वक देखता रहा. उसके इस अभद्र आचरण पर ब्रह्मा ने उसे शाप दिया "नीच, गंगा को देख कर तुम अपने आप को भूल बैठे थे इसलिए तुम पृथ्वी पर मनुष्यों के बीच जन्म लोगे.  गंगा को भी पृथ्वी पर जाना है;  वह वहां तुम्हे तब तक यातना देती रहेगी जब तक तुम उस पर क्रुद्ध हो उसे शाप-मुक्त न कर दो."        

महाभिष ने पृथ्वी पर कुरुवंश के राजा प्रतीप के पुत्र के रूप में जन्म लेने की इच्छा व्यक्त की. गंगा भी महाभिष को च्युत होते देख उसकी इच्छा करते हुए वहाँ से चल दी. मार्ग में उसे आठो वसु मिले जो दुखी मन से उसी पथ पर जा रहे थे. पूछने पर उन्हों ने बताया कि उनके एक क्षम्य, गौण अपराध पर वसिष्ठ ने क्रोध में आ उन्हें शाप दिया है.
"वसिष्ठ संध्या पूजन में लीन थे जब अज्ञानता वश, हम उन्हें देख नहीं पाये थे, हम उन्हें लांघ बैठे. आक्रोश में उन्होंने हमें मर्त्यलोक पर जन्म लेने का शाप दे दिया है. वसिष्ठ की बात तो कट नहीं सकती, आप से हे गंगे प्रार्थना है कि आप मानव देह धर कर हमें अपना पुत्र बना लें."

इस पर गंगा ने पूछा "आप लोगों ने किस के पुत्र के रूप में जन्म लेने की सोची है?"
"पुरू वंश के प्रतीप के होने वाले पुत्र शांतनु के, जो अपने समय का एक विश्व विख्यात राजा होगा"     
"यही मैंने भी सोचा था" गंगा ने कहा
"पर देवी, आप को अपने नवजात शिशुओं को जल में बहा देना होगा जिस से हम पृथ्वी पर समय बिताने के कष्ट से बच सकें"
"मैं ऐसा ही करुँगी" गंगा ने सहमति जताई "किन्तु शांतनु और मेरे विवाह से एक पुत्र तो बचना ही चाहिए"
इस पर वसुओं ने कहा "हम सब अपनी शक्तियों का आठवां भाग देंगे और उस से देवी आप को एक पूर्ण पुत्र मिल जाएगा जैसा आप चाहतीं  हैं. किन्तु आप के इस पुत्र को संतानहीन ही रहना पड़ेगा"  

गंगा के साथ पूरी व्यवस्था कर वसु अपने गंतव्य की ओर निकल गए.

उस समय पृथ्वी पर पुरूवंश के प्रतीप का राज था. एक बार प्रतीप गंगोत्री के निकट तप कर रहा था जब गंगा एक रूपसी नारी के भेष में उसके निकट जा उसकी गोद के दाहिने भाग में बैठ गयी. प्रतीप ने उस से पूछा कि वह कौन थी और क्या चाहती थी. गंगा ने कहा: "हे राजन, मैं तुम्हे चाहती हूँ, पति के रूप में; और स्वेच्छा से आती स्त्री को कभी मना नहीं करना चाहिए. मैं एक दिव्य स्त्री हूँ और मेरा सौंदर्य अतुलनीय है, मुझे स्वीकार कर लो."

"किन्तु सुंदरी, मैं कभी किसी अन्य स्त्री के निकट नहीं जाता. और तुम मेरी गोद के दाहिने भाग में बैठी हो. यह भाग पुत्री का रहता है, स्त्री गोद के बाएं भाग में बैठती है." राजा ने कहा" तुम दाहिने भाग में बैठ गयी हो इस लिए मैं कहूँगा तुम समय आने पर मेरे पुत्र से विवाह कर लेना. अपनी पुत्र-वधु के रूप में मैं तुम्हे स्वीकार करता हूँ."
"जैसी आप की इच्छा, राजन. मैं आप के पुत्र का वरण करुँगी किन्तु राजन, आप अपने पुत्र को निर्देश दे देंगे कि वह मेरे किसी व्यवहार की शुद्धता या उपयुक्तता पर कभी प्रश्न नहीं उठाएगा. और मेरा वचन है कि उसके साथ रह कर मैं उसे आनंदित रखूंगी और अपने गुणों और हमारे पुत्रों के चलते वह मरणोपरांत स्वर्ग को प्राप्त करेगा.  यह कह कर गंगा तत्काल अन्तर्धान हो गयी. और राजा अपने पुत्र के जन्म की प्रतीक्षा करने लगा जिस से वह उस दिव्य स्त्री को दिए अपने वचन पूरे कर पाये. प्रतीप के वार्धक्य में उसे पुत्र प्राप्त हुआ जिसे शांतनु नाम दिया गया.

शांतनु के युवा होने पर प्रतीप ने उस से कहा कि कुछ समय पहले एक दिव्य स्त्री मेरे पास तुम्हारी भलाई के लिए आई थी. यदि कभी एकांत में वह तुम से मिले और तुम से पुत्र प्रार्थना करे तो तुम उसे स्वीकार कर उस से विवाह कर लेना. और मेरा यह भी आदेश है कि उसके किसी कृत्य की उपयुक्तता या शुद्धता पर कोई प्रश्न उस से नहीं करना. यह सब कह कर शांतनु का राज्याभिषेक कर प्रतीप वानप्रस्थ हो गया.

एक दिन गंगा के किनारे विचरण करते हुए शांतनु को एक अत्यंत रूपवती कन्या मिली. दोनों एक दूसरे को कुछ देर तक देखते रह गए. शांतनु उस पर मोहित हो गया और उस ने पूछा "कौन हो तुम, सुंदरी? कोई देवी हो या किसी दानव की पुत्री हो? या गन्धर्व या कोई अप्सरा हो? चाहे यक्षी या नाग कन्या या कोई मानवी ही हो, मैं तुम से विवाह करना चाहता हूँ." 
सुंदरी ने अपने विषय में कुछ नहीं बोलते हुए राजा के परिणय प्रस्ताव को स्वीकार करते हुए कहा "राजन, मैं तुम्हारी पत्नी अवश्य बनूँगी और तुम्हारी सारी आज्ञाओं का पालन करुँगी, किन्तु हे राजन, मैं कुछ भी करूँ - चाहे तुम्हे प्रिय लगे चाहे अप्रिय - तुम हस्तक्षेप नहीं करना और न ही पूछना कि मैं ऐसा कुछ भी क्यों कररही हूँ."
"और राजन, मैं तभी तक तुम्हारे साथ रहूंगी जब तक तुम मेरे साथ सहज और अनुकूल व्यवहार रखोगे; यदि तुमने कुद्ध स्वर में मुझ से कभी बातें की तो मैं तुम्हे त्याग दूंगी.  

शांतनु प्रेम में अभिभूत था. उसे सारे प्रतिबन्ध स्वीकार थे. विवाह कर वे साथ रहने लगे. शांतनु उसके रूप, व्यवहार, सेवा भाव, और उसकी उदारता से सदैव प्रसन्न रहता था.
कालान्तर में उनके आठ पुत्र हुए. सभी बच्चों के मुख मंडल दैवी आभा से चमकते रहते थे. पर गंगा बच्चों के जन्म लेते ही उन्हें जल में प्रवाहित कर देती थी, शांतनु को यह बताते हुए कि यह तुम्हारे भले के लिए कर रही हूँ. राजा इस से दुखी हो जाता था पर उसे अपने वचन याद थे और वह गंगा को खोना नहीं चाहता था. जब गंगा आठवें बच्चे को भी प्रवाहित करने जा रही थी तो शांतनु से नहीं रहा गया और उस ने मना किया

"मत मारो इसे. कौन हो तुम जो अपने जाए बच्चों को इस निर्ममता से मार देती हो?"
"तुम पुत्र चाहते हो?"गंगा ने पूछा "मैं इसे नहीं मारती, रखो इसे. पर हमारे बीच हुए अनुबंध से मेरा तुम्हारे साथ रहने का समय समाप्त हो गया और मैं अब जा रही हूँ. जान जाओ राजन कि मैं गंगा हूँ, महान ऋषि भी जिसकी पूजा करते हैं. कुछ देवों के निमित्त सिद्ध करने के लिए मैं तुम्हारे साथ इतने दिनों तक रही. वसुओं को वसिष्ठ के शाप के चलते पृथ्वी पर जन्म लेना पड़ रहा था. पृथ्वी पर मात्र तुम उनके पिता बनने योग्य थे,  किन्तु उनकी माता बनने योग्य कोई स्त्री नहीं थी. इस लिए मानवी स्त्री का रूप धारण कर मैं तुम्हारी पत्नी बनी. वसुओं ने अनुरोध किया था कि जन्म के बाद मैं उन्हें शीघ्रातिशीघ्र पृथ्वी से मुक्त कर दूँ, इस पर भी कि हमारा एक पुत्र पूर्णायु भोगे. मेरे दिए इस पुत्र का नाम राजन, गंगादत्त रखना"

गंगा अब चली जाना चाहती थी पर शांतनु उसे रोकना चाहता था. उस ने गंगा से पूछा "वसुओं के किस दोष के चलते उन्हें यह शाप मिला था? और यदि गंगादत्त भी वसु है तो इस ने क्या अपराध किया था कि इसे लम्बे समय तक मर्त्य लोक पर रहना पडेगा?"  

गंगा ने पूरी कथा सुनाई. "कश्यप कीअनेक पत्नियों में दक्ष-पुत्री सुरभि भी एक है. सुरभि और दक्ष के नंदिनी नाम की एक पुत्री गो-रूप में है. नंदिनी साधारण गाय नहीं, कामधेनु है. वह किसी भी इच्छा को पूरी कर सकती है. वरुण के पुत्र वसिष्ठ मेरु पर्वत पर आश्रम बना कर रहते थे जहाँ उन्हों ने होम की सामग्रियों के लिए नंदिनी को मांग कर अपने आश्रम में रखा था. नंदिनी आश्रम में स्वच्छंद घूमती थी.

"एक दिन आठो वसु अपनी पत्नियों के साथ मेरु पर्वत के वनों में विहार कर रहे थे जब उन्होंने नंदिनी को देखा. नंदिनी में सभी मांगलिक चिह्न दीख रहे थे - बड़ी बड़ी आँखें, भरे पूरे थन, उत्तम सुडौल पूंछ, स्वस्थ खुर आदि. द्यौ (आठ वसुओं में से एक- अन्य नाम प्रभास) ने उसे दिखाते हुए कहा कि जो मनुष्य इसका दूध पी ले सहस्त्र वर्षों तक वह तरुण बना रह जाएगा. यह सुन  द्यौ कीपत्नी ने अपने स्वामी से कहा कि वह अपनी एक मानवी मित्र को नंदिनी देना चाहती है जिस से उस की मित्र पृथ्वी पर रह कर भी जरा, व्याधि आदि से सदा मुक्त रहे.   
"पत्नी की ऐसी बातें सुन, उसे प्रसन्न रखने के लिए द्यौ ने अन्य वसुओां की मदद से गाय चुरा ली. पत्नी की इच्छा पूरी करने की धुन में वह इस कार्य में निहित पाप को तो भूल ही गया था, वसिष्ठ जैसे तपस्वी ऋषि की शक्तियों को भी वह भूल बैठा था.

"दिन ढलने पर जब वसिष्ठ अपने आश्रम लौटे तो नंदिनी को नहीं पा कर उन्हों ने अपनी दिव्यदृष्टि से उसे खोजना आरम्भ किया. वे तुरंत जान गए कि द्यौ के नेतृत्व में वसुओं  ने उसे चुरा लिया है. उनका क्रोध जग गया. "वसुओं ने मेरी गाय चुराई है इस लिए उन्हें पृथ्वी पर जन्म लेना पडेगा."  शाप दे कर वसिष्ठ ने अपना ध्यान जपादि कर्मों में लगा दिया. वसुओं को तब तक अपने शप्त हो जाने का संज्ञान हो चुका था और वे लम्बे कदम भरते हुए वसिष्ठ के आश्रम में क्षमा याचना के लिए पहुँच गए.

"वसिष्ठ को मनाने में वे सफल नहीं हुए. किन्तु वसिष्ठ ने इतनी छूट दी कि द्यौ को छोड़, क्यों कि द्यौ चोरी में अग्रणी था, शेष सातो वसु अपने जन्म के एक वर्ष के अंदर ही पृथ्वी से मुक्त हो जाएंगे. द्यौ को अपने अपराध के दंड स्वरुप पृथ्वी पर पूर्णायु भोगना पडेगा, वसिष्ठ ने कहा, वह वीर, धार्मिक और पितृ भक्त रहेगा किन्तु पृथ्वी पर वह स्त्री सान्निध्य के सुख से वंचित रहेगा और पृथ्वी पर उसके कोई संतान नहीं होगी.

"वसिष्ठ के आश्रम से वसु मेरे पास आये.और उन्होंने मुझ से प्रार्थना की कि मैं पृथ्वी पर उनकी माँ बनूँ, साथ ही यह वचन भी लिया कि उनके जन्म के तुरंत बाद मैं उन्हें जल में बहा दूँ. हे राजन, मैं ने वही किया और उन्हें उनके पार्थिव जीवन से मुक्ति दिला दी. यह आठवां बालक स्वयं द्यौ है, जिसे पृथ्वी पर पूर्णायु भोगना है."

ऐसा कह देवी गंगा अपने बालक को साथ ले विलुप्त हो गयी. शांतनु का वह पुत्र गांगेय, देवव्रत और बाद में भीष्म कहलाया और हर कला में अपने पिता से कही अधिक निपुण निकला.  

अपनी पत्नी के विलुप्त हो जाने के बाद शांतनु बहुत भारी मन से हस्तिनापुर लौटा. वैशम्पायन कहता है  “मैं अब तुम्हे राजन, भरत वंश के उस प्रतापी राजा शान्तनु के गुणों और उस की भाग्यलक्ष्मी की कथा सुनाऊंगा – वही महाभारत है."

Monday, 18 May 2015

आदि पर्व (22): पुरु वंश परिचय

आदि पर्व के संभव पर्व में शकुंतला और ययाति के उपाख्यानों के बाद एक संभव पर्व आया है (संभव पर्व के अंदर एक संभव पर्व) जिस में जनमेजय के अनुरोध पर वैशम्पायन ने उस के वंश का परिचय दिया है. जनमेजय के कहने पर वैशम्पायन ने दो बार वंश परिचय दिये हैं. दोनो में बहुत अंतर हैं. यहाँ बस दूसरा वंश परिचय दिया जा रहा है. पहले में दो घटनायें हैं जो अप्रत्याशित होने के चलते कदाचित् महत्वपूर्ण हैं.
पहला तो यह कि दुष्यंत पुत्र भरत की तीन पत्नियाँ थीं जिन से उसके नौ पुत्र हुए थे. भरत ने उनमें से किसी को अपने पुत्र होने के योज्ञ नहीं समझा. यह देख तीनो माताओं ने अपने सभी पुत्रों का वध कर दिया था. भरत ने तब एक यज्ञ आयोजित किया जिसके बाद भरद्वाज की कृपा से उसे एक पुत्र हुआ था.
और दूसरा यह कि ऋक्ष के पुत्र संवरण के राज्यकाल में अनावृष्टि हुई थी, अकाल से प्रजा त्रस्त थी और पांचालों ने आक्रमण कर भरत वंशियों को पराजित कर दिया था. भारत उन से बचने के लिए सिंधु देश के वनों में भाग गये थे जहाँ उनके एक सहस्त्र वर्ष मुँह छुपाए रहने के बाद वशिष्ठ उनसे मिलने आया था. भारत कुमारों ने वशिष्ठ से अपने पुरोहित बनने की प्रार्थना की. वशिष्ठ मान गया और तब उसने अपने मंत्र बल से भरत-वंशी राजा को वृषभ के श्रंग या ऐरावत के दाँतों की तरह बली बना कर सभी क्षत्रियों के अधिष्ठाता के रूप में स्थापित कर दिया.
दूसरे वंश परिचय में इनकी चर्चा तो नहीं ही है, ऋक्ष के पुत्र (और उत्तराधिकारी) का नाम भी संवरण नहीं बल्कि मतिनार बताया गया है. प्रस्तुत हैदूसरा वंश परिचय.     

   
जन्मेजय के पूछने पर वैशम्पायन ने उस केपूर्वजों के नाम गिनाए.  वैशम्पायन  कह रहा है:

दक्ष की पुत्री अदिति के पुत्र विवस्वत का पुत्र वैवस्वत मनु था. मनु के पुत्र हा का पुत्र था पुरुरवा जिसे जन्मेजय के राजवंश का आदि पुरूष कहते हैं. पुरुरवा का पुत्र आयु, उसका पुत्र नहुष और नहुष का पुत्र ययाति हुआ था. ययाति के अपनी दो पत्नियों से पाँच पुत्र हुए थे: यदु,  तुर्वसु,  द्रह्यु, अनु और पुरु. यदु के वंशज यादव हुए और पुरु के पौरव. पुरु का पुत्र जनमेजय (प्रथम) हुआ, जिसने वानप्रस्थ होने के पहले तीन आश्वमेध यज्ञ और एक विश्वजीत यज्ञ किया था.

जनमेजय का पुत्र  प्रचिन्वन था, जिस ने पूर्व दिशा के सारे राज्यों को जीत कर अपना साम्राज्य उन क्षेत्रों तक फैलाया था जहाँ सूर्य का उदय होता है. प्रचिन्वन ने एक यादव राजपुत्री से विवाह किया था,  उन का पुत्र संयाति हुआ. संयाति का पुत्र अहँपाति हुआ जिस का पुत्र सार्वभौम था. सार्वभौम ने सुनंदा नाम की एक कैकेय राजपुत्री का अपहरण कर उसे अपनी पत्नी बनाया था. उनका पुत्र  जयत्सेन था. जयत्सेन ने एक विदर्भ राजकुमारी से विवाह किया था. उनके पुत्र अराचीन ने भी एक वैदर्भी से विवाह किया और उस का पुत्र हुआ महाभौम, जिस का पुत्र अयुतनायी कहलाया. यह नाम उस के एक यज्ञ कराने के चलते पड़ा था जिस यज्ञ में एक अयुत (दस सहस्त्र) पुरुषों की वसा का उपयोग हुआ था.  

अयुतनायी का पुत्र अक्रोधन हुआ जिस का पुत्र देवातीथि था. देवातीथि की पत्नी विदेह की मर्यादा थी. उनका पुत्र हुआ अरिहन, जिस का पुत्र ऋच था. ऋच का पुत्र ऋक्ष था जिस ने तत्क्षक की पुत्री ज्वाला से विवाह कर मतिनार को उत्पन्न किया. मतिनार ने सरस्वती के किनारे बारह वर्षों तक एक यज्ञ किया था. यज्ञ की समाप्ति पर सरस्वती (नदी) ने प्रकट हो उसे  अपना पति चुना. उनका पुत्र तंसु हुआ. तंसु का पुत्र इलिन. इलिन के पाँच पुत्रों में दुष्यंत ज्येष्ठ था. दुष्यंत और विश्वामित्र-पुत्री शकुंतला का पुत्र भरत हुआ, जिसके नाम पर, राजन, तुम भारत कहलाते हो.

भरत का पुत्र भुमन्यु था, जिसका पुत्र सुहोत्र हुआ. सुहोत्र ने इक्ष्वाकु वंश की सुवर्णा से विवाह कर हस्ति को उत्पन्न किया जिस ने यह नगरी, हस्तिनापुर, बसाई. हस्ति का पुत्र विकण्ठन था जिस का पुत्र अजमीढ हुआ. अजमीढ को चार पत्नियों से चौबीस सौ पुत्र हुए थे. उनमें संवरण ने इस राजवंश को आगे बढ़ाया.

संवरण का पुत्र पुरु और पुरु का पुत्र विडूरथ हुआ, उस के पुत्र अरुग्वान का पुत्र परीक्षित (प्रथम) था. परीक्षित के पुत्र भीमसेन का पुत्र पर्याश्रव हुआ. पर्याश्रव का पुत्र प्रतीप था. प्रतीप ने शिवि की पुत्री सुनंदा से तीन पुत्र उत्पन्न किए देवापि, शान्तनु और  बाह्लीक. अपनी बाल्यावस्था में ही देवापि के  वानप्रस्थ हो जाने के चलते (1) शान्तनु राजा बना.  कहा जाता है कि इस राजा के स्पर्श मात्र से वृद्धों को वर्णनातीत आनंद मिलता था साथ ही उन्हे पुनर्यौवन भी प्राप्त हो जाता था.

शांतनु ने गंगा से विवाह कर देवव्रत को उत्पन्न किया था जो बाद में भीष्म कहलाया. अपने पिता शांतनु की इच्छा पूरी करने के लिए भीष्म ने उसका विवाह सत्यवती, अन्य नाम गंधकली, से करवाया. अपने कौमार्य काल में सत्यवती ने पराशर के पुत्र द्वैपायन को जन्म दिया था. शांतनु और सत्यवती के दो पुत्र हुए चित्रांगद और विचित्रवीर्य. वयस्क होने के पहले ही गन्धर्वों के हाथों चित्रांगद मारा गया था और विचित्रवीर्य राजा बना. विचित्रवीर्य ने काशी नरेश की दो पुत्रियों, अंबिकाऔर अंबालिका से विवाह किया किंतु वह पुत्रहीन था जब उसकी मृत्यु हो गयी. दुष्यंत के वंश को चलाने के लिए सत्यवती ने अपने पहले पुत्र द्वैपायन का स्मरण किया. 

स्मरण मात्र से द्वैपायन प्रकट हुआ और अपनी माता की इच्छा जान उस ने अंबिका से धृतराष्ट्र, अंबालिका से पांडु और एक दासी से विदुर उत्पन्न किए. द्वैपायन के वरदान से ही धृतराष्ट्र और गांधारी को सौ पुत्र हुए. उन सौ पुत्रों में चार विशेष जाने जाते हैं: दुर्योधन, दुःशासन, विकर्ण और चित्रसेन. पांडु की दो पत्नियाँ थीं – कुंतीऔर माद्री. एक दिन आखेट में पांडु ने काम क्रीड़ा रत एक मृग को अपने तीरों से मार दिया था. पर मरने वाला कोई मृग नहीं एक ऋषि था. मरणासन्न ऋषि ने पांडु को शाप दिया "मेरी इच्छा पूरी होने के पहले तुम ने मुझे मार दिया इस लिए तुम भी अपनी इच्छा पूरी होने के महले इसी तरह मर जाओगे". ऋषि का शाप सुन पांडु भय से पीला पड़ गया और उस ने अपनी पत्नियों के निकट जाना छोड़ दिया.

अपनी पत्नियों के साथ पांडु वन में तपस्वियों की तरह रहता था जब उसे अपने परलोक की चिंता होने लगी. सन्तानहीन व्यक्तियों के लिये मृत्योपरांत कोइ उच्च लोक नहीं हैं यह सोच कर उस ने कुंती से संतान उत्पन्न करने का अनुरोध किया. कुंती को अपनी कौमार्यावस्था में ही दुर्वासा ऋषि से एक मंत्र मिला था जिस मंत्र से वह किसी देवता का आह्वान कर सकती थी. उस मंत्र से बुला कर उस ने धर्मराज से युधिष्ठिर, पवन देव से भीम और देवेन्द्र से अर्जुन उत्पन्न किए. पांडु के कहने पर उस ने वह मंत्र माद्री को भी दिया जिस से अश्विनिकुमारों को बुला कर माद्री ने जुड़वा, नकुल और सहदेव को उत्पन्न किए.

एक दिन वन में पुष्पों और आभूषणों से सुसज्जित माद्री को देख पांडु से नहीं रहा गया और अपनी कामेच्छा पूरी करने के उद्देश्य से वह उसके निकट चला गया. किंतु माद्री का स्पर्श करते ही ऋषि के शाप से उसकी मृत्यु हो गयी. दुखी माद्री ने अपने यमजों को कुंती को सौंप कर अपने पति की चिता पर आत्मदाह कर लिया. पांडु की मृत्यु के कुछ समय बाद उस के पाँचो पुत्रों और कुंती को वन के कुछ तपस्वी हस्तिनापुर में भीष्म और विदुर के पास ले चले. उनका परिचय कराने के बाद वे तपस्वी अचानक विलुप्त हो गये और वहाँ पुष्प वृष्टि होने लगी साथ ही दिव्य वाद्यों की ध्वनियाँ भी सुनाई देने लगीं. यह सब देख, सुन भीष्म ने पाँचो पांडवों को अपने पास रखा और उनके पिता के लिए मृत्योपारांत किए जाने वाले शास्त्रोक्त कर्म कराए.     

दुर्योधन हस्तिनापुर में पांडवों को देख कर बहुत जलता था और उन्हे वहाँ से भगाने के हर संभव उपाय खोजता रहता था. पर विधाता के लिखे के आगे दुर्योधन की एक नहीं चली. फिर धृतराष्ट्र ने उन्हे छल से वर्णावत भेजा,जहाँ उन्हे जला मारने का प्रयास किया गया था पर विदुर से जानकारी मिल जाने के चलते वे बच गये और वहाँ से निकल कर, हिडिंब को मारते हुए वे एकचक्र नाम के गाँव गये जहाँ उन्होने बक राक्षस का वध किया. एकचक्र से वे पांचाल गये और द्रौपदी को जीत कर वापस हस्तिनापुर लौटे.  

वहाँ वे कुछ दिन शांति से रहे. वहीं उनके पुत्रों के जन्म हुए - युधिष्ठिर का प्रतिविन्ध्य, भीम का सुतसोम,अर्जुन का श्रुतकीर्ति, नकुल का शतानीक और सहदेव का श्रुतकर्मण. ये सभी द्रौपदी के पुत्र थे. इनके अतिरिक्त युधिष्ठिर ने गोवासन की पुत्री देवकी को एक स्वयंवर में जीता था जिस से उसे एक पुत्र हुआ यौधेय. भीमसेन ने काशी नरेश की पुत्री बलंधारा से विवाह कर एक पुत्र सर्वग उत्पन्न किया था. अर्जुन द्वारका की सुभद्रा को बलात हर कर हस्तिनापुर लाया था. उन का पुत्र हुआ अभिमन्यु.  नकुल ने चेदि नरेश की कन्या करेणुमति से विवाह किया था. उसके पुत्र का नाम था निरमित्र और सहदेव ने एक स्वयंवर में मद्र की विजया को जीता था जिस से उसका पुत्र हुआ था सुहोत्र. इन पुत्रों के जन्म के पहले भीमसेन के हिडिंबा से एक पुत्र हुआ था घटोत्कच.  पांडवों के यही ग्यारह पुत्र हुए थे (2), जिनमें अभिमन्यु ने राजवंश चलाया.

उस ने विराट की पुत्री उत्तरा से विवाह किया था. उत्तरा ने एक मृत बालक परीक्षित को जन्म दिया था जिसे वासुदेव की बात मानते हुए कुंती ने अपनी गोद में रखा. अश्वत्थामा के शस्त्र से दग्ध हो यह बालक छह मासमें पैदा हुआ था पर वासुदेव ने इसे पुनर्जीवित कर पूर्ण गर्भ से उत्पन्न बालक के सदृश सुदृढ़ बना दिया था. और परीक्षित ने मद्रावती से विवाह किया जो, राजन, तुम्हारी माता है. और जनमेजय तुम ने वपुष्टमा से विवाह कर दो पुत्र उत्पन्न किए हैं शतानीक और शंकुकर्ण. शतानीक ने विदेह राजपुत्री से विवाह कर एक पुत्र उत्पन्न किया है अश्वमेधदत्त.

राजन, पुरु और पांडवों के वंशजों का परिचय समाप्त हुआ.   व्रती ब्राह्मणों  और प्रजा की रक्षा करने वाले क्षत्रियों को इसे सुनना चाहिए. वैश्यों को इसे ध्यान से सुनना चाहिए और शूद्रों को, जिनका काम बाकी तीनों की सेवा करना है,  इसे भक्ति के साथ सुनना चाहिए.


(1) देवापि के विषय में आदि पर्व के संभव पर्व में एक जगह बताया गया है कि वह बाल्यावस्था में वानप्रस्थ हो गया था, दूसरी जगह बताया गया है कि उस ने अपने भाइयों के लिए सिंहासन त्याग दिया था. किंतु उद्योग पर्व (बोरी अध्याय 147) में बताया गया है कि वह एक चर्म रोग से ग्रस्त था और उस का एक ही हाथ काम कर पाता था. यद्यपि वह प्रजा में,  ब्राह्मणों मेंअत्यंत लोकप्रिय था किंतु राजा को पूर्ण पुरुष होना चाहिए यह विचार कर ब्राह्मणोंने उसे के राज्याभिषेक पर आपत्ति की थी और विवश हो कर उस के पिता प्रतीप को मानना पड़ा था. शांतनु भाइयों में कनिष्ठ था. वह राजा इस लिए बन पाया क्यों कि बीच वाले भाई बाह्लीक ने अपने ननिहाल में रहने का निश्चय कर लिया था.

(2) यहाँ अर्जुन के दो पुत्रों के नाम नहीं गिनाए गये हैं - उलूपी से इरवान और चित्रांगदा से वभ्रुवाहन

आदि पर्व (21): ययाति उपाख्यान (6)

अपने कनिष्ठ और सब से प्रिय पुत्र पुरू को गंगा-यमुना के मध्य भाग का राज दे कर, और अन्य पुत्रों को दूर दराज भेज कर, ययाति वन में संन्यासी का जीवन व्यतीत करने लगा.  कंद, मूल, फल आदि खा कर और अपनी इन्द्रियों और विचारों को पूर्णतया अपने नियंत्रण में रख कर राजा ने अपने यज्ञादि से देवताओं और पितरों को सदैव प्रसन्न रखा. इस तरह उस ने एक सहस्त्र वर्ष बिताये.और उस के बाद एक वर्ष का उस ने मौन व्रत रखा और उस के बाद एक वर्ष की उस ने कठोर तपश्चर्या की. इस पूरे वर्ष वह चारो और लपलपाती आग के बीच, भगवान की स्तुति करते  खड़ा रहा. और इस के बाद छः मास वह सिर्फ वायु पर जीते हुए एक पैर पर खड़ा रहा. इस तरह तप करते हुए, समय आने पर, राजा ययाति अपने सत्कर्मों से स्वर्ग गया.

स्वर्ग में ययाति देवों, साध्यों, मरुतगण और वसुओं का प्रिय आराध्य रहा. देवलोक से राजा ययाति यदा कदा ब्रह्मलोक भी चला जाया करता था. बहुत लम्बे काल तक वह इस तरह स्वर्गलोक और ब्रह्मलोक में विचरण करता रहा.  एक दिन इंद्र के साथ ययाति घूम रहा था जब इंद्र ने उस से पूछा

"जब पुरू ने तुम्हारी जरावस्था ले ली तब तुम ने क्या कहा था राजन? "
"मैं ने उस से कहा कि गंगा और यमुना के मध्य का भू भाग, जो पृथ्वी का सही अर्थ में केंद्रीय भाग है, तुम्हारा रहेगा. और दूर दराज के क्षेत्रों को मैंने अपने दूसरे पुत्रों में बाँट दिया" ययाति ने कहा "मैं ने उसे कुछ उपदेश भी दिए, यथा: जिनको क्रोध नहीं रहता वे क्रोधियों से श्रेष्ठतर होते हैं; जो क्षमा कर सकते हैं वे निष्ठुरों से और इसी तरह मनुष्य पशुओं सेऔर ज्ञानी अज्ञानियों से श्रेष्ठतर होते हैं.  
"कटु वचन से किसी को कष्ट मत दो, न ही अन्याय से कभी किसी को दबाने का प्रयास करो. यदि वाणी में मधुरता नहीं रहेगी तो समृद्धि पास नहीं फटकेगी. धार्मिक लोगों के अनुगामी बनो और दुष्टों का कुछ भी कहा अनसुना कर दो. तीनो लोकों में देवताओं के पूजन के लिए या मनुष्यों कोजीतने के लिए दया, मित्रता, दान और मधुर वाणी से बढ़ कर कुछ भी नहीं है. जो तुम्हारा सम्मान करें उनका तुम भी सम्मान करो और कभी किसी से कुछ मांगो नहीं"

यह सब सुन इंद्र ने ययाति से पूछा "तुम तो अपने कर्तव्य पालन कर वानप्रस्थ भी हुए थे और बहुत तप भी किया है तुम ने. तपश्चर्या में तुम अपने को किस के बराबर समझते हो?"

"तप में इंद्र" ययाति ने कहा "मैं किसी को - मनुष्य, देवता, गन्धर्व या महर्षिगण- किसी को भी अपने बराबर नहीं समझता हूँ"        

"राजन यह बोल कर तुम ने अपने से श्रेष्ठ तपस्वियों का निरादर किया है" इंद्र ने कहा "श्रेष्ठ ही नहीं अपने समकक्ष तपस्वियों का भी अनादर किया है. अब तुम्हारे संचित पुण्य का ह्रास हो गया है और तुम्हे अब पृथ्वी पर जाना पडेगा"

निर्विकार भाव से ययाति ने कहा "यदि मेरे पुण्य का ह्रास हो गया है तो निश्चित मुझे पृथ्वी पर जाना पडेगा; पर हे इंद्र कुछ ऐसा करो कि पृथ्वी पर मैं धार्मिक लोगों के बीच रहूँ."
   
"राजन तुम धार्मिक और बुद्धिमान लोगों के बीच ही रहोगे" इंद्र ने कहा "और इस अनुभव के बाद, राजन, अपने से श्रेष्ठ या अपने समकक्ष लोगों का अनादर शायद कभी नहीं करोगे"

ययाति स्वर्ग लोक से गिर पड़ा.

स्वर्ग लोक से गिरता ययाति एक दम से धरती पर नहीं आ गया था. देर तक वह आकाश में रुका रहा था . वहां रुके ययाति को देख भूमि पर खड़े अष्टक (जो ययाति का दौहित्र था पर दोनों इस बात से अभी अनभिज्ञ हैं) ने चकित हो उस से पूछा "कौन हो तुम? तुम्हारा प्रताप तो बस इंद्र, सूर्य या विष्णु सा लगता है पर वे क्यों गिरने लगे; तुम हो कौन?”
उस ने फिर कहा "मैं इस तरह तुम्हारा नाम पूछने की अशिष्टता नहीं करता. पर तुम तो कुछ बोल नहीं रहे हो. पर कोई चिंता मत करो. जैसे मात्र अग्नि को ताप प्रसारण की शक्ति है, जैसे मात्र पृथ्वी ही बीज में जीवन फूँक सकती है, जैसे अकेला सूर्य ही सब कुछ प्रकाशित कर सकता है, वैसे ही केवल अतिथि किसी धार्मिक और ज्ञानी व्यक्ति को आज्ञा दे सकता है. निश्चिंत रहो तुम. पर बताओ तो, तुम हो कौन?

ययाति ने कहा: “मैं ययाति हूँ, नहुष का पुत्र और पुरू का पिता. सिद्ध और ऋषियों का अनादर करने के चलते मुझे देवलोक से निष्कासित कर दिया गया है. मैं गिर रहा हूँ क्योंकि मेरे पुण्य का ह्रास हो रहा है.”

विश्वामित्र का पुत्र अष्टक अब जान गया कि वह अपने नाना के साथ है पर ययाति अभी तक नहीं जान पाया है कि वहअपने नाती से बातें कर रहा है. अष्टक ने अपने नाना से कुछ ज्ञान प्राप्त करने की सोची और पूछा "कौन अधिक पूजनीय है, वह जो ज्ञान, तप में श्रेष्ठ हो या वह जिस ने पहले जन्म लिया हो?" अष्टक ने पूछा.

ययाति ने इसका स्पष्ट उत्तरनहीं दिया "एक पाप से चार पुण्य मिट जाते हैं. मिथ्याभिमान हर व्यक्ति को नरक की ओर धकेलता है.  मैं ने भी कभी बहुत पुण्य अर्जित किये थे. पर वे सब मिट गए. मुझे देखते हुए, जो अपना भला चाहते हैं वे अवश्य अपने  मिथ्याभिमानको दबा कर रखें. ज्ञानी अंदर से विनम्र होते हैं. वे ज्ञान का भी अभिमान नहीं करते. प्रारब्ध को सर्वशक्तिमान जान कर,बुद्धिमान सदैव संतुष्ट और स्थिर रहते हैं. वे दुःख में दुखी नहीं होते, न ही सुख में आनंदित. यदि प्रारब्ध सर्वोच्च है तो शोक और आनंद दोनों अशोभनीय हैं. मैंने अपने आप को कभी भयभीत नहीं होने दिया न ही मैं कभी दुखी हुआ क्यों कि होगा वही जो विधाता चाहेगा.  कीट, पतंगे, घास, पत्थर सब को अपना कर्म भोग कर परमात्मा में मिल जाना है, इस स्थिति में क्षणिक या अनित्य दुःख या सुख पर शोक या आनंद में डूब जाना बुद्धिमानों का कामनहीं है."

अष्टक ने आकाश में रुके हुए ययाति से फिर पूछा "राजन आप किन किन लोकों में गए और कहाँ आपने कितना समयबिताया?"

ययाति ने कहा"अपनी तपश्चर्या से मैंने अनेक उच्च लोकों को प्राप्त किया जहाँ मैं एक सहस्त्र वर्षों तक रहा. उस के बाद एक सहस्त्र वर्ष मैंने इंद्रलोक से भी ऊपर एक लोक में बिताये. सहस्त्र वर्ष  मैंने विष्णु लोक में भी बितायेऔर दस लक्ष वर्ष मैंने नंदन वन में अप्सराओं के साथ क्रीड़ा में बिताये जब मेरे तपोबल क्षीण हो गए और मुझे नंदन से निकल कर भूलोक पर आना पड़ा . भूलोक के मार्ग में मैंने तुम्हारे यज्ञ की वेदी से उठती धूम्र शिखाओं को देखा और मैं इधर चला आया." 

"पर आप को नंदन छोड़ भूलोक पर क्यों आना पड़ा"  अष्टकने पूछा.
"जैसे मित्र और सगे सम्बन्धी किसी के धन समाप्त हो जाने पर उसे छोड़ देते हैं वैसे ही इंद्र और अन्य देव किसी के पुण्य शेष हो जाने पर उसे छोड़ देते हैं."

"पर" अष्टक ने पूछा "देव लोक में पुण्य का नाश कैसे हो सकता है?"
"जो अपने पुण्य की स्वयं चर्चा करता है, उस के पुण्य का नाश होता है"

अष्टक ने पूछा "कैसे कोई उन क्षेत्रों को जाता है जहाँ से भूलोक पर  नहीं लौटना पड़ता है - तप से या ज्ञान से? 
ययाति ने बताया कि स्वर्गलोक के सात द्वार हैं:  तप, परोपकार,चित्त-शान्ति, आत्म नियंत्रण, विनम्रता, सादगी और दयाशीलता. मिथ्याभिमान से ये सातो नष्ट हो जाते हैं. जो व्यक्ति ज्ञान प्राप्त कर अपने को बहुत ज्ञानी समझने लगता है और अपने ज्ञान से दूसरों की मान-मर्यादा नष्ट करने पर आमदा हो जाता है वह उच्च लोकों को कभी नहीं प्राप्त कर सखता है. अध्ययन, मौन, अग्नि के सामने पूजा और यज्ञादि - इन चार से भय दूर होते हैं. पर ये यदि मिथ्याभिमान के साथ हों तो भय दूर करने की जगह ये भय बढ़ाते हैं.  जो ज्ञानी व्यक्तिअपना आधार सनातन ब्रह्म में देखते हैं वे इहलोक और परलोक दोनों में पूर्णशांति पाते हैं.

अष्टक: "गृहस्थ, भिक्षु, ब्रह्मचारी और वानप्रस्थ इन्हे पुण्य अर्जन के लिए क्या करनाचाहिए?"
"ब्रह्मचारी को" ययाति ने कहा "अध्ययन में समय तभी लगाना चाहिए जब गुरु का ऐसा आदेश हो. अन्यथा सदैव उसे गुरु की सेवा में रहना चाहिए. गुरु के सो जाने के बाद वह सोये और गुरु के जगने के पहले से जगा रहे. विनम्र रहे और अपनी भावनाओं पर पूरा नियंत्रण रखे तभी कोईब्रह्मचारी सफल हो पायेगा.   गृहस्थ को पुण्य कमाने के लिए न्यायपूर्ण ढंग से धन अर्जित कर दान यज्ञ आदि करना चाहिए. सच्चा भिक्षु अपने जीवन निर्वाह के लिए कोई उपयोगी काम कभी नहीं करता, उसे अपने मनोभाव और भावावेश पर पूर्ण नियंत्रण रहता है वह किसी एकजगह पर दो रात नहीं रुकता और किसी गृहस्थ के घर कभी नहीं शरण लेता. विद्वान को वानप्रस्थ तभी होना चाहिए जब उस ने अपनी कामनाओं पर विजय प्राप्त कर लिया हो."

अष्टक के पूछने पर कि मुनि कौन होते हैं ययाति ने बताया कि मुनि होने के लिए वन में जाना आवश्यक नहीं है. वह अपने जन्म, परिवार और ज्ञान पर कोई अभिमान नहीं करता, तुच्छ और अपर्याप्त वस्त्रों में भी वह राजसी परिधान का सुख पाता है, जीवन यापन के लिए जो कुछ खाने को मिले उस से वह संतुष्ट रहता है और नगर या गांव में  भी रह कर मौन रहता है. पर यदि ऐसा व्यक्ति वन में जा कर योग ध्यान कर सुख-दुःख, सम्मान-अवज्ञा,  के प्रति पूर्णतः निर्विकार हो जाए तो वह अचिन्त्य ब्रह्म में मिल जाता है. और यदि कोई ऐसा व्यक्ति मद्यपान या मांसाहार भी करता है तो वह ऐसा बिना किसी अपेक्षा के करता है और न ही इसमें उसे कोई आनंद मिलता है न हीउसके पुण्य में इस से कोई ह्रास होता है.

अष्टक का अगला प्रश्न था ज्ञानी और तपस्वी में कौन पहले ब्रह्म प्राप्तकरता है?
"ज्ञानी वेद अध्ययन से जान जाते हैं कि" ययाति ने कहा "जो कुछ भी संसार में दिख रहा है वह माया है, और वे परमात्मा को शीघ्र प्राप्त कर लेते हैं. योग और ध्यान मार्ग पर चलने वालों को इसे समझने में देर लगती है. इस तरह ज्ञान से मुक्ति पहले मिलती है. पर यदि किसी कारणसे योगी को एक जन्म में मुक्तिनहीं मिल पाती है तो अगले जन्म में उसे पूर्व जन्म के योग का लाभ मिलता है. ज्ञानी अनश्वर सत्य को जानते हुए, निष्काम भाव से सांसारिक सुखों में डूबे रह कर भी ह्रदय में सत्य से विचलित नहीं होते और मुक्ति केअधिकारी बनते हैं. जिन्हे यह ज्ञान नहीं मिला पाता हैं उन्हें भक्ति और यज्ञ आदि करने चाहिए. पर मुक्ति की अभिलाषा से किये धर्म कर्म से मुक्ति नहीं मिलती."

यह सब सुन कर अष्टक नेपूछा कि उसके लिए, अर्थात अष्टक के भोगने के लिए,देवलोक में कोई क्षेत्र हैं या नही.ययाति ने उसे विश्वास जिलाया कि उसके लिए देवलोक में उतने ही क्षेत्र हैं जितने भूलोक पर गायें औरअश्व हैं. यह सुन अष्टक की प्रतिक्रिया थी कि "यदि मेरे धर्म कर्म से, मेरे तपो बल से देवलोक में मेरे लिए क्षेत्र हैं तो वह सब मैं राजन आप को दे रहा हूँ और आपको देवलोक से गिरने की कोई आवश्यकता नहीं."
"पर दान तो कोई ब्राह्मण ही ले सकता है" ययाति ने कहा "मैं नहीं ले पाउँगा तुम्हारा यह दान. मैंने स्वयं बहुत कुछ दान में दिया है. मैं दान स्वीकार करने का कलंक नही ले सकता." 

ययाति का दूसरा दौहित्र प्रतर्दन भी वहीं था. उस ने भी पूछा कि उसके भोगने के लिए स्वर्ग में कोई क्षेत्र हैं या नहीं. ययाति के बताने पर कि प्रतर्दन के लिए भी असंख्य क्षेत्र हैं प्रतर्दन ने भी उन्हें ययाति को दे दिए. और कहा  "अब आप को और नीचे नहीं गिरना है"
पर ययाति ने फिर वहीं बात कही. कोई राजा दान नहीं ले सकता. और योग और तप से अर्जित पुण्य तो कभी नहीं.

ययाति के ऐसे कहने पर उसके तीसरे दौहित्र वसुमत ने और चौथे दौहित्र शिवि ने भी वैसा ही कहा.उन्होंने राजा को अपने पुण्य बेचने का भी प्रस्ताव दिया. वसुमत एक तिनके बदले अपने सारे पुण्य अपने नाना को दे देना चाहता था पर ययाति ने इसे अनुचित व्यापार कह इस प्रस्ताव को भी स्वीकार नहीं किया.

तब तक आकाश में पांच स्वर्ण मंडित रथ प्रकट हुए. ययाति के दौहित्रों ने उस से उन रथों के विषय में पूछा और यह सुन के ये रथ देवलोक को ले जाते हैं पांचो उन रथों पर आसीन हो देवलोक को प्रस्थान कर गए.

Friday, 8 May 2015

आदि पर्व (20): ययाति उपाख्यान (5)

वृद्ध और शक्तिहीन ययाति का अपने पुत्रों से गिड़गिड़ाते हुए उनकी तरुणाई मांगना सम्भवतः महाभारत के सर्वाधिक कारुणिक दृश्यों में गिना जाएगा. पर आगे बढ़ने के पहले आदि-पर्व में मिलता काल-निपात विचारणीय है. जब देवयानी और ययाति अशोक वन में टहल रहे थे तो शर्मिष्ठा के तीनो बच्चे इतने छोटे थे कि वे अपने पिता के घुटनों से लिपट गए थे. देवयानी वहां से, बिना किसी वाहन के, अपने पिता के घर की ओर चल दी थी और ययाति उसे मनाने के लिए उसके साथ चल रहा था. शुक्र के आश्रम से शापित ययाति तुरंत वापस अपनी राजधानी की ओर चल दिया था. कितना समय लगा होगा प्रतिष्ठानपुर से वृषपर्व के नगर जाने में और वहां से वापस आने में? वृषपर्व के नगर से असुर कन्याएं चित्ररथ के उपवन तक घूमते टहलते पहुँच जातीं थीं. और ययाति, रथ पर, अपनी राजधानी से आखेट के क्रम में वहाँ पहुँच जाता था. इस से लगता है कि रथ से प्रतिष्ठानपर से शुक्र का आश्रम अधिक से अधिक एक दिन की दूरी पर था. स्वस्थ व्यक्ति पैदल चलते हुए शायद एक मास ले और दुर्बल, जराक्रांत शायद एक या दो वर्ष. पर इन दो-ढाई वर्षों के बाद जब ययाति अपनी राजधानी पहुंचता है तो उस के शिशु वयस्क हो चुके मिलते हैं!

महल पहुँच कर जरा-जीर्ण ययाति ने अपने ज्येष्ठ पुत्र यदु को बुलाया. “शुक्र के अभिशाप से मैं समय से बहुत पहले जराक्रांत हो गया हूँ. मेरे बाल श्वेत हो गए हैं, शरीर पर झुर्रियां पड़ गयीं हैं, मेरे अंग शिथिल हो गए हैं, दृष्टि और श्रवण में भी दोष आ गए हैं; पर पुत्र, मन से मैं अभी भी युवा हूँ और वह सब करना चाहता हूँ जो एक नवयुवक करना चाहता है.
"मैं चाहता हूँ यदु, मेरे ज्येष्ठ पुत्र, तुम मेरी जरावस्था को ले कर अपना यौवन मुझे दे दो. कुछ समय तक यौवनं का सुख भोग कर मैं तुम्हारा यौवन लौटा अपनी जरता वापस ले लूंगा".

"पर वार्धक्य अपने साथ खाने पीने की अनंत असुविधाएं लाता है" यदु ने कहा "इस लिए राजन, मैं आप की जरावस्था नहीं ले सकता. जरता का अर्थ होता है सर पर श्वेत केश, मन में अवसाद, शरीर पर झुर्रियां, अंगों में दुर्बलता आदि आदि. आप के अनेक पुत्र हैं राजन. कुछ को आप बहुत अधिक मानते हैं किसी और से आप कहें कि वह आपकी जरता ले ले. 

"तुम मेरे पुत्र हो यदु, मेरे ज्येष्ठ पुत्र;  तुम्हारी शिराओं में मेरा ही रुधिर बहता है. किन्तु तुम मुझे कुछ दिनों के लिए भी अपना यौवन नहीं दे पा रहे हो" ययाति ने उसे शाप दिया "तुम्हारे पुत्र या उनके पुत्र कभी राजा नहीं बनेंगे. तुम्हारा वंश राज्य हीन होगा; कभी उस में कोई राजा नहीं बनेगा."

ययाति फिर अपने दूसरे पुत्र तुर्वसु की और मुड़ा. "मेरी दुर्बलता ले लो तुर्वसु और अपना यौवन दे दो मुझे जिस से मैं अभी कुछ समय और जीवन को भोग लूँ.  जब मैं भोग-विलास से संतुष्ट हो जाऊंगा तो मैं तुम्हारा यौवन लौटा कर अपना बुढ़ापा वापस ले लूंगा"

"पर मुझे बुढ़ापा असहनीय लगता है" तुर्वसु ने कहा "यह हर तरह की क्षुधा का नाश कर देता है और जब क्षुधा ही न रहेगी तो क्षुधा शांति का आनंद कैसे मिलेगा. यह सत्य है राजन कि माता-पिता की कृपा से ही पुत्र को जीवन मिलता है और इस लिए पुत्र अपने माता-पिता की जितनी भी सेवा कर सके वह कम ही है किन्तु अभी तो मैंने यौवन में प्रवेश ही किया है यह समय मेरे लिए यौवन को भोगने का है, उसे किसी को देने का नहीं." ययाति ने उसे भी शाप दिया. "तुम्हारा वंश, तुर्वसु, नष्ट हो जाएगा. तुम्हारे पुत्र अनार्यों के राजा बनेंगे".          

तुर्वसु को शाप दे कर ययाति ने शर्मिष्ठा के पुत्र द्रह्यु को बुलाया और उस से भी जवानी की भीख मांगी. पर द्रह्यु ने भी मना कर दिया "वृद्ध न तो हाथी, घोड़ों पर चढ़ सकते हैं न ही रथ पर और न ही स्त्रियों का संपर्क भोग सकते हैं. इस लिए राजन मैं आप का बुढ़ापा नहीं ले सकता." ययाति ने उसे भी शाप दिया "द्रह्यु तुम्हारी इच्छा कभी पूरी नहीं होगी, तुम ऐसे देश का राजा बनोगे जहाँ हाथी, घोड़े या रथ के जाने के लिए कोई मार्ग ही नहीं रहेगा. तुम्हारे राज्य जाने का एक मात्र वाहन नाव रहेगा."

ययाति ने अब अनु से याचना की पर अनु ने भी मना कर दिया "वृद्ध बच्चों की तरह खाते हैं और तो और वे समय पर होम भी नहीं कर पाते हैं; नहीं , मैं अभी वृद्ध बनना नहीं चाहता"  ययाति ने उसे भी शाप दिया. "तुम्हे शीघ्र जरावस्था का सामना करना पडेगा. तुम्हारे पुत्र अपने पूर्ण यौवन में काल कवलित होंगे और तुम इतने दुर्बल रहोगे कि होम / यज्ञ आदि कुछ भी नहीं कर सकोगे."

ययाति ने अब अपने कनिष्ठ पुत्र पुरू से उसका यौवन माँगा. और पुरू मान गया. "मैं आप की जरता और दुर्बलता स्वीकार करता हूँ राजन, आप मेरी युवावस्था ले लें और तब तक रखें जब तक आप चाहें." ययाति संतुष्ट हुआ और उस ने पुरू को वर दिया "तुम्हारे राज्य में प्रजा की सारी मनोकामनाएं सिद्ध होंगीं" और शुक्र का स्मरण करते हुए ययाति ने अपनी जरावस्था पुरू को दे दी और उस की युवावस्था ले ली.

ययाति को अपने पुत्र पुरू से उसका यौवन एक सहस्त्र वर्षों के लिए मिल गया था. पुनर्यौवन पा कर ययाति की पुरानी रुचियाँ  जो उसकी जीर्णावस्था में सुषुप्त पडी थीं फिर से जग गयीं.  जितना मन चाहे और जितना तन सह सके, उस ने अपने आप को आनन्द में डुबो  दिया. बस उस ने इस का ध्यान रखा कि सब कुछ काल / ऋतु के अनुकूल हो और कुछ भी धर्म के विरुद्ध न हो.

यज्ञादि से उस ने देवताओं को, श्राद्ध कर्म से पितरों को, और दान-धर्म से अपने राज्य के निर्धनों को प्रसन्न रखा. चारो वर्णों के साथ अपना व्यवहार उस ने उनके वर्ण-गुण के अनुकूल रखा - ब्राह्मणों को मन चाहा भोजन और सम्मान, वैश्यों को संरक्षण और शूद्रों के प्रति दया भाव.  इस के बाद जो मन आये करते हुए ययाति के एक सहस्त्र वर्ष आनन्द में कट गए.

वैसे तो शुक्र के अभिशाप से उसे छूट मिली थी शुक्र-दुहिता देवयानी के साथ रहने के लिए पर इस नए यौवन में उसे एक नयी नायिका मिल गयी थी -  विश्वाची(1), एक अप्सरा. विश्वाची के साथ ययाति कभी इंद्र के उपवनों में कभी कुबेर की अलकापुरी में और कभी मेरु पर्वत के शिखर पर क्रीड़ा-मग्न रहता था.    

और जब सहस्त्र वर्ष बीत गए तो राजा ययाति ने अपने पुत्र पुरू को बुलाया. "तुम्हारी उदारता के चलते पुरू, मैं ने जीवन के सभी सुखों को अपनी इच्छा भर और अपनी देह की शक्ति भर भोगा. पर भोग विलास से इच्छाएं कभी संतुष्ट नहीं होतीं, वे और प्रबल होतीं हैं जैसे अग्निकुंड में घी डालने से अग्नि-ज्वालायें अधिक प्रचंड हो जातीं हैं. यदि विश्व की सभी चीजें - धन, धान्य, पशु, स्वर्ण, रत्न, स्त्रियां आदि किसी एक व्यक्ति की संपत्ति हो जाएँ तब भी वह व्यक्ति संतुष्ट नहीं होगा.  एक ही मार्ग है - आस्वादन की क्षुधा पर विजय. सच्चा आनंद तो वही ले पाते हैं जिन्होंने सांसारिक वस्तुओं की चाह पर विजय पा लिया हो. सहस्त्र वर्षों से मेरा ह्रदय मेरे ऐच्छिक क्रिया-कलापों पर ही केंद्रित रहा है. फिर भी मेरी पिपासा बढती ही गयी, कभी घटने का नाम नहीं लिया. आज पुत्र मैं उसे उखाड़ फेंकता हूँ. आज के बाद मैं अपनी इच्छाओं को ह्रदय से निकल कर, अपने दिन वन में निर्दोष मृग शावकों के साथ बिताऊंगा.
"और हाँ पुरू, मैं तुम से बहुत खुश हूँ. तुम सदैव समृद्ध रहो, यह लो अपना यौवन और लौटा दो मुझे मेरा बुढ़ापा". 

ययाति फिर से जराक्रांत हो गया और पुरू ने अपनी खोयी जवानी वापस पा ली. ययाति ने पुरू को सिंहासन पर बिठाना चाहा पर उन की प्रजा ने इसका विरोध किया. चारो वर्णों के लोग, ब्राह्मणों के नेतृत्व में ययाति के ज्येष्ठ पुत्र यदु के पक्ष में खड़े हो गए. "देवयानी के ज्येष्ठ पुत्र यदु के अधिकार को छीन कर, राजन, आप पुरू को कैसे राजा बना सकते हैं? यदु के बाद देवयानी का ही पुत्र तुर्वसु है उसके बाद शर्मिष्ठा के दो पुत्र द्रह्यु और अनु हैं जो पुरू से बड़े हैं, वे सब पुरू से पहले राजा बनने के अधिकारी हैं. आप इस पर विचार करें."

ययाति ने कहा "सुने आप सब क्यों मैंने पुरू को राजा बनाने का निर्णय लिया है. फिर आप जो उचित समझें वह कहें. मेरे ज्येष्ठ पुत्र यदु ने मेरी आज्ञा का उल्लंघन किया है. पंडितों का कहना है कि जो पुत्र पिता की अवज्ञा करे वह पुत्र नहीं है. जो पुत्र अपने माता-पिता की आज्ञा माने, जो उनका भला चाहे, वही सच्चे अर्थ में पुत्र होता है. पुरू से बड़े मेरे चारो पुत्रों ने मेरी अवज्ञा की है. मात्र पुरू ने मेरा पूरा सम्मान किया है, मेरे सारी बातें मानी है और इसीलिए मैं उसे, अपने कनिष्ठ पुत्र को अपना उत्तराधिकारी बनाता हूँ.  

“नगर वासियों यह भी ध्यान में रखो कि पुरू ने मेरा बुढ़ापा एक सहस्त्र वर्षों के लिए ले लिया था और शुक्र ने भी कहा है कि जो पुत्र मेरा बुढ़ापा ले कर अपना यौवन मुझे देगा वही मेरे बाद राजा बन सकेगा."     

लोगों ने माना कि यदि सर्वगुण सम्पन्न पुत्र अपने माता-पिता की भलाई के लिए काम करता है तो निश्चय ही उस की समृद्धि होनी चाहिए, चाहे वह सबसे छोटा पुत्र ही क्यों न हो. इस तरह ययाति ने पुरू को राजा बनाया और कुछ समय बाद उस ने वानप्रस्थ आश्रम में प्रवेश ले लिया.

यदु के पुत्र यादव कहलाये, तुर्वसु के पुत्र  यवण, द्रह्यु के पुत्र भोज और अनु के पुत्र म्लेच्छ कहलाये. पुरू के पुत्र पौरव हुए, जिस वंश में भरत, भीष्म, युधिष्ठिर आदि ने जन्म लिया.   





(1) शकुंतला ने जिन छः श्रेष्ठ अप्सराओं के नाम गिनाए थे, उनमें विश्वाची भी थी.
उर्वशी पूर्वचित्तिश्च सहजन्या च मेनका ।
विश्वाची च घृताची च षडेवाप्सरसां वराः ।।

Thursday, 30 April 2015

आदि पर्व (19): ययाति उपाख्यान (4)

विवाह के बाद ययाति देवयानी, शर्मिष्ठा और सहस्त्र दासियों के साथ इंद्र की अमरावती के समतुल्य अपनी राजधानी प्रतिष्ठान पुर पहुंचा. देवयानी को ययाति ने अपने महल के अन्तःपुर में रखा और शर्मिष्ठा के लिए अशोक वृक्षों के एक कृत्रिम वन के बीच एक भव्य भवन बनवा दिया. शर्मिष्ठा और उसके साथ आयीं सहस्त्र दासियों के लिए उचित व्यवस्था कर राजा ययाति अपना सारा समय अन्तःपुर में बिताने लगा. समय पर देवयानी ने एक पुत्र को जन्म दिया. राजा के पुत्र होने पर पूरे राज्य में उत्सव मनाये गए. शर्मिष्ठा बरबस अपने बारे में सोचने लगी. अभी तक मैंने पति नहीं चुना है, संतान पता नही कब होंगीं; क्या मेरा नारी जीवन व्यर्थ रह जाएगा? मन ही मन उस ने ययाति से संतान प्राप्ति की ठान ली.

इसी बीच एक दिन अशोक वन में उसे ययाति अकेला मिल गया. दोनों एक दूसरे को देख ठिठक गए. एकांत का लाभ उठाते हुए शर्मिष्ठा ने राजा से प्रणय याचना की: "मेरा नारीत्व व्यर्थ मत चले जाने दो राजन, मुझे पुत्र दो. मैं रूप, गुण और समस्त कलाओं से सम्पन्न हूँ और मैं एक राजा की पुत्री भी हूँ - हर दृष्टि से मैं तुम्हारे अनुकूल हूँ"

"मैं जानता हूँ शर्मिष्ठा, तुम स्वाभिमानी असुरों की राजकन्या हो" ययाति ने उत्तर दिया "तुम्हारा रूप निश्चित ही अनिंद्य है, तुम सभी शुभ लक्षणों से युक्त हो किन्तु शुक्र ने मुझे आदेश दिया है कि मैं तुम्हे अपने पास न आने दूँ.           
"यह कहा गया है राजन कि" शर्मिष्ठा ने कहा "इन पांच अवसरों पर मिथ्या वादन पातक नही है: परिहास में, स्त्री-संसर्ग के उपक्रम में, विवाह काल में, और उस समय जब प्राण संकट में हों या जब सब कुछ लुट रहा हो."    
""राजा अपनी प्रजा का आदर्श होता है. मिथ्यावादी राजा विनाश को आमंत्रित करता है. मुझे कितनी ही बड़ी हानि की आशंका क्यों न हो, मैं मिथ्या वचन कभी नहीं निकालुंगा."

पर शर्मिष्ठा आसानी से छोड़ने वाली नहीं थी. "दूसरी तरह से देखो राजन तो मित्र का विवाह भी अपना ही विवाह होता है और मित्र का पति भी अपना ही पति"
ययाति की नीयत डगमगाने लगी. उस ने एक युक्ति भी सोची जिसकी लंगोट से उसके सद्व्यववहार की मान मर्यादा भी बची रह जाए. "तुम क्या चाहती हो? खुल कर बोलो" उस ने कहा "मैं ने आज तक किसी याचक को निराश नहीं किया है"

शर्मिष्ठा ने कहा "स्त्री रूप में जन्म ले कर भी यदि मैं निस्संतान रह गयी तो मैं घोर पातक की भागी होउंगी. राजन मुझे उस पातक से बचाओ. मुझे एक माँ बनाओ जिस से मैं सर्वोत्कृष्ट धर्म का पालन कर सकूँ."
"और राजन, यह सर्व विदित है कि स्त्री, दास और पुत्र अपने लिए नहीं कमा सकते. वे जो कुछ भी अर्जित करते हैं वह उनके स्वामी / पिता का होता है. मैं देवयानी की दासी हूँ और आप देवयानी के स्वामी हैं. इस लिए राजन आप मेरे भी स्वामी हुए. मेरी कामना पूरी करें स्वामी"   

ययाति को तैयार करने में शर्मिष्ठा को बहत श्रम नहीं करना पड़ा. शीघ्र ही ययाति को उसके कथन में सच्चाई दीखने लगी और और उस ने शर्मिष्ठा को वही सम्मान दिया जिसे वह अब तक मात्र देवयानी को देता आ रहा था. कुछ समय साथ बिता कर वे एक दूसरे से स्नेहसिक्त विदाई ले अपने अपने स्थान को लौट गए. उचित समय पर शर्मिष्ठा ने एक पुत्र को जन्म दिया जिसके मुख पर देवताओं सदृश चमक थी.  देर सबेर देवयानी को भी इस बालक के जन्म का पता चल ही गया. उसके ह्रदय में  भावनाओं का बवंडर घूमने लगा - ईर्ष्या, आश्चर्य, जुगुप्सा. भागी भागी वह शर्मिष्ठा के घर पहुँच पूछने लगी "अपनी इच्छाओं के वशीभूत हो तुमने यह कैसा पाप कर लिया?"
"पिछले वर्ष एक पवित्र आत्मा ऋषि यहाँ आये थे" शर्मिष्ठा ने कहा "वे वेदज्ञ थे और भक्तों को वरदान देने में भी सक्षम थे. मैं ने मातृत्व का धर्म पूरा करने के लिए उन्हें अपनी इच्छा बतायी और यह पुत्र उन्ही के आशीर्वाद का फल है"
"तुम कैसे सोच सकी कि मैं अपनी इच्छाओं में बह कर कुछ ऐसा कर बैठूंगी?" शर्मिष्ठा ने पूछा.

"तब तो ठीक है" देवयानी ने स्वीकार किया  "उस ब्राह्मण का नाम, गोत्र आदि कुछ याद है तुम्हे? पता चले तो मैं भी उस से मिलना चाहूंगी"
"अपने तपोबल से वे सूर्य की तरह देदीप्यमान थे और उन्हें देख कर मैंने उनके विषय में कुछ पूछने की आवश्यकता नहीं समझी"

मन मसोस कर देवयानी ने स्वीकार किया कि ऐसे ब्राह्मण से यदि शर्मिष्ठा को पुत्र मिला है तो कुछ अन्यथा नहीं सोचना है. इस तरह बातें कर देवयानी अपने महल चली गयी.

देवयानी से ययाति के दो पुत्र हुए और "ऋषि" की अनुकम्पा से शर्मिष्ठा को तीन.  एक दिन ऐसा हुआ कि ययाति और देवयानी राजा के विशाल उपवन में विचरण कर रहे थे जब उन्हें दिव्य आभा वाले तीन बालक दिखे. बच्चे इतने सुन्दर थे कि जो देखे बस देखते ही रह जाए. देवयानी उन्हें देख ययाति से पूछ बैठी "देवताओं के बालकों की तरह दीखते ये बच्चे किस के हैं?"

ययाति सोच रहा था कि कैसे आगे बढ़ा जाए पर देवयानी ने राजा के उत्तर की प्रतीक्षा न कर बच्चों से पूछ डाला "किन के बच्चे हो तुम तीनो? तुम्हारे माता पिता कौन हैं?"

बच्चों ने ययाति की ओर इंगित किया और माता का नाम शर्मिष्ठा बताया.  यह कह बच्चे ययाति के निकट आ कर उसके घुटनों से लिपट गए. पर ययाति उन्हें देवयानी की उपस्थिति में दुलार नहीं पाया और दुखी मन बच्चे उसे छोड़ कर रोते हुए अपनी माता के पास चल दिए. राजा अपनी दोष-जन्य कायरता पर लज्जित था किन्तु इतनी भी हिम्मत नहीं थी कि देवयानी के सामने उन्हें रोकने का प्रयास करे. देवयानी सब समझ गयी. पहला प्रहार उस ने अपने पति पर नहीं बल्कि अपनी सहेली और अब सौत पर किया.

"तुम शर्मिष्ठा मेरे ऊपर आश्रित हो, फिर भी मेरे ही ऊपर ऐसा अभिघात?"      
"प्रिय देवयानी, जो कुछ मैंने तुम्हे बताया था एक ऋषि के विषय में वह सब कुछ सत्य है. मैं ने सब कुछ सही और धर्माचरण के अनुकूल किया है. जब तुम ने राजा ययाति को अपना पति चुना था उसी समय मैं भी उसे अपना पति चुन लिया था. और मित्र, सच कहो तो मित्र का पति भी तो अपना ही पति है! तुम ब्राह्मण हो और मैं तुम्हारा सम्मान करती हूँ पर मैं उस से भी अधिक सम्मान इस राजर्षि का करती हूँ."

देवयानी यह सब सुन आग बबूला थी; अपने पति की ओर मुड़ उस ने कहा "तुमने, राजन, मेरे साथ घोर दुर्व्यवहार किया है" "मैं अब यहाँ नहीं रह सकती" ऐसा कहते रोती हुई देवयानी उठ कर अपने पिता के घर की दिशा में चल दी. ययाति घबड़ा गया. उसे मनाने के लिए मधुर बातें बोलते हुए उसके पीछे पीछे चलने लगा. पर देवयानी न मानी. अपने पिता के पास पहुँच कर उस ने घोषणा की "पाप के हाथों धर्म पिट गया. नीच उठ गए हैं और उच्च को गिरा दिया गया है. शर्मिष्ठा ने पुनः मुझे कष्ट पहुंचाया"

"इस राजा के" देवयानी बोलती रही "शर्मिष्ठा से तीन पुत्र हैं और मुझसे मात्र दो" और जोड़ दिया "राजा ययाति शास्त्रज्ञ माना जाता है पर, वह सत्य के पथ से विचलित रहा है"  

ययाति ने अपनी वासना के अभिभूत हो अतिचार किया था (और उसका भयानक फल भी उस ने पाया, जैसा हम देखेंगे). पर जिस चीज ने देवयानी को सबसे अधिक कष्ट पहुंचाया वह था शर्मिष्ठा को तीन पुत्र होना जब कि उसके मात्र दो थे. यहाँ भी वृषपर्व की पुत्री उस पर भारी पड़ी. शर्मिष्ठा एक राजा की पुत्री थी और यह संभव है कि राजा ययाति उसे अधिक ठीक से समझ पाता था और यह भी संभव है कि शर्मिष्ठा के लिए ययाति समकक्ष रहा हो.

यह सुन शुक्र ने ययाति को अदम्य जरा से आक्रान्त हो जाने का शाप दिया. ययाति ने अपनी सफाई दी - शर्मिष्ठा ने मुझ से पुत्र माँगा था - गर्भ धारण के लिए उपयुक्त काल में. वेद कहते हैं कि उस काल में यदि कोई काम पीड़िता किसी पुरुष से एकांत में आग्रह करे और वह पुरुष आगे न बढे तो वह भ्रूण हत्या के पाप का भागी होता है. और इसी कारण मैं शर्मिष्ठा के पास गया था.

"पर मैंने तुम्हे मना किया था उसके निकट जाने से. यदि शर्मिष्ठा ने ऐसी प्रार्थना की थी तो तुम्हारे लिये मुझसे आज्ञा लेना उचित रहता. पर चोरी छुपे आगे बढ़ तुम ने एक चोर का काम किया और तुम अभी से जराक्रांत हो जाओगे."

शुक्र के शाप से ययाति का यौवन तत्काल लुप्त हो गया. उसका शरीर जर्जर हो गया, उस के अंग शिथिल हो गए, उसकी दृष्टि क्षीण हो गयी और उसका तेजस्वी रूप न जाने कहाँ खो गया. ययाति ने शुक्र से प्रार्थना की "मैं अभी तक देवयानी से अघाया नहीं हूँ, अतः भार्गव मुझे कुछ और समय के लिए यौवन रहने दो जिसे मैं देवयानी के साथ बिता सकूँ."  
"मेरी बात तो कभी झूठ जाती नहीं है इस लिए जराक्रांत तो तुम्हे रहना ही पडेगा राजन, पर मैं यह छूट दे रहा हूँ कि तुम यदि कर सको तो अपनी जरावस्था को अपने किसी पुत्र की युवावस्था से बदल लो. तुम्हारा पुत्र जरा जीर्ण हो जाएगा और तुम तरुण"

ययाति व्यवहारिक था. उस ने शुक्र से कहा "भार्गव, कृपया ऐसा वर दो कि जो पुत्र मेरी जरावस्था ले कर अपना यौवन मुझे दे वही मेरे बाद राजा बने और उसके धर्म और प्रतिष्ठा की पताका सदा लहराती रहे"
शुक्र मान गया "राजन, जो पुत्र भी तुम्हे अपना यौवन देगा वही तुम्हारा उत्तराधिकारी बनेगा, वह पूर्णायु भोगेगा और उसे अनेक पुत्र होंगे.

वृषपर्व के नगर से ययाति और देवयानी वापस ययाति की राजधानी की और चले. ययाति चल नहीं पा रहा था. चलना तो दूर वह ठीक से खड़ा भी न हो पा रहा था. देवयानी के सहारे पर धीरे धीरे वह आगे बढ़ रहा था. और देवयानी? वह क्या सोच रही थी? वह चाहती थी शर्मिष्ठा को उसके किये का दंड मिले पर शर्मिष्ठा तो यथावत रह गयी और उसे ही अपने जीर्ण शीर्ण स्वामी को ढोते हुए चलना पड़ रहा था.

Wednesday, 29 April 2015

आदि पर्व (18): ययाति उपाख्यान (3)

कुछ समय बाद देवयानी चित्ररथ के उसी उपवन में विहार करने आई थी. उसकी सेवा में शर्मिष्ठा अपनी सहस्त्र दासियों के साथ थी. फूलों के मधु पी पी कर थकी देवयानी लेट कर शर्मिष्ठा से अपने पाँव दबवा रही थी जब मृग के आखेट में निकला ययाति पुनः उस उपवन में आया. दोनों सुंदरियों को देख वह चकित हो गया.

"कौन हो तुम दोनों? तुम्हारे पिता कौन हैं?" ययाति ने पूछा "ये सहस्त्र दासियाँ अवश्य तुम्हारी सेवा में हैं"
"मैं असुरों के गुरु शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी हूँ. तुम ने कभी मेरा हाथ धरा था." देवयानी ने कहा "और यह मेरी सेवा में लगी शर्मिष्ठा है, असुर राज वृषपर्व की पुत्री"     

ययाति ने पूछा "असुर राज की पुत्री तुम्हारी दासी  कैसे बनी हुई है?"

"सब कुछ प्रारब्ध की बात है, इन पर कुछ मत सोचो" देवयानी बोली "तुम अपने विषय में बताओ. वस्त्रों से तुम राज परिवार के लग रहे हो. तुम्हारी वाणी किसी वेदज्ञ की लग रही है. कौन हो तुम? क्या नाम है तुम्हारा? तुम्हारे पिता कौन हैं?"
"जब मैं ब्रह्मचर्य आश्रम में था तो मैंने समस्त वेदों का अध्ययन किया था" ययाति ने कहा "मैं ययाति हूँ, एक राजा का पुत्र और स्वयं एक राजा."
"तुम इधर क्यों आये हो राजन?" देवयानी ने पूछा.
"मैं आखेट में मृगों के पीछे था जब प्यास के चलते जल खोजते इधर चला आया. यदि मेरा यहाँ आना तुम्हे अच्छा नहीं लग रहा हो तो आदेश दो मैं तुरंत चला जाऊंगा"  

"नहीं राजन, अपनी सब दासियों के साथ मैं तुम्हारे आदेश की प्रतीक्षा कर रही हूँ" देवयानी ने बिना समय गंवाए कहा "तुम्हारी समृद्धि हो राजन, आओ मेरे सखा और स्वामी बनो."

“मैं तुम्हारे योज्ञ नहीं हूँ” ययाती ने कहा “तुम्हारे पिता शुक्र हैं, मुझ से बहुत ऊँचे. मृगलोचने, चारो वर्ण ब्रह्मा के शरीर से निकले हैं पर उनकी शुद्धता एक सामान नहीं है. मैं क्षत्रिय हूँ और ब्राह्मण कन्या से विवाह नहीं कर सकता"

पर देवयानी ययाति को इतनी आसानी से छोड़ने वाली नहीं थी. "पर ब्राह्मणों और क्षत्रियों में पहले भी सम्बन्ध स्थापित हो चुके हैं और भविष्य में भी होंगे. तुम एक राजर्षि के पुत्र हो, ययाति, मेरे इस हाथ को तुम्हारे पहले कभी किसी पुरुष ने नहीं धरा था. जब नहुष-पुत्र ने इसे एक बार धर लिया तो अब और कौन इसे धर सकता है. आओ राजन मेरे स्वामी बनो."

"बुद्धिमान मानते हैं कि क्रुद्ध विषधर सर्प से भी अधिक एक व्यक्ति को किसी ब्राह्मण से बच कर रहना चाहिए". ययाति ने कहा "सर्प तो एक बार में एक व्यक्ति को ही मार सकता है पर क्रुद्ध ब्राह्मण एक ही साथ पूरे नगर या पूरे राज्य को नष्ट कर सकता है. मैं ब्राह्मणों से बच कर रहूंगा और तुम से मैं तब तक विवाह नहीं कर सकता जब तक तुम्हारे पिता मेरे हाथों में तुम्हारा हाथ नहीं देते."

देवयानी ने तब एक दासी को शुक्र के पास भेजा. दासी ने सारी बात शुक्र को बतायी और शुक्र भी उपवन में आ गए. शुक्र को आया देख राजा ययाति ने ससम्मान उनकी पूजा-अर्चना की और हाथ जोड़ शुक्र के आदेश की प्रतीक्षा में खड़ा हो रहा. देवयानी ने अपने पिता को बताया कि किस प्रकार जब वह महा कष्ट में थी तो राजा ययाति ने उसके हाथ गहे थे और कहा "मेरी प्रार्थना है कि आप मुझे इस राजा के हाथों दान कर दें. मैं अन्य किसी ब्यक्ति से विवाह नहीं करुँगी"

"मेरी पुत्री ने तुम्हे चुन लिया है" शुक्र ने कहा "आओ नहुष-पुत्र, मैं उसे तुम्हे सौंप रहा हूँ, स्वीकार करो"
"पर विप्रवर, आप मुझे वर दें कि ऐसा करने से वर्ण संकर संतानोत्पत्ति का पाप मुझ पर नही आएगा" ययाति बहुत सतर्क हो चला है.
शुक्र ने उसे आश्वस्त किया "उस पाप से मैं तुम्हे मुक्त करता हूँ, निश्चिन्त रहो. देवयानी के साथ आनंदमय जीवन बिताओ. वृषपर्व की पुत्री शर्मिष्ठा देवयानी के साथ जायेगी. उस का सम्मान करना पर उसे अपने निकट मत बुलाना."

शुभ मुहूर्त में ययाति-देवयानी का विवाह संस्कार सभी शास्त्रोक्त कर्मों के साथ संपन्न हुआ.  देवयानी के साथ जब ययाति अपनी राजधानी लौटा तो उसके साथ एक सहस्त्र दासियाँ भी थी और शर्मिष्ठा भी.

Tuesday, 28 April 2015

आदि पर्व (17): ययाति उपाख्यान (2)

संजीवनी महाविद्या मिल जाने के बाद सुरों की मनः स्थिति बदल गयी. पहले वे असुरों के भय से छिपे फिरते थे अब उनके उत्साह ने आक्रामक रूप ले लिया था. कच के देवलोक पहुँचने के तुरंत बाद, इंद्र के नेतृत्व में वे असुरों से युद्ध करने निकल पड़े. मार्ग में गन्धर्व चित्ररथ का एक उपवन था जिस के सरोवर में असुर ललनाएँ जल क्रीड़ा कर रही थीं. इंद्र ने पवन का रूप धर किनारे रखे उन के वस्त्र आपस में मिला दिए. जब वे बाहर निकलीं तो मिले जुले वस्त्रों के ढेर से निकालते हुए जो जिसके हाथ आया उस ने वही पहन लिया. इसी क्रम में देवयानी के कपडे असुर राज वृषपर्व की पुत्री शर्मिष्ठा ने पहन लिए.

कुछ ही महीने हुए जब देवयानी ने कच के छल को पहचाना था. अब वह सब कुछ सशंकित दृष्टि से देखती थी. शर्मिष्ठा ने उसी के कपडे भला क्यों पहने? राजा की बेटी होने के चलते क्या वह असुरा अपने आप को ब्राह्मण के समतुल्य समझने लगी?

"शर्मिष्ठा, तुम ने मेरे वस्त्र कैसे पहन लिए?" देवयानी ने कहा "मैं तुम्हारे राज-गुरु की पुत्री हूँ, चलो, उतारो मेरे वस्त्र"
शर्मिष्ठा राजा की पुत्री थी और उसे इस तरह की बोली सुनने की आदत नहीं थी; बिफर पड़ी.

"तुम्हारे वस्त्र? तुम्हारा है ही क्या देवयानी? तुम्हारे चारण पिता मेरे पिता की स्तुति, वन्दना में लगे रहते हैं और मेरे पिता के दिए दान या भिक्षा से तुम्हारा घर चलता है. मैं असुर-राज की पुत्री हूँ. मेरे पिता भिक्षा देते हैं; तुम्हारे पिता भिक्षा स्वीकार करते हैं. तुम्हारे कपडे, कपडे ही क्यों, तुम्हारा सब कुछ मेरे पिता का दिया हुआ है."

क्रोध से देवयानी की आँखें लाल हो गयीं और वह शर्मिष्ठा की देह से अपने वस्त्र खींचने लगी. शर्मिष्ठा ने उसे धक्के दे कर निकट के एक सूखे कुँए में गिरा दिया. जब उसे लगा कि देवयानी बचेगी नहीं तब वह संतुष्ट मन से नगर की दिशा में चल दी.

शर्मिष्ठा के जाने के कुछ देर बाद, मृग के आखेट में निकला, चन्द्रवंश का प्रतापी राजा ययाति वहां पानी खोजते आया. ययाति नहुष का पुत्र था, पर ज्येष्ठ पुत्र नहीं. नहुष के ज्येष्ठ पुत्र यति ने अपना राज्याधिकार त्याग एक तपस्वी का जीवन अपना लिया था. चन्द्रवंश में कनीय पुत्रों के सिंहासन पर आसीन होने के उदाहरण बार बार आये हैं. प्रतीप का ज्येष्ठ पुत्र देवापि चर्म रोग से पीड़ित था जिस के चलते हस्तिनापुर के ब्राह्मणों ने उसका राज्याभिषेक न होने दिया और उसका अनुज शांतनु राजा बना था. धृतराष्ट्र के दृष्टि-हीन होने के चलते उसका अनुज पाण्डु राजा बना था (वैसे पाण्डु की अकाल मृत्यु के चलते धृतराष्ट्र बाद में राजा बन पाया था). ज्येष्ठ कौन्तेय कर्ण अवैध जन्म के कारण राजा नहीं बन सका. और जैसा हम देखेंगे ययाति का अपना ज्येष्ठ पुत्र भी राजा नहीं बन पाया.  

ययाति मृग के आखेट में निकला हुआ था जब उसे कुँए में गिरी देवयानी मिली थी. चन्द्रवंशियों के मृग के आखेट में भी संभवतः प्रच्छन्न भाव कामेच्छा के हैं - दुष्यंत को आखेट में शकुन्तला मिली थी, शांतनु को सत्यवती और पाण्डु का प्राणहारी शाप उसे मृग के आखेट में ही मिला था.

पानी खोजते जब ययाति ने कुँए में झांका तो बस देखता रह गया. पानी तो नहीं था पर अलौकिक रूपवती एक तरुणी थी कुँए में; उस के मुख पटल पर दिव्य आभा थी और उस के नख ऐसे चमक रहे थे जैसे वे परिष्कृत ताम्र पत्र के बने हों.
 "कौन हो तुम, श्यामे?" ययाति ने पूछा "तुम्हारे पिता कौन हैं और कैसे तुम इस कुंए में गिर गयी हो?" ययाति ने देवयानी को श्यामा कहा. ब्राह्मण सुता का श्यामा होना कुछ असामान्य लगता है. पर देवयानी की दोनों मातामह असुर कुल की थीं, संभवतः इसी लिए वह श्याम-वर्णा थी. (ध्यातव्य है कि बृहस्पति की एक पत्नी तारा भी श्याम-वर्णा ब्राह्मणी थी.)

"मैं आचार्य शुक्र की पुत्री हूँ, उसी शुक्र की जो युद्ध में मृत असुरों को पुनर्जीवित कर देते हैं." देवयानी ने कहा "तुम देखने से राज परिवार के लगते हो. लो मेरे दाहिने हाथ को पकड़ो और मुझे बाहर खींच निकालो".

ययाति ने देवयानी के हाथ पकड़ उसे ऊपर निकाल लिया. फिर उस के बारे में सोचते हुए अपनी राजधानी की ओर निकल पड़ा. देवयानी का सौंदर्य उस के ह्रदय में समा गया था. कुछ ही दिनों में वह फिर पानी खोजते हुए उसी जलाशय के निकट आया था, शायद अंदर से देवयानी को पुनः देखने की इच्छा उसे वहां धकेल लायी थी.

देवयानी ने कुँए से बाहर निकल कर अपनी दासी से शुक्र को कहलवाया कि वह वापस वृषपर्व के नगर में नहीं जायेगी. शुक्र भागे भागे आये, देवयानी ने उसे सारी बात बतायी - उनके कपडे हवा के चलते मिल गए थे, शर्मिष्ठा ने उसके कपड़े पहन लिए थे और टोकने पर कि गुरु-पुत्री के कपडे उस ने कैसे पहन लिए शर्मिष्ठा ने शुक्र को एक भाड़े का प्रशंसक बताया जो पैसों के बदले वृषपर्व की स्तुति करता है.
"और जब मैंने अपने वस्त्र छीनने का प्रयास किया तो उस ने उस कुँए में मुझे गिरा दिया" कुँए की तरफ हाथ बढ़ाते हुए देबयानी ने कहा, और रोते हुए पूछने लगी "क्या आप वास्तव में वृषपर्व की प्रशंसा कर के उस की दी हुई भिक्षा स्वीकार करते हैं?"

"नहीं देवयानी, तुम किसी भिक्षुक या किसी स्तुवत की पुत्री नहीं हो" शुक्र ने कहा "तुम्हारा पिता किसी की स्तुति नहीं करता, सभी उस की स्तुति करने वाले हैं - चाहे वृषपर्व हो, चाहे राजा ययाति चाहे इंद्र ही क्यों नहीं हो. मेरी शक्ति अचिन्त्य ब्रह्म से आती है और मैं बस उसी का स्तुवत हूँ"
“पर याद रखना देवयानी जो व्यक्ति दूसरों के कटु अप्रिय बातों को सह लेता है वह संसार जीत लेता है. जैसे सफल सारथी घोड़ों को हमेशा नियंत्रण में रखता है वैसे ही सफल व्यक्ति अपने क्रोध को हमेशा नियंत्रण में रखता है. अपने क्रोध को जीत लो तो सब कुछ जीत लोगी. जो अपने क्रोध को दबा सकता है और दूसरों के कटु वचनों को अनसुना कर सकता है वह निश्चय ही धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष सिद्ध कर पाता है.”

"मैं क्रोध और क्षमा दोनों की शक्तियां जानती हूँ" शुक्र का प्रवचन सुन देवयानी बोल पड़ी "पर यदि कोई शिष्य अशिष्ट व्यवहार करे तो उसका भला चाहने वाले गुरु को कभी उसे क्षमा नहीं करना चाहिए. शर्मिष्ठा के निष्ठुर शब्दों से मेरा हृदय जल रहा है. मैं ऐसी जगह नहीं रह सकती जहाँ सद्व्यवहार और कुलीनता का कोई मूल्य नहीं है."  

यह सुन शुक्र भी रुष्ट हुआ और उस ने वृषपर्व से जा कहा "राजन, गरिष्ट भोजन की तरह पाप पचाए नहीं पचते. उनका फल भोगना ही पड़ता है. तुम्हारे अनुयायियों ने विद्वान और कुलीन ब्राह्मण कच की तीन बार ह्त्या की है और अब तुम्हारी पुत्री शर्मिष्ठा ने देवयानी के साथ कुव्यवहार किया है, वृषपर्व, मैं तुम्हारे राज्य को छोड़ना चाहता हूँ"

"हे भार्गव" हतप्रभ वृषपर्व ने कहा "यदि आप चले जाएंगे तो हम लोग यहाँ किसी प्रकार नही टिक पाएंगे और पूरे असुर समाज को पाताल में जा छुपना पडेगा."
"असुर समाज को जहाँ जाना पड़े, वहां जाए" शुक्र ने कहा "यदि देवयानी यहाँ नहीं रुक सकती तो मैं भी नहीं टिक सकता."  
"किन्तु भार्गव" वृषपर्व ने विनती की "जो कुछ भी असुरों का है वह आप को समर्पित है, वह आप ही का है. मैं भी आप की बात से बाहर नहीं हूँ. आप जो चाहते हैं आज्ञा दें, बस हमें छोड़ कर न जाएँ." 
"अगर यह सच है राजन तो जाओ और देवयानी को यहाँ रहने के लिए मना लो"

जब देवयानी ने यह सब सुना तो उस ने अपने रुकने की शर्त रखी "शर्मिष्ठा अपनी सहस्त्र दासियों के साथ सदैव मेरी सेवा में लगी रहे और विवाह के बाद मैं जहाँ भी जाऊं वहां भी शर्मिष्ठा मेरी सेवा में मेरे साथ रहे"

शुक्र के चले जाने से असुर समाज की दशा बहुत बुरी हो जाती. संजीवनी महाविद्या तो चली ही जाती, असुर राज में यज्ञ आदि भी न हो पाते. शर्मिष्ठा यह समझती थी. उस ने देवयानी की शर्तें सुनी तो अपने समाज को दुर्दशा से बचाने के लिए तत्काल, बिना एक भी क्षण गंवाए तैयार हो गयी. "मैं अपने  कुव्यवहार के चलते शुक्र को नहीं जाने दूंगी; यदि उन्हें रोकने के लिए मुझे देवयानी की दासी बननी पड़े तो वह भी सहर्ष स्वीकार है." और इस तरह अपनी एक सहस्त्र दासियों के साथ शर्मिष्ठा स्वयं देवयानी की सेवा में उपस्थित हुई.  "आज से मैं तुम्हारी दासी हूँ देवयानी, सदैव तुम्हारी आज्ञा की प्रतीक्षा करुँगी."

"किन्तु मैं तो तुम्हारे पिता के दिए दान-भिक्षा पर पलती हूँ, तुम्हारे पिता के स्तुवत की पुत्री हूँ, तुम कैसे मेरी दासी बन रही ही?"

"अपने समाज के सुख-समृद्धि के लिए हर व्यक्ति को सब कुछ करने के लिए तैयार रहना चाहिय" शर्मिष्ठा ने प्रसन्न मुख से कहा "जहाँ कही भी तुम्हारे पिता तुम्हे विवाह कर भेजेंगे, मैं सदैव तुम्हारी सेवा में रहूंगी"

और इस तरह असुर राज की पुत्री शर्मिष्ठा भृगु की पौत्री देवयानी की दासी बन गयी.

Monday, 27 April 2015

आदि पर्व (16): ययाति उपाख्यान (1)

वैशम्पायन ने कहा “मैं अब उन राजर्षियों के पवित्र वंश वृक्ष का वर्णन करता हूँ, जिस में यादव और भारत वंश के राजा हुए थे.

प्रचेतस के दस पुत्रों ने अपने मुखों की अग्नि से पृथ्वी की विषाक्त वनस्पतियों को जला कर इसे रहने योग्य बनाया था. इन दस के बाद प्रचेतस के एक और पुत्र हुआ दक्ष. दक्ष से सभी जीवों का उद्भव हुआ है. उस की पच्चास पुत्रियाँ थीं. उस ने अपनी दस पुत्रियों को धर्म को दिए थे, तेरह कश्यप को और सत्ताईस चंद्र को. उस की सबसे बड़ी पुत्री से कश्यप ने बारह आदित्य पैदा किए थे. इन्हीं में इंद्र और सूर्य (विवस्वत) भी थे. विवस्वत का एक पुत्र था मनु. मनु के वंश में मानवों के जन्म हुए – ब्राह्मणों, क्षत्रियों और अन्य. बाद में ब्राह्मण और क्षत्रिय परस्पर मिल गये और वेदाध्ययन में लग गये. तब मनु के दस क्षत्रिय संतान हुईं: वेन, धृष्णु, नरिष्यंत, नाभाग, इक्ष्वाकु, करूष, शर्याती, आठवीं एक पुत्री इला, पृषध्रु और नाभागारिष्ट. इन सबों ने क्षात्र धर्म स्वीकार किया.

पुरुरवा का जन्म इला से हुआ था. यह भी सुना गया है कि इला उस की माता और पिता दोनो ही थी. मनुष्य होते हुए भी पुरुरवा अमर जीवों (देव, गंधर्व आदि) के साथ विचरता था. अपनी शक्ति के मद में चूर हो पुरुरवा ने ब्राह्मणों के धन छीन लिए थे. सनतकुमार ने उसे समझाया  भी था किंतु जब उस ने उनकी भी नहीं सुनी तो ऋषियों के कोप से उसका नाश हुआ था.

पुरुरवा गंधर्वों के क्षेत्र से यज्ञ के लिए तीन अग्नियों को पृथ्वी पर लाया था. वहीं से वह अपने साथ उर्वशी भी लेता आया था. अप्सरा उर्वशी और पुरुरवा के पुत्र आयुष का बुद्धिमान और पराक्रमी पुत्र नहुष हुआ था. नहुष ने अपने राज्य का विस्तार किया था और धर्मनिष्ठ हो कर उस ने पूरी पृथ्वी पर शासन किया. उस ने पित्रियों, देवताओं, ऋषियों, ब्राह्मणों, गंधर्वों, नागों, राक्षसों, क्षत्रियों और वैश्यों को यथोचित आलंबन दिया था. अपने तप, निष्पक्ष न्याय और शक्ति से उस ने इंद्र बन कर इंद्रलोक पर भी राज किया. नहुष के छः पुत्र थे, भागवत के अनुसार यति, ययाति, संयति, आयाति, वियाति और कृति.

यति ने संन्यास ले लिया था और ययाति राजा बना. ययाति बहुत प्रतापी राजा था. उस ने पूरे विश्व पर राज क्या, और कभी अपने जीवन में कोई युद्ध नहीं हारा. उसकी दो पत्नियाँ थीं: देवयानी और शर्मिष्ठा. देवयानी के पुत्र यदु और तुर्वसु थे शर्मिष्ठा के द्रह्यु, अनु और पुरु. देवयानी शुक्र की पुत्री थी. शुक्र के शाप से जराक्रांत होने पर ययाति ने अपने पुत्रों से उनका यौवन माँगा. जो पुत्र भी ऐसा करता – पिता को अपना यौवन देता – उसे ययाति की जरावस्था झेलनी पड़ती.  उसका कनिष्ठ पुत्र पुरु इस के लिए तैयार हो गया और ययाति ने फिर एक सहस्त्र वर्षों तक यौवन का आनंद लिया.

“इच्छायें कभी शांत नहीं होतीं” यह कहते हुए एक सहस्त्र वर्ष बाद उस ने पुरु को उसका यौवन लौटा कर अपनी जरावस्था वापस ले ली. “इच्छाओं को जितना पूरा करो, यज्ञ की अग्नि में घी डालने की तरह वे उतनी बलवती होती जाती हैं. यदि किसी को पृथ्वी का सारा धन,स्वर्ण, रत्न, स्त्रियाँ – सब कुछ मिल जाए – तब भी वह कभी तृप्त नहीं होगा.” यह देख ययाति पुरु को राजा बना वानप्रस्थ हो गया और अपनी तपस्या से पुण्य अर्जित कर मृत्योपरांत स्वर्ग लोक को गया.   

लेकिन जनमेजय संतुष्ट नहीं हुआ और उसके अनुरोध पर वैशम्पायन ने ययाति की कथा विस्तार में सुनाई.

तीनो लोकों पर आधिपत्य के लिए प्राचीन काल में सुरों और असुरों के बीच सहस्त्रों वर्षों तक युद्ध हुए. युद्ध में विजय श्री की प्राप्ति के लिए दोनो यज्ञ किया करते थे. सुरों ने अंगिरस के पुत्र वृहस्पति को अपना आचार्य बनाया था और असुरों ने भृगु के पुत्र शुक्र को. शुक्र संजीविनी महाविद्या जानता था और युद्ध में मारे गये असुरों को वह पुनर्जीवित कर देता था. वृहस्पति इस महविद्या से अनिभिज्ञ था और सुरों की संख्या घटती जा रही थी. 

थक कर सुरों ने वृहस्पति के ज्येष्ठ पुत्र कच को असुर राज वृषपर्व की नगरी भेजा जहाँ वह शुक्र का शिष्यत्व ले कर संजीविनी विद्या किसी तरह, चोरी छुपे सीख ले. प्रतिद्वंद्वी वृहस्पति के पुत्र का शुक्र ने स्वागत किया और कच को अपने आश्रम में जगह दी. और कच ने एक सहस्त्र वर्ष तक ब्रह्मचारी रह उनकी सेवा करने का संकल्प लिया.

कच आश्रम में एक समर्पित, स्वाध्यायी, ब्रह्मचारी की भाँति रहने लगा. आश्रम का कोई कार्य उसके लिए बहुत छोटा या बहुत कठिन नहीं था. वह गौ के साथ वन भी चला जाता था और संध्या-पूजन में देवयानी की भी सहायता करता था. कुछ ही दिनों में शुक्र उसे बहुत मानने लगे थे. वह शुक्र को तो पूरा सम्मान देता ही था, देवयानी की आवश्यकताओं के प्रति भी सचेत रहता था. वन से देवयानी के लिए भाँति भाँति के पुष्प, पल्लव, फल आदि लाता था साथ ही संगीत और नृत्य से भी वह देवयानी का मनोरंजन करता था.  कुछ ही वर्षों में देवयानी को लगने लगा कि वह कच के बिना जीवित नहीं रह सकेगी.

असुर बृहस्पति के पुत्र के प्रति सशंकित थे. धीरे धीरे उन्हें विश्वास हो चला कि बृहस्पति ने कोई गहरी चाल चली है. चाल कुछ भी हो कच का वध कर देने से सब निष्फल हो जाएगा. यह सोच उन्होंने एक दिन वन में कच को मार डाला और उस के शरीर के टुकड़े कर वन्य जंतुओं को खिला दिए. संध्या पूजन की बेला तक कच रोज आ जाता था. जब गौवें बिना कच के लौट आयीं तो देवयानी से न रहा गया. उस ने शुक्र से अपने संदेह कहे - या तो कच कही गिर पड़ा होगा या हिंसक जंतु उसे खा गए होंगे - "कुछ भी करें पर उसे पुनर्जीवित कर यहाँ लेते आएं”.

शुक्र ने मृत संजीवनी मन्त्र पढ़ कर कच का आह्वान किया और बाघ, गीदड़ों के उदर चीरते हुए कच उपस्थित हो गया. देवयानी ने देर से आने का कारण पूछा तो कच ने सारी बात बताई. "मैं तो मर चुका था. होम के लिए जलावन और पूजन के लिए कुश चुन कर जैसे ही मैं आश्रम की ओर चलने को तैयार हो गौवों को एकत्रित कर रहा था कि कुछ असुरों ने मेरा परिचय पूछा. "मैं बृहस्पति का पुत्र कच हूँ" सुनते ही उन्होंने मेरी ह्त्या कर मुझे बाघ गीदड़ों को खिला दिया. मुनिवर के आदेश पर मैं उन जंतुओं के उदर चीर उपस्थित हुआ हूँ."

एक दूसरे अवसर पर जब देवयानी के लिए कच वन में पुष्प एकत्रित कर रहा था, असुरों ने उसे मार कर उसकी देह को पीस कर अवलेह बना समुद्र में प्लावित कर दिया. संध्या बेला देवयानी ने पुनः शुक्र से प्रार्थना की. शुक्र ने मंत्रोच्चारण कर कच का आह्वान किया और कच फिर पुनर्जीवित हो आ गया. देवयानी ने बातों बातों में उसे बता दिया कि दोनों अवसरों पर शुक्र ने उसके (देवयानी के) अनुरोध पर कच को पुनर्जीवित किया था.

कुछ दिनों बाद असुरों ने शुक्र को मद्य-पान के लिए आमंत्रित किया. शुक्र मदिरा प्रेमी थे और तब तक पीते रहे जब तक सारी मदिरा समाप्त नहीं हो गयी. डगमगाते कदमों से वे अपने आश्रम की ओर चले. दूर से उन्होंने देवयानी को आश्रम के द्वार पर बैठे रोते देखा. वे समझ गए और देवयानी को समझाने लगे:

"कच का असुरों ने फिर वध कर दिया है. मैं उसे कितनी बार वापस ला पाउँगा? किसी के लिए तुम्हारा इतना विलाप करना ठीक नहीं है."
पर देवयानी नहीं मानी और शुक्र देवयानी की बात नहीं टाल सके. संकल्प ले कर जब कच का आह्वान किया तो उनके उदर से कच की बोली सुनाई पड़ी.

"असुरों ने मेरा वध कर, मुझे जला कर, भस्म को मद्य में मिला कर, आप को पिला दिया है"

स्थिति गंभीर थी. शुक्र ने देवयानी को पूरी स्थिति बतायी;  शुक्र और कच का अब एक साथ जीवित रहना संभव नहीं लग रहा था.
"अब मैं क्या कर सकता हूँ? कच को उसका जीवन मेरी मृत्यु के बाद ही मिल सकता है. बिना मेरे उदर चीरे वह बाहर नहीं आ सकता और उसके बाद मैं जी नहीं सकूंगा. पर तुम कह रही हो कि बिना कच के तुम जी नहीं सकती और अगर तुम्ही नहीं रहोगी तो मैं जी कर क्या करूंगा?"

और शुक्र ने अपने उदर में स्थित कच को महाविद्या सिखाई, कच उनकी देह चीर कर बाहर निकला और अपनी नयी सीखी महाविद्या से उस ने अपने गुरु को पुनर्जीवित किया. देवयानी प्रफुल्ल थी पर शुक्र बोझिल दीख रहे थे. पुत्री के प्रेम के चलते वे अपने यजमान के हितों की रक्षा नहीं पर पाये थे.

यह सब उस के सुरा पान के चलते हुआ था, यह सोच उस ने उस दिन से ब्राह्मणों के लिए मद्य पान वर्जित कर दिया. “जो नीच ब्राह्मण आज के बाद मद्यपान करेगा वह अपने सभी पुण्य खो देगा” शुक्र ने कहा “और वह ब्रह्म हत्या का पापी माना जाएगा.“

कच का लक्ष्य सिद्ध हो गया था पर उसके सहस्त्र वर्ष अभी पूरे नहीं हुए थे. अवधि पूरी होने पर गुरु के आशीष ले वह चलने की तैयारी करने लगा. गुरु को प्रणाम कर वह देवयानी की तरफ उन्मुख हुआ. इस के पहले कि वह कुछ बोले देवयानी बोल पड़ी "मैं तुम्हारे पिता बृहस्पति का उतना ही सम्मान करती हूँ कच, जितना तुम अपने गुरु, मेरे पिता का करते हो" फिर बिना किसी वाक् छल, बिना लज्जाशीलता का कोई बोझ उठाये उस ने कच से विवाह का प्रस्ताव रख दिया. कच को इस प्रस्ताव की आशंका थी पर वह कभी सोच नहीं सकता था कि यह विवाह प्रस्ताव इतना अनायास, बिना किसी छद्म के, ऐसे सरल वार्तालाप में आ जाएगा.


पर कच को यह स्वीकार्य नहीं था. उस ने कहा " मेरा पुनर्जन्म शुक्र के शरीर से हुआ है” कच ने कहा “इस तरह भी तुम मेरी बहन हो देवयानी, विवाह के विचार ही घोर पातक हैं. ऐसा मत करो. मैं तुम्हे आजन्म उसी स्नेह और श्रद्धा से याद करूँगा जिस से तुम्हारे पिता आचार्य शुक्र को"

कच को नहीं मानता देख देवयानी ने उसे शाप देते हुए  कहा "जिस महाविद्या को पाने के लिए कच तुम ने मेरे साथ प्रेम का छल किया था वह विद्या हर अवसर पर तुम्हे छलेगी  - जब कभी इस की आवश्यकता पड़ेगी तुम इसे भूल जाओगे"

कच काँप गया. "किन्तु देवयानी तुम्हारा यह शाप उस व्यक्ति पर नहीं लगेगा जिसे मैं यह विद्या सिखाऊंगा" उस ने भी प्रत्युत्तर दिया और चलते चलते जोड़ दिया "भृगु की पौत्री, मैं तो क्या कोई ब्राह्मण तुम से विवाह नहीं करेगा".