Thursday, 30 April 2015

आदि पर्व (19): ययाति उपाख्यान (4)

विवाह के बाद ययाति देवयानी, शर्मिष्ठा और सहस्त्र दासियों के साथ इंद्र की अमरावती के समतुल्य अपनी राजधानी प्रतिष्ठान पुर पहुंचा. देवयानी को ययाति ने अपने महल के अन्तःपुर में रखा और शर्मिष्ठा के लिए अशोक वृक्षों के एक कृत्रिम वन के बीच एक भव्य भवन बनवा दिया. शर्मिष्ठा और उसके साथ आयीं सहस्त्र दासियों के लिए उचित व्यवस्था कर राजा ययाति अपना सारा समय अन्तःपुर में बिताने लगा. समय पर देवयानी ने एक पुत्र को जन्म दिया. राजा के पुत्र होने पर पूरे राज्य में उत्सव मनाये गए. शर्मिष्ठा बरबस अपने बारे में सोचने लगी. अभी तक मैंने पति नहीं चुना है, संतान पता नही कब होंगीं; क्या मेरा नारी जीवन व्यर्थ रह जाएगा? मन ही मन उस ने ययाति से संतान प्राप्ति की ठान ली.

इसी बीच एक दिन अशोक वन में उसे ययाति अकेला मिल गया. दोनों एक दूसरे को देख ठिठक गए. एकांत का लाभ उठाते हुए शर्मिष्ठा ने राजा से प्रणय याचना की: "मेरा नारीत्व व्यर्थ मत चले जाने दो राजन, मुझे पुत्र दो. मैं रूप, गुण और समस्त कलाओं से सम्पन्न हूँ और मैं एक राजा की पुत्री भी हूँ - हर दृष्टि से मैं तुम्हारे अनुकूल हूँ"

"मैं जानता हूँ शर्मिष्ठा, तुम स्वाभिमानी असुरों की राजकन्या हो" ययाति ने उत्तर दिया "तुम्हारा रूप निश्चित ही अनिंद्य है, तुम सभी शुभ लक्षणों से युक्त हो किन्तु शुक्र ने मुझे आदेश दिया है कि मैं तुम्हे अपने पास न आने दूँ.           
"यह कहा गया है राजन कि" शर्मिष्ठा ने कहा "इन पांच अवसरों पर मिथ्या वादन पातक नही है: परिहास में, स्त्री-संसर्ग के उपक्रम में, विवाह काल में, और उस समय जब प्राण संकट में हों या जब सब कुछ लुट रहा हो."    
""राजा अपनी प्रजा का आदर्श होता है. मिथ्यावादी राजा विनाश को आमंत्रित करता है. मुझे कितनी ही बड़ी हानि की आशंका क्यों न हो, मैं मिथ्या वचन कभी नहीं निकालुंगा."

पर शर्मिष्ठा आसानी से छोड़ने वाली नहीं थी. "दूसरी तरह से देखो राजन तो मित्र का विवाह भी अपना ही विवाह होता है और मित्र का पति भी अपना ही पति"
ययाति की नीयत डगमगाने लगी. उस ने एक युक्ति भी सोची जिसकी लंगोट से उसके सद्व्यववहार की मान मर्यादा भी बची रह जाए. "तुम क्या चाहती हो? खुल कर बोलो" उस ने कहा "मैं ने आज तक किसी याचक को निराश नहीं किया है"

शर्मिष्ठा ने कहा "स्त्री रूप में जन्म ले कर भी यदि मैं निस्संतान रह गयी तो मैं घोर पातक की भागी होउंगी. राजन मुझे उस पातक से बचाओ. मुझे एक माँ बनाओ जिस से मैं सर्वोत्कृष्ट धर्म का पालन कर सकूँ."
"और राजन, यह सर्व विदित है कि स्त्री, दास और पुत्र अपने लिए नहीं कमा सकते. वे जो कुछ भी अर्जित करते हैं वह उनके स्वामी / पिता का होता है. मैं देवयानी की दासी हूँ और आप देवयानी के स्वामी हैं. इस लिए राजन आप मेरे भी स्वामी हुए. मेरी कामना पूरी करें स्वामी"   

ययाति को तैयार करने में शर्मिष्ठा को बहत श्रम नहीं करना पड़ा. शीघ्र ही ययाति को उसके कथन में सच्चाई दीखने लगी और और उस ने शर्मिष्ठा को वही सम्मान दिया जिसे वह अब तक मात्र देवयानी को देता आ रहा था. कुछ समय साथ बिता कर वे एक दूसरे से स्नेहसिक्त विदाई ले अपने अपने स्थान को लौट गए. उचित समय पर शर्मिष्ठा ने एक पुत्र को जन्म दिया जिसके मुख पर देवताओं सदृश चमक थी.  देर सबेर देवयानी को भी इस बालक के जन्म का पता चल ही गया. उसके ह्रदय में  भावनाओं का बवंडर घूमने लगा - ईर्ष्या, आश्चर्य, जुगुप्सा. भागी भागी वह शर्मिष्ठा के घर पहुँच पूछने लगी "अपनी इच्छाओं के वशीभूत हो तुमने यह कैसा पाप कर लिया?"
"पिछले वर्ष एक पवित्र आत्मा ऋषि यहाँ आये थे" शर्मिष्ठा ने कहा "वे वेदज्ञ थे और भक्तों को वरदान देने में भी सक्षम थे. मैं ने मातृत्व का धर्म पूरा करने के लिए उन्हें अपनी इच्छा बतायी और यह पुत्र उन्ही के आशीर्वाद का फल है"
"तुम कैसे सोच सकी कि मैं अपनी इच्छाओं में बह कर कुछ ऐसा कर बैठूंगी?" शर्मिष्ठा ने पूछा.

"तब तो ठीक है" देवयानी ने स्वीकार किया  "उस ब्राह्मण का नाम, गोत्र आदि कुछ याद है तुम्हे? पता चले तो मैं भी उस से मिलना चाहूंगी"
"अपने तपोबल से वे सूर्य की तरह देदीप्यमान थे और उन्हें देख कर मैंने उनके विषय में कुछ पूछने की आवश्यकता नहीं समझी"

मन मसोस कर देवयानी ने स्वीकार किया कि ऐसे ब्राह्मण से यदि शर्मिष्ठा को पुत्र मिला है तो कुछ अन्यथा नहीं सोचना है. इस तरह बातें कर देवयानी अपने महल चली गयी.

देवयानी से ययाति के दो पुत्र हुए और "ऋषि" की अनुकम्पा से शर्मिष्ठा को तीन.  एक दिन ऐसा हुआ कि ययाति और देवयानी राजा के विशाल उपवन में विचरण कर रहे थे जब उन्हें दिव्य आभा वाले तीन बालक दिखे. बच्चे इतने सुन्दर थे कि जो देखे बस देखते ही रह जाए. देवयानी उन्हें देख ययाति से पूछ बैठी "देवताओं के बालकों की तरह दीखते ये बच्चे किस के हैं?"

ययाति सोच रहा था कि कैसे आगे बढ़ा जाए पर देवयानी ने राजा के उत्तर की प्रतीक्षा न कर बच्चों से पूछ डाला "किन के बच्चे हो तुम तीनो? तुम्हारे माता पिता कौन हैं?"

बच्चों ने ययाति की ओर इंगित किया और माता का नाम शर्मिष्ठा बताया.  यह कह बच्चे ययाति के निकट आ कर उसके घुटनों से लिपट गए. पर ययाति उन्हें देवयानी की उपस्थिति में दुलार नहीं पाया और दुखी मन बच्चे उसे छोड़ कर रोते हुए अपनी माता के पास चल दिए. राजा अपनी दोष-जन्य कायरता पर लज्जित था किन्तु इतनी भी हिम्मत नहीं थी कि देवयानी के सामने उन्हें रोकने का प्रयास करे. देवयानी सब समझ गयी. पहला प्रहार उस ने अपने पति पर नहीं बल्कि अपनी सहेली और अब सौत पर किया.

"तुम शर्मिष्ठा मेरे ऊपर आश्रित हो, फिर भी मेरे ही ऊपर ऐसा अभिघात?"      
"प्रिय देवयानी, जो कुछ मैंने तुम्हे बताया था एक ऋषि के विषय में वह सब कुछ सत्य है. मैं ने सब कुछ सही और धर्माचरण के अनुकूल किया है. जब तुम ने राजा ययाति को अपना पति चुना था उसी समय मैं भी उसे अपना पति चुन लिया था. और मित्र, सच कहो तो मित्र का पति भी तो अपना ही पति है! तुम ब्राह्मण हो और मैं तुम्हारा सम्मान करती हूँ पर मैं उस से भी अधिक सम्मान इस राजर्षि का करती हूँ."

देवयानी यह सब सुन आग बबूला थी; अपने पति की ओर मुड़ उस ने कहा "तुमने, राजन, मेरे साथ घोर दुर्व्यवहार किया है" "मैं अब यहाँ नहीं रह सकती" ऐसा कहते रोती हुई देवयानी उठ कर अपने पिता के घर की दिशा में चल दी. ययाति घबड़ा गया. उसे मनाने के लिए मधुर बातें बोलते हुए उसके पीछे पीछे चलने लगा. पर देवयानी न मानी. अपने पिता के पास पहुँच कर उस ने घोषणा की "पाप के हाथों धर्म पिट गया. नीच उठ गए हैं और उच्च को गिरा दिया गया है. शर्मिष्ठा ने पुनः मुझे कष्ट पहुंचाया"

"इस राजा के" देवयानी बोलती रही "शर्मिष्ठा से तीन पुत्र हैं और मुझसे मात्र दो" और जोड़ दिया "राजा ययाति शास्त्रज्ञ माना जाता है पर, वह सत्य के पथ से विचलित रहा है"  

ययाति ने अपनी वासना के अभिभूत हो अतिचार किया था (और उसका भयानक फल भी उस ने पाया, जैसा हम देखेंगे). पर जिस चीज ने देवयानी को सबसे अधिक कष्ट पहुंचाया वह था शर्मिष्ठा को तीन पुत्र होना जब कि उसके मात्र दो थे. यहाँ भी वृषपर्व की पुत्री उस पर भारी पड़ी. शर्मिष्ठा एक राजा की पुत्री थी और यह संभव है कि राजा ययाति उसे अधिक ठीक से समझ पाता था और यह भी संभव है कि शर्मिष्ठा के लिए ययाति समकक्ष रहा हो.

यह सुन शुक्र ने ययाति को अदम्य जरा से आक्रान्त हो जाने का शाप दिया. ययाति ने अपनी सफाई दी - शर्मिष्ठा ने मुझ से पुत्र माँगा था - गर्भ धारण के लिए उपयुक्त काल में. वेद कहते हैं कि उस काल में यदि कोई काम पीड़िता किसी पुरुष से एकांत में आग्रह करे और वह पुरुष आगे न बढे तो वह भ्रूण हत्या के पाप का भागी होता है. और इसी कारण मैं शर्मिष्ठा के पास गया था.

"पर मैंने तुम्हे मना किया था उसके निकट जाने से. यदि शर्मिष्ठा ने ऐसी प्रार्थना की थी तो तुम्हारे लिये मुझसे आज्ञा लेना उचित रहता. पर चोरी छुपे आगे बढ़ तुम ने एक चोर का काम किया और तुम अभी से जराक्रांत हो जाओगे."

शुक्र के शाप से ययाति का यौवन तत्काल लुप्त हो गया. उसका शरीर जर्जर हो गया, उस के अंग शिथिल हो गए, उसकी दृष्टि क्षीण हो गयी और उसका तेजस्वी रूप न जाने कहाँ खो गया. ययाति ने शुक्र से प्रार्थना की "मैं अभी तक देवयानी से अघाया नहीं हूँ, अतः भार्गव मुझे कुछ और समय के लिए यौवन रहने दो जिसे मैं देवयानी के साथ बिता सकूँ."  
"मेरी बात तो कभी झूठ जाती नहीं है इस लिए जराक्रांत तो तुम्हे रहना ही पडेगा राजन, पर मैं यह छूट दे रहा हूँ कि तुम यदि कर सको तो अपनी जरावस्था को अपने किसी पुत्र की युवावस्था से बदल लो. तुम्हारा पुत्र जरा जीर्ण हो जाएगा और तुम तरुण"

ययाति व्यवहारिक था. उस ने शुक्र से कहा "भार्गव, कृपया ऐसा वर दो कि जो पुत्र मेरी जरावस्था ले कर अपना यौवन मुझे दे वही मेरे बाद राजा बने और उसके धर्म और प्रतिष्ठा की पताका सदा लहराती रहे"
शुक्र मान गया "राजन, जो पुत्र भी तुम्हे अपना यौवन देगा वही तुम्हारा उत्तराधिकारी बनेगा, वह पूर्णायु भोगेगा और उसे अनेक पुत्र होंगे.

वृषपर्व के नगर से ययाति और देवयानी वापस ययाति की राजधानी की और चले. ययाति चल नहीं पा रहा था. चलना तो दूर वह ठीक से खड़ा भी न हो पा रहा था. देवयानी के सहारे पर धीरे धीरे वह आगे बढ़ रहा था. और देवयानी? वह क्या सोच रही थी? वह चाहती थी शर्मिष्ठा को उसके किये का दंड मिले पर शर्मिष्ठा तो यथावत रह गयी और उसे ही अपने जीर्ण शीर्ण स्वामी को ढोते हुए चलना पड़ रहा था.

Wednesday, 29 April 2015

आदि पर्व (18): ययाति उपाख्यान (3)

कुछ समय बाद देवयानी चित्ररथ के उसी उपवन में विहार करने आई थी. उसकी सेवा में शर्मिष्ठा अपनी सहस्त्र दासियों के साथ थी. फूलों के मधु पी पी कर थकी देवयानी लेट कर शर्मिष्ठा से अपने पाँव दबवा रही थी जब मृग के आखेट में निकला ययाति पुनः उस उपवन में आया. दोनों सुंदरियों को देख वह चकित हो गया.

"कौन हो तुम दोनों? तुम्हारे पिता कौन हैं?" ययाति ने पूछा "ये सहस्त्र दासियाँ अवश्य तुम्हारी सेवा में हैं"
"मैं असुरों के गुरु शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी हूँ. तुम ने कभी मेरा हाथ धरा था." देवयानी ने कहा "और यह मेरी सेवा में लगी शर्मिष्ठा है, असुर राज वृषपर्व की पुत्री"     

ययाति ने पूछा "असुर राज की पुत्री तुम्हारी दासी  कैसे बनी हुई है?"

"सब कुछ प्रारब्ध की बात है, इन पर कुछ मत सोचो" देवयानी बोली "तुम अपने विषय में बताओ. वस्त्रों से तुम राज परिवार के लग रहे हो. तुम्हारी वाणी किसी वेदज्ञ की लग रही है. कौन हो तुम? क्या नाम है तुम्हारा? तुम्हारे पिता कौन हैं?"
"जब मैं ब्रह्मचर्य आश्रम में था तो मैंने समस्त वेदों का अध्ययन किया था" ययाति ने कहा "मैं ययाति हूँ, एक राजा का पुत्र और स्वयं एक राजा."
"तुम इधर क्यों आये हो राजन?" देवयानी ने पूछा.
"मैं आखेट में मृगों के पीछे था जब प्यास के चलते जल खोजते इधर चला आया. यदि मेरा यहाँ आना तुम्हे अच्छा नहीं लग रहा हो तो आदेश दो मैं तुरंत चला जाऊंगा"  

"नहीं राजन, अपनी सब दासियों के साथ मैं तुम्हारे आदेश की प्रतीक्षा कर रही हूँ" देवयानी ने बिना समय गंवाए कहा "तुम्हारी समृद्धि हो राजन, आओ मेरे सखा और स्वामी बनो."

“मैं तुम्हारे योज्ञ नहीं हूँ” ययाती ने कहा “तुम्हारे पिता शुक्र हैं, मुझ से बहुत ऊँचे. मृगलोचने, चारो वर्ण ब्रह्मा के शरीर से निकले हैं पर उनकी शुद्धता एक सामान नहीं है. मैं क्षत्रिय हूँ और ब्राह्मण कन्या से विवाह नहीं कर सकता"

पर देवयानी ययाति को इतनी आसानी से छोड़ने वाली नहीं थी. "पर ब्राह्मणों और क्षत्रियों में पहले भी सम्बन्ध स्थापित हो चुके हैं और भविष्य में भी होंगे. तुम एक राजर्षि के पुत्र हो, ययाति, मेरे इस हाथ को तुम्हारे पहले कभी किसी पुरुष ने नहीं धरा था. जब नहुष-पुत्र ने इसे एक बार धर लिया तो अब और कौन इसे धर सकता है. आओ राजन मेरे स्वामी बनो."

"बुद्धिमान मानते हैं कि क्रुद्ध विषधर सर्प से भी अधिक एक व्यक्ति को किसी ब्राह्मण से बच कर रहना चाहिए". ययाति ने कहा "सर्प तो एक बार में एक व्यक्ति को ही मार सकता है पर क्रुद्ध ब्राह्मण एक ही साथ पूरे नगर या पूरे राज्य को नष्ट कर सकता है. मैं ब्राह्मणों से बच कर रहूंगा और तुम से मैं तब तक विवाह नहीं कर सकता जब तक तुम्हारे पिता मेरे हाथों में तुम्हारा हाथ नहीं देते."

देवयानी ने तब एक दासी को शुक्र के पास भेजा. दासी ने सारी बात शुक्र को बतायी और शुक्र भी उपवन में आ गए. शुक्र को आया देख राजा ययाति ने ससम्मान उनकी पूजा-अर्चना की और हाथ जोड़ शुक्र के आदेश की प्रतीक्षा में खड़ा हो रहा. देवयानी ने अपने पिता को बताया कि किस प्रकार जब वह महा कष्ट में थी तो राजा ययाति ने उसके हाथ गहे थे और कहा "मेरी प्रार्थना है कि आप मुझे इस राजा के हाथों दान कर दें. मैं अन्य किसी ब्यक्ति से विवाह नहीं करुँगी"

"मेरी पुत्री ने तुम्हे चुन लिया है" शुक्र ने कहा "आओ नहुष-पुत्र, मैं उसे तुम्हे सौंप रहा हूँ, स्वीकार करो"
"पर विप्रवर, आप मुझे वर दें कि ऐसा करने से वर्ण संकर संतानोत्पत्ति का पाप मुझ पर नही आएगा" ययाति बहुत सतर्क हो चला है.
शुक्र ने उसे आश्वस्त किया "उस पाप से मैं तुम्हे मुक्त करता हूँ, निश्चिन्त रहो. देवयानी के साथ आनंदमय जीवन बिताओ. वृषपर्व की पुत्री शर्मिष्ठा देवयानी के साथ जायेगी. उस का सम्मान करना पर उसे अपने निकट मत बुलाना."

शुभ मुहूर्त में ययाति-देवयानी का विवाह संस्कार सभी शास्त्रोक्त कर्मों के साथ संपन्न हुआ.  देवयानी के साथ जब ययाति अपनी राजधानी लौटा तो उसके साथ एक सहस्त्र दासियाँ भी थी और शर्मिष्ठा भी.

Tuesday, 28 April 2015

आदि पर्व (17): ययाति उपाख्यान (2)

संजीवनी महाविद्या मिल जाने के बाद सुरों की मनः स्थिति बदल गयी. पहले वे असुरों के भय से छिपे फिरते थे अब उनके उत्साह ने आक्रामक रूप ले लिया था. कच के देवलोक पहुँचने के तुरंत बाद, इंद्र के नेतृत्व में वे असुरों से युद्ध करने निकल पड़े. मार्ग में गन्धर्व चित्ररथ का एक उपवन था जिस के सरोवर में असुर ललनाएँ जल क्रीड़ा कर रही थीं. इंद्र ने पवन का रूप धर किनारे रखे उन के वस्त्र आपस में मिला दिए. जब वे बाहर निकलीं तो मिले जुले वस्त्रों के ढेर से निकालते हुए जो जिसके हाथ आया उस ने वही पहन लिया. इसी क्रम में देवयानी के कपडे असुर राज वृषपर्व की पुत्री शर्मिष्ठा ने पहन लिए.

कुछ ही महीने हुए जब देवयानी ने कच के छल को पहचाना था. अब वह सब कुछ सशंकित दृष्टि से देखती थी. शर्मिष्ठा ने उसी के कपडे भला क्यों पहने? राजा की बेटी होने के चलते क्या वह असुरा अपने आप को ब्राह्मण के समतुल्य समझने लगी?

"शर्मिष्ठा, तुम ने मेरे वस्त्र कैसे पहन लिए?" देवयानी ने कहा "मैं तुम्हारे राज-गुरु की पुत्री हूँ, चलो, उतारो मेरे वस्त्र"
शर्मिष्ठा राजा की पुत्री थी और उसे इस तरह की बोली सुनने की आदत नहीं थी; बिफर पड़ी.

"तुम्हारे वस्त्र? तुम्हारा है ही क्या देवयानी? तुम्हारे चारण पिता मेरे पिता की स्तुति, वन्दना में लगे रहते हैं और मेरे पिता के दिए दान या भिक्षा से तुम्हारा घर चलता है. मैं असुर-राज की पुत्री हूँ. मेरे पिता भिक्षा देते हैं; तुम्हारे पिता भिक्षा स्वीकार करते हैं. तुम्हारे कपडे, कपडे ही क्यों, तुम्हारा सब कुछ मेरे पिता का दिया हुआ है."

क्रोध से देवयानी की आँखें लाल हो गयीं और वह शर्मिष्ठा की देह से अपने वस्त्र खींचने लगी. शर्मिष्ठा ने उसे धक्के दे कर निकट के एक सूखे कुँए में गिरा दिया. जब उसे लगा कि देवयानी बचेगी नहीं तब वह संतुष्ट मन से नगर की दिशा में चल दी.

शर्मिष्ठा के जाने के कुछ देर बाद, मृग के आखेट में निकला, चन्द्रवंश का प्रतापी राजा ययाति वहां पानी खोजते आया. ययाति नहुष का पुत्र था, पर ज्येष्ठ पुत्र नहीं. नहुष के ज्येष्ठ पुत्र यति ने अपना राज्याधिकार त्याग एक तपस्वी का जीवन अपना लिया था. चन्द्रवंश में कनीय पुत्रों के सिंहासन पर आसीन होने के उदाहरण बार बार आये हैं. प्रतीप का ज्येष्ठ पुत्र देवापि चर्म रोग से पीड़ित था जिस के चलते हस्तिनापुर के ब्राह्मणों ने उसका राज्याभिषेक न होने दिया और उसका अनुज शांतनु राजा बना था. धृतराष्ट्र के दृष्टि-हीन होने के चलते उसका अनुज पाण्डु राजा बना था (वैसे पाण्डु की अकाल मृत्यु के चलते धृतराष्ट्र बाद में राजा बन पाया था). ज्येष्ठ कौन्तेय कर्ण अवैध जन्म के कारण राजा नहीं बन सका. और जैसा हम देखेंगे ययाति का अपना ज्येष्ठ पुत्र भी राजा नहीं बन पाया.  

ययाति मृग के आखेट में निकला हुआ था जब उसे कुँए में गिरी देवयानी मिली थी. चन्द्रवंशियों के मृग के आखेट में भी संभवतः प्रच्छन्न भाव कामेच्छा के हैं - दुष्यंत को आखेट में शकुन्तला मिली थी, शांतनु को सत्यवती और पाण्डु का प्राणहारी शाप उसे मृग के आखेट में ही मिला था.

पानी खोजते जब ययाति ने कुँए में झांका तो बस देखता रह गया. पानी तो नहीं था पर अलौकिक रूपवती एक तरुणी थी कुँए में; उस के मुख पटल पर दिव्य आभा थी और उस के नख ऐसे चमक रहे थे जैसे वे परिष्कृत ताम्र पत्र के बने हों.
 "कौन हो तुम, श्यामे?" ययाति ने पूछा "तुम्हारे पिता कौन हैं और कैसे तुम इस कुंए में गिर गयी हो?" ययाति ने देवयानी को श्यामा कहा. ब्राह्मण सुता का श्यामा होना कुछ असामान्य लगता है. पर देवयानी की दोनों मातामह असुर कुल की थीं, संभवतः इसी लिए वह श्याम-वर्णा थी. (ध्यातव्य है कि बृहस्पति की एक पत्नी तारा भी श्याम-वर्णा ब्राह्मणी थी.)

"मैं आचार्य शुक्र की पुत्री हूँ, उसी शुक्र की जो युद्ध में मृत असुरों को पुनर्जीवित कर देते हैं." देवयानी ने कहा "तुम देखने से राज परिवार के लगते हो. लो मेरे दाहिने हाथ को पकड़ो और मुझे बाहर खींच निकालो".

ययाति ने देवयानी के हाथ पकड़ उसे ऊपर निकाल लिया. फिर उस के बारे में सोचते हुए अपनी राजधानी की ओर निकल पड़ा. देवयानी का सौंदर्य उस के ह्रदय में समा गया था. कुछ ही दिनों में वह फिर पानी खोजते हुए उसी जलाशय के निकट आया था, शायद अंदर से देवयानी को पुनः देखने की इच्छा उसे वहां धकेल लायी थी.

देवयानी ने कुँए से बाहर निकल कर अपनी दासी से शुक्र को कहलवाया कि वह वापस वृषपर्व के नगर में नहीं जायेगी. शुक्र भागे भागे आये, देवयानी ने उसे सारी बात बतायी - उनके कपडे हवा के चलते मिल गए थे, शर्मिष्ठा ने उसके कपड़े पहन लिए थे और टोकने पर कि गुरु-पुत्री के कपडे उस ने कैसे पहन लिए शर्मिष्ठा ने शुक्र को एक भाड़े का प्रशंसक बताया जो पैसों के बदले वृषपर्व की स्तुति करता है.
"और जब मैंने अपने वस्त्र छीनने का प्रयास किया तो उस ने उस कुँए में मुझे गिरा दिया" कुँए की तरफ हाथ बढ़ाते हुए देबयानी ने कहा, और रोते हुए पूछने लगी "क्या आप वास्तव में वृषपर्व की प्रशंसा कर के उस की दी हुई भिक्षा स्वीकार करते हैं?"

"नहीं देवयानी, तुम किसी भिक्षुक या किसी स्तुवत की पुत्री नहीं हो" शुक्र ने कहा "तुम्हारा पिता किसी की स्तुति नहीं करता, सभी उस की स्तुति करने वाले हैं - चाहे वृषपर्व हो, चाहे राजा ययाति चाहे इंद्र ही क्यों नहीं हो. मेरी शक्ति अचिन्त्य ब्रह्म से आती है और मैं बस उसी का स्तुवत हूँ"
“पर याद रखना देवयानी जो व्यक्ति दूसरों के कटु अप्रिय बातों को सह लेता है वह संसार जीत लेता है. जैसे सफल सारथी घोड़ों को हमेशा नियंत्रण में रखता है वैसे ही सफल व्यक्ति अपने क्रोध को हमेशा नियंत्रण में रखता है. अपने क्रोध को जीत लो तो सब कुछ जीत लोगी. जो अपने क्रोध को दबा सकता है और दूसरों के कटु वचनों को अनसुना कर सकता है वह निश्चय ही धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष सिद्ध कर पाता है.”

"मैं क्रोध और क्षमा दोनों की शक्तियां जानती हूँ" शुक्र का प्रवचन सुन देवयानी बोल पड़ी "पर यदि कोई शिष्य अशिष्ट व्यवहार करे तो उसका भला चाहने वाले गुरु को कभी उसे क्षमा नहीं करना चाहिए. शर्मिष्ठा के निष्ठुर शब्दों से मेरा हृदय जल रहा है. मैं ऐसी जगह नहीं रह सकती जहाँ सद्व्यवहार और कुलीनता का कोई मूल्य नहीं है."  

यह सुन शुक्र भी रुष्ट हुआ और उस ने वृषपर्व से जा कहा "राजन, गरिष्ट भोजन की तरह पाप पचाए नहीं पचते. उनका फल भोगना ही पड़ता है. तुम्हारे अनुयायियों ने विद्वान और कुलीन ब्राह्मण कच की तीन बार ह्त्या की है और अब तुम्हारी पुत्री शर्मिष्ठा ने देवयानी के साथ कुव्यवहार किया है, वृषपर्व, मैं तुम्हारे राज्य को छोड़ना चाहता हूँ"

"हे भार्गव" हतप्रभ वृषपर्व ने कहा "यदि आप चले जाएंगे तो हम लोग यहाँ किसी प्रकार नही टिक पाएंगे और पूरे असुर समाज को पाताल में जा छुपना पडेगा."
"असुर समाज को जहाँ जाना पड़े, वहां जाए" शुक्र ने कहा "यदि देवयानी यहाँ नहीं रुक सकती तो मैं भी नहीं टिक सकता."  
"किन्तु भार्गव" वृषपर्व ने विनती की "जो कुछ भी असुरों का है वह आप को समर्पित है, वह आप ही का है. मैं भी आप की बात से बाहर नहीं हूँ. आप जो चाहते हैं आज्ञा दें, बस हमें छोड़ कर न जाएँ." 
"अगर यह सच है राजन तो जाओ और देवयानी को यहाँ रहने के लिए मना लो"

जब देवयानी ने यह सब सुना तो उस ने अपने रुकने की शर्त रखी "शर्मिष्ठा अपनी सहस्त्र दासियों के साथ सदैव मेरी सेवा में लगी रहे और विवाह के बाद मैं जहाँ भी जाऊं वहां भी शर्मिष्ठा मेरी सेवा में मेरे साथ रहे"

शुक्र के चले जाने से असुर समाज की दशा बहुत बुरी हो जाती. संजीवनी महाविद्या तो चली ही जाती, असुर राज में यज्ञ आदि भी न हो पाते. शर्मिष्ठा यह समझती थी. उस ने देवयानी की शर्तें सुनी तो अपने समाज को दुर्दशा से बचाने के लिए तत्काल, बिना एक भी क्षण गंवाए तैयार हो गयी. "मैं अपने  कुव्यवहार के चलते शुक्र को नहीं जाने दूंगी; यदि उन्हें रोकने के लिए मुझे देवयानी की दासी बननी पड़े तो वह भी सहर्ष स्वीकार है." और इस तरह अपनी एक सहस्त्र दासियों के साथ शर्मिष्ठा स्वयं देवयानी की सेवा में उपस्थित हुई.  "आज से मैं तुम्हारी दासी हूँ देवयानी, सदैव तुम्हारी आज्ञा की प्रतीक्षा करुँगी."

"किन्तु मैं तो तुम्हारे पिता के दिए दान-भिक्षा पर पलती हूँ, तुम्हारे पिता के स्तुवत की पुत्री हूँ, तुम कैसे मेरी दासी बन रही ही?"

"अपने समाज के सुख-समृद्धि के लिए हर व्यक्ति को सब कुछ करने के लिए तैयार रहना चाहिय" शर्मिष्ठा ने प्रसन्न मुख से कहा "जहाँ कही भी तुम्हारे पिता तुम्हे विवाह कर भेजेंगे, मैं सदैव तुम्हारी सेवा में रहूंगी"

और इस तरह असुर राज की पुत्री शर्मिष्ठा भृगु की पौत्री देवयानी की दासी बन गयी.

Monday, 27 April 2015

आदि पर्व (16): ययाति उपाख्यान (1)

वैशम्पायन ने कहा “मैं अब उन राजर्षियों के पवित्र वंश वृक्ष का वर्णन करता हूँ, जिस में यादव और भारत वंश के राजा हुए थे.

प्रचेतस के दस पुत्रों ने अपने मुखों की अग्नि से पृथ्वी की विषाक्त वनस्पतियों को जला कर इसे रहने योग्य बनाया था. इन दस के बाद प्रचेतस के एक और पुत्र हुआ दक्ष. दक्ष से सभी जीवों का उद्भव हुआ है. उस की पच्चास पुत्रियाँ थीं. उस ने अपनी दस पुत्रियों को धर्म को दिए थे, तेरह कश्यप को और सत्ताईस चंद्र को. उस की सबसे बड़ी पुत्री से कश्यप ने बारह आदित्य पैदा किए थे. इन्हीं में इंद्र और सूर्य (विवस्वत) भी थे. विवस्वत का एक पुत्र था मनु. मनु के वंश में मानवों के जन्म हुए – ब्राह्मणों, क्षत्रियों और अन्य. बाद में ब्राह्मण और क्षत्रिय परस्पर मिल गये और वेदाध्ययन में लग गये. तब मनु के दस क्षत्रिय संतान हुईं: वेन, धृष्णु, नरिष्यंत, नाभाग, इक्ष्वाकु, करूष, शर्याती, आठवीं एक पुत्री इला, पृषध्रु और नाभागारिष्ट. इन सबों ने क्षात्र धर्म स्वीकार किया.

पुरुरवा का जन्म इला से हुआ था. यह भी सुना गया है कि इला उस की माता और पिता दोनो ही थी. मनुष्य होते हुए भी पुरुरवा अमर जीवों (देव, गंधर्व आदि) के साथ विचरता था. अपनी शक्ति के मद में चूर हो पुरुरवा ने ब्राह्मणों के धन छीन लिए थे. सनतकुमार ने उसे समझाया  भी था किंतु जब उस ने उनकी भी नहीं सुनी तो ऋषियों के कोप से उसका नाश हुआ था.

पुरुरवा गंधर्वों के क्षेत्र से यज्ञ के लिए तीन अग्नियों को पृथ्वी पर लाया था. वहीं से वह अपने साथ उर्वशी भी लेता आया था. अप्सरा उर्वशी और पुरुरवा के पुत्र आयुष का बुद्धिमान और पराक्रमी पुत्र नहुष हुआ था. नहुष ने अपने राज्य का विस्तार किया था और धर्मनिष्ठ हो कर उस ने पूरी पृथ्वी पर शासन किया. उस ने पित्रियों, देवताओं, ऋषियों, ब्राह्मणों, गंधर्वों, नागों, राक्षसों, क्षत्रियों और वैश्यों को यथोचित आलंबन दिया था. अपने तप, निष्पक्ष न्याय और शक्ति से उस ने इंद्र बन कर इंद्रलोक पर भी राज किया. नहुष के छः पुत्र थे, भागवत के अनुसार यति, ययाति, संयति, आयाति, वियाति और कृति.

यति ने संन्यास ले लिया था और ययाति राजा बना. ययाति बहुत प्रतापी राजा था. उस ने पूरे विश्व पर राज क्या, और कभी अपने जीवन में कोई युद्ध नहीं हारा. उसकी दो पत्नियाँ थीं: देवयानी और शर्मिष्ठा. देवयानी के पुत्र यदु और तुर्वसु थे शर्मिष्ठा के द्रह्यु, अनु और पुरु. देवयानी शुक्र की पुत्री थी. शुक्र के शाप से जराक्रांत होने पर ययाति ने अपने पुत्रों से उनका यौवन माँगा. जो पुत्र भी ऐसा करता – पिता को अपना यौवन देता – उसे ययाति की जरावस्था झेलनी पड़ती.  उसका कनिष्ठ पुत्र पुरु इस के लिए तैयार हो गया और ययाति ने फिर एक सहस्त्र वर्षों तक यौवन का आनंद लिया.

“इच्छायें कभी शांत नहीं होतीं” यह कहते हुए एक सहस्त्र वर्ष बाद उस ने पुरु को उसका यौवन लौटा कर अपनी जरावस्था वापस ले ली. “इच्छाओं को जितना पूरा करो, यज्ञ की अग्नि में घी डालने की तरह वे उतनी बलवती होती जाती हैं. यदि किसी को पृथ्वी का सारा धन,स्वर्ण, रत्न, स्त्रियाँ – सब कुछ मिल जाए – तब भी वह कभी तृप्त नहीं होगा.” यह देख ययाति पुरु को राजा बना वानप्रस्थ हो गया और अपनी तपस्या से पुण्य अर्जित कर मृत्योपरांत स्वर्ग लोक को गया.   

लेकिन जनमेजय संतुष्ट नहीं हुआ और उसके अनुरोध पर वैशम्पायन ने ययाति की कथा विस्तार में सुनाई.

तीनो लोकों पर आधिपत्य के लिए प्राचीन काल में सुरों और असुरों के बीच सहस्त्रों वर्षों तक युद्ध हुए. युद्ध में विजय श्री की प्राप्ति के लिए दोनो यज्ञ किया करते थे. सुरों ने अंगिरस के पुत्र वृहस्पति को अपना आचार्य बनाया था और असुरों ने भृगु के पुत्र शुक्र को. शुक्र संजीविनी महाविद्या जानता था और युद्ध में मारे गये असुरों को वह पुनर्जीवित कर देता था. वृहस्पति इस महविद्या से अनिभिज्ञ था और सुरों की संख्या घटती जा रही थी. 

थक कर सुरों ने वृहस्पति के ज्येष्ठ पुत्र कच को असुर राज वृषपर्व की नगरी भेजा जहाँ वह शुक्र का शिष्यत्व ले कर संजीविनी विद्या किसी तरह, चोरी छुपे सीख ले. प्रतिद्वंद्वी वृहस्पति के पुत्र का शुक्र ने स्वागत किया और कच को अपने आश्रम में जगह दी. और कच ने एक सहस्त्र वर्ष तक ब्रह्मचारी रह उनकी सेवा करने का संकल्प लिया.

कच आश्रम में एक समर्पित, स्वाध्यायी, ब्रह्मचारी की भाँति रहने लगा. आश्रम का कोई कार्य उसके लिए बहुत छोटा या बहुत कठिन नहीं था. वह गौ के साथ वन भी चला जाता था और संध्या-पूजन में देवयानी की भी सहायता करता था. कुछ ही दिनों में शुक्र उसे बहुत मानने लगे थे. वह शुक्र को तो पूरा सम्मान देता ही था, देवयानी की आवश्यकताओं के प्रति भी सचेत रहता था. वन से देवयानी के लिए भाँति भाँति के पुष्प, पल्लव, फल आदि लाता था साथ ही संगीत और नृत्य से भी वह देवयानी का मनोरंजन करता था.  कुछ ही वर्षों में देवयानी को लगने लगा कि वह कच के बिना जीवित नहीं रह सकेगी.

असुर बृहस्पति के पुत्र के प्रति सशंकित थे. धीरे धीरे उन्हें विश्वास हो चला कि बृहस्पति ने कोई गहरी चाल चली है. चाल कुछ भी हो कच का वध कर देने से सब निष्फल हो जाएगा. यह सोच उन्होंने एक दिन वन में कच को मार डाला और उस के शरीर के टुकड़े कर वन्य जंतुओं को खिला दिए. संध्या पूजन की बेला तक कच रोज आ जाता था. जब गौवें बिना कच के लौट आयीं तो देवयानी से न रहा गया. उस ने शुक्र से अपने संदेह कहे - या तो कच कही गिर पड़ा होगा या हिंसक जंतु उसे खा गए होंगे - "कुछ भी करें पर उसे पुनर्जीवित कर यहाँ लेते आएं”.

शुक्र ने मृत संजीवनी मन्त्र पढ़ कर कच का आह्वान किया और बाघ, गीदड़ों के उदर चीरते हुए कच उपस्थित हो गया. देवयानी ने देर से आने का कारण पूछा तो कच ने सारी बात बताई. "मैं तो मर चुका था. होम के लिए जलावन और पूजन के लिए कुश चुन कर जैसे ही मैं आश्रम की ओर चलने को तैयार हो गौवों को एकत्रित कर रहा था कि कुछ असुरों ने मेरा परिचय पूछा. "मैं बृहस्पति का पुत्र कच हूँ" सुनते ही उन्होंने मेरी ह्त्या कर मुझे बाघ गीदड़ों को खिला दिया. मुनिवर के आदेश पर मैं उन जंतुओं के उदर चीर उपस्थित हुआ हूँ."

एक दूसरे अवसर पर जब देवयानी के लिए कच वन में पुष्प एकत्रित कर रहा था, असुरों ने उसे मार कर उसकी देह को पीस कर अवलेह बना समुद्र में प्लावित कर दिया. संध्या बेला देवयानी ने पुनः शुक्र से प्रार्थना की. शुक्र ने मंत्रोच्चारण कर कच का आह्वान किया और कच फिर पुनर्जीवित हो आ गया. देवयानी ने बातों बातों में उसे बता दिया कि दोनों अवसरों पर शुक्र ने उसके (देवयानी के) अनुरोध पर कच को पुनर्जीवित किया था.

कुछ दिनों बाद असुरों ने शुक्र को मद्य-पान के लिए आमंत्रित किया. शुक्र मदिरा प्रेमी थे और तब तक पीते रहे जब तक सारी मदिरा समाप्त नहीं हो गयी. डगमगाते कदमों से वे अपने आश्रम की ओर चले. दूर से उन्होंने देवयानी को आश्रम के द्वार पर बैठे रोते देखा. वे समझ गए और देवयानी को समझाने लगे:

"कच का असुरों ने फिर वध कर दिया है. मैं उसे कितनी बार वापस ला पाउँगा? किसी के लिए तुम्हारा इतना विलाप करना ठीक नहीं है."
पर देवयानी नहीं मानी और शुक्र देवयानी की बात नहीं टाल सके. संकल्प ले कर जब कच का आह्वान किया तो उनके उदर से कच की बोली सुनाई पड़ी.

"असुरों ने मेरा वध कर, मुझे जला कर, भस्म को मद्य में मिला कर, आप को पिला दिया है"

स्थिति गंभीर थी. शुक्र ने देवयानी को पूरी स्थिति बतायी;  शुक्र और कच का अब एक साथ जीवित रहना संभव नहीं लग रहा था.
"अब मैं क्या कर सकता हूँ? कच को उसका जीवन मेरी मृत्यु के बाद ही मिल सकता है. बिना मेरे उदर चीरे वह बाहर नहीं आ सकता और उसके बाद मैं जी नहीं सकूंगा. पर तुम कह रही हो कि बिना कच के तुम जी नहीं सकती और अगर तुम्ही नहीं रहोगी तो मैं जी कर क्या करूंगा?"

और शुक्र ने अपने उदर में स्थित कच को महाविद्या सिखाई, कच उनकी देह चीर कर बाहर निकला और अपनी नयी सीखी महाविद्या से उस ने अपने गुरु को पुनर्जीवित किया. देवयानी प्रफुल्ल थी पर शुक्र बोझिल दीख रहे थे. पुत्री के प्रेम के चलते वे अपने यजमान के हितों की रक्षा नहीं पर पाये थे.

यह सब उस के सुरा पान के चलते हुआ था, यह सोच उस ने उस दिन से ब्राह्मणों के लिए मद्य पान वर्जित कर दिया. “जो नीच ब्राह्मण आज के बाद मद्यपान करेगा वह अपने सभी पुण्य खो देगा” शुक्र ने कहा “और वह ब्रह्म हत्या का पापी माना जाएगा.“

कच का लक्ष्य सिद्ध हो गया था पर उसके सहस्त्र वर्ष अभी पूरे नहीं हुए थे. अवधि पूरी होने पर गुरु के आशीष ले वह चलने की तैयारी करने लगा. गुरु को प्रणाम कर वह देवयानी की तरफ उन्मुख हुआ. इस के पहले कि वह कुछ बोले देवयानी बोल पड़ी "मैं तुम्हारे पिता बृहस्पति का उतना ही सम्मान करती हूँ कच, जितना तुम अपने गुरु, मेरे पिता का करते हो" फिर बिना किसी वाक् छल, बिना लज्जाशीलता का कोई बोझ उठाये उस ने कच से विवाह का प्रस्ताव रख दिया. कच को इस प्रस्ताव की आशंका थी पर वह कभी सोच नहीं सकता था कि यह विवाह प्रस्ताव इतना अनायास, बिना किसी छद्म के, ऐसे सरल वार्तालाप में आ जाएगा.


पर कच को यह स्वीकार्य नहीं था. उस ने कहा " मेरा पुनर्जन्म शुक्र के शरीर से हुआ है” कच ने कहा “इस तरह भी तुम मेरी बहन हो देवयानी, विवाह के विचार ही घोर पातक हैं. ऐसा मत करो. मैं तुम्हे आजन्म उसी स्नेह और श्रद्धा से याद करूँगा जिस से तुम्हारे पिता आचार्य शुक्र को"

कच को नहीं मानता देख देवयानी ने उसे शाप देते हुए  कहा "जिस महाविद्या को पाने के लिए कच तुम ने मेरे साथ प्रेम का छल किया था वह विद्या हर अवसर पर तुम्हे छलेगी  - जब कभी इस की आवश्यकता पड़ेगी तुम इसे भूल जाओगे"

कच काँप गया. "किन्तु देवयानी तुम्हारा यह शाप उस व्यक्ति पर नहीं लगेगा जिसे मैं यह विद्या सिखाऊंगा" उस ने भी प्रत्युत्तर दिया और चलते चलते जोड़ दिया "भृगु की पौत्री, मैं तो क्या कोई ब्राह्मण तुम से विवाह नहीं करेगा".

Sunday, 26 April 2015

आदि पर्व (15): शकुंतला उपाख्यान (2)

दुष्यंत ने जाते जाते कहा था कि वह शकुंतला की अगवानी में अपनी चतुरंगी सेना भेजेगा. किंतु उस के गये कोई दस वर्ष होने को आए और अभी तक उस ने कोई संदेश भी नहीं भिजवाए थे, इस बीच शकुंतला ने एक अगाध शक्तिवान पुत्र को जन्म दिया था जिस के अब छः वर्ष पूरे हो चुके थे.  कण्व ऋषि समय समय पर उस बालक के सभी शास्त्रोक्त संस्कार करते रहे थे.

उस बालक में अद्भुत शक्ति थी. वह वन्य पशुओं के साथ ही खेलता था, कभी किसी पर सवारी करता कभी किसी के पीछे कोई आखेटक बन कर दौड़ता. छः वर्ष की आयु में वह सिंह, बाघ और हाथियों को पकड़ कर आश्रम के वृक्षों से बाँध देता था. सभी जंतुओं को अपने अधीन कर सकने की उसकी क्षमता देख आश्रमवासियों ने उसका नाम सर्वदमन रख दिया था. कण्व ने भी उसे सभी जंतुओं को दबाते देखा था और अब उन्हे लगने लगा कि इस बालक के अपने पिता के उत्तराधिकारी रूप में घोषित किए जाने का समय आ गया है.
  
एक दिन अपने कुछ शिष्यों को बुला कर कण्व ने उन्हें शकुंतला और सर्वदमन को राजा दुष्यंत के पास, हस्तिनापुर, ले जाने के निर्देश दिए. “शकुंतला को उस के पुत्र के साथ उसके पति के पास ले जाओ. स्त्रियों को अपने माता-पिता के घरों में लंबे काल के लिए नहीं रहना चाहिए. ऐसा करने से उनकी प्रतिष्ठा, उनका आचरण और उनका धर्म, तीनों की क्षति होती है.”

माँ और पुत्र, दोनो पहली बार वन के बाहर जा रहे थे. शिष्यों के साथ वे हस्तिनापुर पहुँचे. दुष्यंत से उनके परिचय करा कर कण्व के शिष्य वापस लौट आए. अपने पुत्र के साथ शकुंतला आगे बढ़ी और राजा के यथोचित अभिवादन कर उस ने अपने साथ आए, उदित होते हुए सूर्य के समान तेजस्वी और मनोहर बालक का दुष्यंत के पुत्र के रूप में परिचय दिया. “राजन, यह तुम्हारा पुत्र है. देवताओं के समान शक्तिमान, तुम्हारे इस पुत्र को मैने महात्मा कण्व के आश्रम में जन्म दिया है. समय आ चला है जब तुम अपने वचन का पालन करो और हमारे इस पुत्र को अपना उत्तराधिकारी घोषित करो.”

“मुझे कुछ भी ऐसा स्मरण नहीं है”, दुष्यंत ने कहा. “तुम कौन दुष्टा हो जो इस प्रकार तापसी भेष में घूम रही हो? धर्म, अर्थ या काम संबंधित मेरे कोई संबंध कभी तुम से नहीं रहे हैं. तुम्हारी जो इच्छा हो, करो; चाहो तो रहो या चाहो तो जाओ” 

ऐसा भी हो सकता है यह उस निर्दोष लड़की ने कभी सोचा भी नहीं था. राजा की बातें सुन कर दुःख और लज्जा से वह किसी काष्ठ स्तंभ की भाँति जड़ हो गयी. 

कुछ क्षणों में जब उस की चेतना लौटी तो उस की आँखें अंगारे के समान लाल थीं, उस के होंठ क्रोध से काँप रहे थे और ऐसा लग रहा था कि वह अपनी दृष्टि से राजा को भस्म कर देगी. किसी तरह अपने क्रोध और तपस्या से अर्जित अपनी अग्नि को शांत कर उस ने अपने आप को संयत किया. अपने विचारों को सॅंजो कर, दुःख और रोष से भरे हृदय से उस ने कहा “सब कुछ जानते हुए भी राजन, कैसे किसी नीच की तरह तुम कह सकते हो कि तुम कुछ नहीं जानते? तुम्हारा हृदय जानता है कि मैं सत्य कह रही हूँ या असत्य. जो अपने वास्तविक रूप को छुपा कर कुछ और दिखाता है वह अपनी चोरी स्वयं करता है. वह कोई भी नीच कर्म कर सकता है. तुम सोच रहे कि बस तुम्ही जानते हो तुमने क्या किया था, पर राजन, तुम उस सर्वज्ञ, अंतर्यामी को भूल रहे हो.
 
“जो पाप करता है वह अक्सर सोचता है उसे कोई नहीं देख रहा है, किंतु उसे देवता देखते हैं और उसे नारायण भी देखते हैं, जो सबों के हृदय में वास करते हैं. सूर्य, चंद्र, वायु, अग्नि, पृथ्वी, आकाश, जल, हृदय, यम, दिन, रात्रि, संध्या और धर्म ये सब मनुष्यों के प्रत्येक कर्म के साक्षी रहते हैं. किसी ऐसे कर्म को, जिस से नारायण प्रसन्न रहते हैं, सूर्य पुत्र यम सदैव अनदेखा कर देता है किंतु जिन कर्मों से नारायण अप्रसन्न रहते हैं, यम उन के यथोचित दंड देने से कभी नहीं चूकता.

“मैं अपने पति के प्रति समर्पित पत्नी हूँ. यह सच है कि यहाँ मैं अपनी इच्छा से आई हूँ, तुम ने मुझे बुलाया नहीं है.  किंतु इस के चलते तुम मेरा तिरस्कार नहीं कर सकते. मैं तुम्हारी पत्नी हूँ और तुम से सम्मान पाना मेरा अधिकार है. मैं कोई साधारण स्त्री नहीं हूँ;  तुम्हारी पत्नी हूँ मैं, तुम्हारे पुत्र को जन्म दिया है मैने. और याद रखो, जो मैं कहती हूँ वह तुम ने नहीं किया तो तुम्हारे मस्तक के सौ टुकड़े हो जाएँगे.

“पति ही पत्नी के गर्भ में प्रवेश करता है और पति का ही रूप उस गर्भ से फिर पुत्र बन कर निकलता है. पुत्र के जन्म के बाद वेदज्ञ पति अपनी पत्नी को जाया (जिस ने उन्हे जन्म दिया) कहते हैं. और जो पुत्र इस तरह उत्पन्न होता है वह अपने पूर्वजों की आत्माओं का उद्धार करता है. वह उन्हे “पुत” नामक नरक से बचाता है इसी लिए स्वयम्भू ने उसे “पुत्र” (पुत से तारने वाला) कहा है.

“भार्या वही है जो पुत्र जने, भार्या वही है जिसका हृदय सदैव उस के स्वामी से अनुरक्त रहे और जो अपने पति को छोड़ किसी को नहीं जाने. भार्या से बढ़ कर कोई मित्र नहीं होता. धर्म, अर्थ और काम के मूल में तो भार्या है ही, साथ में मोक्ष के मूल में भी  भार्या ही है. आनंद के समय पत्नियाँ अन्यतम मित्र होतीं हैं, धार्मिक कृत्यों के समय वे पिता सदृश होती हैं और रोग-कष्ट में वे माता के सदृश होती हैं. 

“अनुरक्त पत्नियाँ यमलोक में भी अपने पतियों का साथ देती हैं. पत्नी यदि वहाँ पहले पहुँचती है तो वह अपने पति की प्रतीक्षा करती है; यदि पति पहले पहुँच जाता है तो समर्पित पत्नी शीघ्र उस के पीछे पीछे चली आती है.  विवाह का कारण यही है. पति अपनी पत्नी का साहचर्य इस लोक और परलोक दोनो जगह पाता है.

"किसी पुरुष को क्रोध में भी कभी ऐसा कुछ नही करना चाहिए जो उस की पत्नी को अच्छा नहीं लगे; पुरुष के आनंद और धर्म पत्नी पर ही निर्भर करते हैं. पत्नी ही वह पवित्र क्षेत्र हैं जहाँ से पति पुनः जन्म लेता है. ऋषि भी बिना स्त्रियों के जीवन नही रच सकते.  सब जानते हैं कि जब उस का धूलि-धूसरित पुत्र उस के पैरों से लिपट जाए तो पिता को अतुलनीय सुख और आनंद  मिलता है . और तुम अपने इस पुत्र की ओर देख भी नहीं रहे हो; अपने पुत्र को, जो तुम्हारे घुटनों पर चढ़ने के लिए लालायित है. चींटियाँ भी अपने अंडों का नाश नहीं होने देतीं और तुम अपने को धार्मिक बताते हो पर अपने पुत्र का पोषण करने से पीछे भाग रहे हो.

पुत्र के स्पर्श से बढ़ कर संसार में कोई स्पर्श सुख नहीं है – न चंदन, ना कामिनी न ही शीतल जल. यह पुत्र मेरे गर्भ में तीन वर्ष रहा है; इस के जन्म के समय आकाशवाणी हुई थी “यह सौ अश्वमेध यज्ञ करेगा”.  तुम्हारे सभी दुःखों का हरने के लिए मैं इसे यहाँ लाई हूँ. याद करो राजन, पुत्र के जात कर्म संस्कार (1) में ब्राह्मणों द्वारा उच्चारित मंत्रों के क्या अभप्राय होते हैं. “तुम ने पुत्र, मेरे शरीर से जन्म लिया है. तुम मेरे हृदय से निकले हो. पुत्र के रूप में मैं ही हूँ….”

"यह बालक  तुम्हारे शरीर से निकला है. यह तुम्ही हो. इस में तुम अपने आप को देखो जैसे किसी निर्मल जलाशय में देखते हो. जैसे यज्ञ की अग्नि घर की अग्नि से जलाई जाती है वैसे ही यह तुम से निकला है. तुम्ही ने अपने दो अंश किए हैं. मृग के आखेट के क्रम में तुम मेरे पिता के आश्रम में मुझ से मिले थे. उर्वशी, पूर्वचत्ति, सहजन्या, मेनका, विश्वाची और घृताची ये छः ही सब अप्सराओं में अग्रणी हैं. इन में भी ब्राह्मण-पुत्री मेनका प्रथम है. उसी मेनका ने मुझे, विश्वामित्र की पुत्री को जन्म दिया था. पता नहीं मैने कैसे पाप कर रखे हैं कि जन्म लेने पर माता ने मुझे त्याग दिया और अब तुम मुझे नहीं स्वीकार रहे हो.  मैं अपने पिता के पास जाने को तैयार हूँ पर अपने पुत्र को तुम्हे अवश्य रखना चाहिए.

यह सुन कर दुष्यंत ने कहा “मैं नही जानता कि कभी मैने तुम से यह पुत्र उत्पन्न किया है. वैसे भी स्त्रियाँ मिथ्या वादन करती हैं. तुम्हारी बातें विश्वास के योग्य नहीं हैं. तुम्ही कह रही हो कि ममता-हीन, आचार भ्रष्ट मेनका तुम्हारी माता है जिस ने तुम्हे हिमवत पर वैसे ही फेंक दिया था जैसे लोग पूजा के बाद पुष्पों को फेंक देते हैं. कामुक विश्वामित्र में, जो ब्राह्मण बन जाने की लालसा रखता था, भी कोई संतान-स्नेह नहीं दिख रहा है. फिर भी यह तो सत्य है कि मेनका अप्सराओं में और विश्वामित्र ऋषियों में अग्रणी है. उनकी पुत्री हो कर तुम किसी चरित्रहीन स्त्री की तरह क्यों बातें कर रही हो?  ऐसी बातें करते तुम्हे तनिक भी लज्जा नहीं आई? और वह भी मेरे सामने? तुम तपस्विनी के भेष में दुष्टा हो. 

“कहाँ वे महान ऋषि और कहाँ मेनका! और तुम; एक नीच स्त्री, तुम तापसी के भेष में क्यों हो? तुम्हारा यह पुत्र भी तुम जितनी इसकी आयु बताती हो उस से बहुत बड़ा लगता है; तुम कहती हो यह बालक है फिर यह किसी साल वृक्ष के कोंपल की तरह कैसे बढ़ गया है. तुम नीच स्त्री हो और एक भ्रष्टा की तरह बातें करती हो.  तुम जो कुछ कह रही हो वह मेरी समझ के परे है. जहाँ जाना चाहो तुम चली जाओ”.

“दूसरों के तिल के बराबर दोष भी तुम्हे दिख जाते हैं राजन”,  शकुंतला ने यह सुन कर कहा “किंतु बेल से बड़ा अपना दोष तुम्हे नहीं दिखता. मेनका देव लोक की है और इस तरह मेरा जन्म, राजन, तुम्हारे जन्म से उच्चतर है. तुम धरती पर चलते हो मैं वायु में उड़ सकती हूँ. हम दोनो में उतना ही अंतर है जितना मेरु पर्वत और सरसों के एक दाने में. मैं चाहूं तो इंद्र, कुबेर, यम और वरुण के लोकों में चली जाऊं. यह सब मैं बस उदाहरण के लिए कह रही हूँ, किसी दुर्भाव से नहीं. तुम ने सुना इस के लिए मैं क्षमा चाहती हूँ.

“जिस तरह कोई सूकर किसी उपवन में भी बस कीचड़ ही खोजता है वैसे ही दुष्ट किसी के कथन के अशुभ अंशों को ही अपने ध्यान में रख पाते हैं. हंस की तरह नीर-क्षीर अलग कर किसी की बात से शुभ को रख अशुभ को त्यागने की न उनमें क्षमता रहती हैं न उनकी ऐसी प्रवृत्ति ही रहती है.  जैसे धर्मनिष्ठ किसी की निंदा करना कष्टदायक समझते हैं वैसे ही दुष्ट दूसरों की निंदा करने में आनंद पाते हैं. और इस से बड़ी विडंबना क्या हो सकती है, राजन, कि दुष्ट ही सत्यनिष्ठों को दुष्ट बताते चलें.

“जो अपने पुत्र को स्वीकार कर सम्मान नहीं देता वह अपनी इच्छायें पूरी नहीं कर सकता, देव उसका भाग्य छीन लेते हैं. पितृ कहते हैं कि पुत्र ही वंश चलाता है और वह सभी धार्मिक कृत्यों से बढ़ कर है. मनु ने पाँच प्रकार के पुत्र बताए हैं: जो अपनी पत्नी से उत्पन्न किया गया हो, जिसे किसी ने दे दिया हो, जिसे धन दे कर खरीदा गया हो,  जिसे लाड़ से पाला गया हो और जिसे पत्नी को छोड़ अन्य किसी स्त्री से उत्पन्न किया गया हो. पुत्र अपने पिता के धर्म और उन की उपलब्धियों को संबल देते हैं, उनके आनंद को बढ़ाते हैं  और पूर्वजों को नरक से बचाते हैं. 

“राजन, आप अपने आप को संजोइए और अपने पुत्र को संजोइए. एक जलाशय बनवाना सौ कुएँ खुदवाने से अधिक पुण्य देता है. एक पुत्र किसी यज्ञ से बढ़ कर  है और सत्य सौ पुत्रों से भी बढ़ कर है. कभी सत्य और एक सौ अश्वमेध यज्ञों को तौला गया था और सत्य गुरुतर पाया गया था. सत्य वेदों के अध्ययन से और समस्त तीर्थों में स्नान के समतुल्य है. सत्य के बारबर कोई पुण्य नहीं है, सत्य से बढ़ कर कुछ भी नहीं है. सत्य ही ईश्वर है.  इस लिए, राजन, अपने वचन को मत झुठलाओ. अपने आप को सत्य से जोड़ो यदि तुम्हे मुझ पर विश्वास नहीं है तो मैं अभी चली जाती हूँ, तुम्हारे साथ नही रहना ही अच्छा है. लेकिन राजन, याद रखना तुम्हारे बाद हमारा यही लड़का पृथ्वी पर राज करेगा.”

दुष्यंत को सब सुना कर शकुंतला उस की सभा से निकल पड़ी. पर उस के निकलते ही आकाशवाणी हुई, “माँ के गर्भ से निकला पुत्र वास्तव में पिता का ही रूप है. इस लिए दुष्यंत, अपने पुत्र को अपना प्यार दो और शकुंतला का तिरस्कार मत करो. पुत्र ही यमलोक में पूर्वजों की रक्षा करता है. तुम्ही इस बालक के जनक हो. शकुंतला ने सब कुछ सत्य कहा है. पिता ही अपने दो रूप कर अपनी पत्नी के गर्भ से पुत्र रूप में निकलता है. अपने पुत्र को छोड़ने से बड़ा दुर्भाग्य क्या हो सकता है? यह वाणी सुन कर तुम इसे सॅंजो कर रखोगे (संजोने योग्य या उठाने योग्य: भरतव्यः) इस लिए आज से इसका नाम भरत रखो.”

आकाशवाणी सुन दुष्यंत अति प्रसन्न हो उठा. अपने सभासदों से उस ने कहा “सुनी आपने वह दिव्य वाणी? मैं जानता था यह मेरा पुत्र है किंतु यदि मैं उसे शकुंतला की बात पर स्वीकार कर लेता तो तरह तरह की बातें उड़तीं और मेरे पुत्र की वैधता पर भी प्रश्न चिह्न लगे रहते.”

वैशम्पायन ने कहा “आकाशवाणी से पुत्र की शुद्धता स्थापित हो जाने के बाद दुष्यंत ने अपने पुत्र का सिर सूंघ उसे अपने हृदय से लगा लिया. ब्राह्मणों ने आशीष दिए. राजा ने अपनी पत्नी को शांत करने के प्रयास किए, “देवी, हमारा मिलन एकांत में हुआ था, तुम्हारी शुद्धता भी मैं इस दिव्य वाणी से स्थापित कराना चाहता था. लोग कह सकते थे कि मैं ने कामांध हो तुम से संबंध किए थे तुम्हे पत्नी बना कर नहीं. और तुम ने जो कुछ मेरे बारे में कहा मैं ने क्षमा कर दिया है.”  राजा ने उसी दिन अपने पुत्र को भरत नाम दिया और उसे अपना उत्तराधिकारी घोषित किया

समय आने पर भरत चक्रवर्ती बना और सार्वभौम कहलाया. उस ने अनेक यज्ञ किए और ब्राह्मणों को बहुत दान दिए.  उस के अश्वमेध यज्ञ में कण्व पुरोहित थे जिन्हे भरत ने एक सहस्त्र स्वर्ण मुद्रायें दी थीं.”

भरत वंश के कुमारों के जन्म और उनके कर्मों की कथा को व्यास ने भारत नाम से लिखा जो महाभारत के नाम से विख्यात है.



(1) जात कर्म संस्कार हिंदुओं के सोलह संस्कारों में चौथा है जो शिशु के जन्म के तुरंत बाद संपन्न किया जाता है. स्वर्ण पात्र में विषम मात्रा में गाय का घी और शहद मिला कर शिशु को चटाया जाता है. उस समय जो मंत्र पढ़े जाते हैं उन्ही का वर्णन यहाँ शकुंतला दे रही है. जात कर्म के बाद ही शिशु को माता द्वारा स्तन पान कराए जाने का विधान है. 

आदि पर्व (14): शकुंतला उपाख्यान (1)

अंशों के अवतरण के वर्णन दे कर वैशम्पायन ने भरत वंश का वर्णन किया.

भरत वंश का प्रवर्तक दुष्यंत(1) एक बहुत प्रतापी राजा था. पूरी पृथ्वी उस के अधीन थी, म्लेच्छ भी उस की संप्रभुता स्वीकार करते थे. एक दिन अपने अनुचरों और अपनी चतुरंगी सेना के साथ दुष्यंत वन में आखेट के लिए निकला हुआ था. बहुत सिंहों और बाघों को मारते हुए, एक वन से निकल कर दूसरे वन और फिर तीसरे वन में जाने के क्रम में वह एक ऐसे वन में पहुँच गया जहाँ सब वृक्ष फूलों से लदे थे,  नीचे घनी हरी घास बिछी हुई थी, पक्षियों का मनोहर कलरव हो था, और हर कुछ दूरी पर फल फूल से लदे कुंज थे. यह वन से अधिक उपवन लग रहा था, जहाँ पहुँच कर किसी का मन हर्षित हो जाए.

यह वन सिद्धों, गंधर्वों और अप्सराओं का क्रीड़ा स्थल था. यहाँ की हवा सदैव शीतल और सुगंधित रहती थी. इस मनोरम वन में तपस्वियों का एक विस्तृत आश्रम था. राजा ने बाहर से ही पवित्र अग्नि का नमन किया. आश्रम के निकट मालिनी नदी बह रही थी, जिस की स्वच्छ धारा में चकवे खेल रहे थे.  नदी के दोनो तटों पर किन्नरों के आवास थे जिनके बीच अनेक मृग चर रहे थे. इसी नदी के तट पर कभी कश्यप ऋषि का आश्रम हुआ करता था. अभी कश्यप के वंशज कण्व ऋषि वहाँ रहते थे. अपने अनुचरों और अपनी सेना को उस शांत वन के बाहर रोक कर राजा दुष्यंत अपने मंत्री और अपने पुरोहित के साथ कण्व ऋषि के उस पवित्र आश्रम के अंदर गया.
  
आश्रम ब्रह्म-क्षेत्र लग रहा था. कहीं मैने अपना कलरव कर रहे थे और कहीं वैदिक ऋचाओं का सस्वर उच्चारण हो रहा था. आश्रम में अनेक वेदज्ञ ब्राह्मण थे, उन्हे व्याकरण, न्याय, मीमांसा, ज्योतिष् आदि सभी शास्त्रों का पूरा ज्ञान था, और वे पशु पक्षियों की बोली भी समझ सकते थे. राजा ने आगे बढ़ने पर व्रती ब्राह्मणों को चारो वेदों को पढ़ते देखा / सुना. और आगे बढ़ने पर राजा ने ब्राह्मणों को जप और होम करते भी पाया. ब्राह्मणों ने भी राजा को देखा और उसे बैठने के लिए एक उत्तम आसन दिया. पर राजा जितना भी उस आश्रम को देखता था उसे और अधिक देखने की इच्छा होती थी और अंत में वह अपने मंत्री और पुरोहित के साथ कश्यप ऋषि की पुरानी कुटिया को देखने के लिए आश्रम के अंदर बने ऋषियों के कुटियों के बीच विचरण करने लगा.

कुछ और आगे बढ़ने पर उस ने अपने मंत्री और पुरोहित को भी छोड़ दिया. मंत्र-मुग्ध सा वह आश्रम के अंदर बिना किसी उद्देश्य के घूमता रहा. कण्व की कुटिया के पास जब उसे ऋषि नहीं दिखे तो उस ने कुछ ऊँचे स्वर में पूछा कोई हैं यहाँ?” पर उसे कोई प्रत्युत्तर नहीं मिला, उस का प्रश्न उस शांत आश्रम में गूँजता रह गया.  कुछ समय बाद किसी तपस्वी की बेटी के भेष में श्री सदृश रूप लिए एक युवती निकली. उस ने दुष्यंत को पैर धोने के लिए जल दिया, बैठने के लिए आसन दिया और उस के कुशल क्षेम पूछे. राजा ने अपने आने का उद्देश्य बताया मैं महात्मा कण्व के दर्शन और उनके पूजन के लिए आया हूँ, कहाँ हैं वे?”
फल लाने के लिए वे आश्रम से बाहर निकले हुए हैंउस ने कहा.

राजा उस के अद्भुत सौंदर्य को निहार रहा था. उसकी स्मित मुस्कान, उसकी अनिन्द्य मुखाक्रिति, उस का तापसी सा तेज किंतु साथ में अप्सराओं से उस के अंग सौष्ठव, उस की विनम्रता, और उसका शील; यह सब देख राजा उसके बारे में जानने को बहुत उत्सुक हो गया. तुम कौन हो? किस की पुत्री हो तुम और वन में क्यों आई हो?” राजा से नहीं रहा गया और उस ने स्पष्ट कह दिया पहली दृष्टि से ही मेरा हृदय तुम पर आ गया है. मैं तुम्हारे बारे में सब कुछ जानना चाहता हूँ”.
राजन, मैं महात्मा कण्व की पुत्री हूँ
यह कैसे हो सकता है?” राजा ने कहा महात्मा कण्व ऊर्ध्वरेतस हैं. धर्मराज अपने पथ से च्युत हो सकते हैं किंतु कण्व नही. तुम कैसे उनकी पुत्री हो सकती हो? मेरे इस संशय को दूर करो”.
सुनिए, राजन, मैं अपने जन्म के विषय में जो कुछ जानती हूँ आप को सुनाती हूँउस ने कहा कभी कोई ऋषि यहाँ आए थे जिन्होने मेरे जन्म के विषय में पूछा था. उस समय महात्मा कण्व ने जो कहा था और जो मैने सुना था वह मैं आप को सुनाने जा रही हूँ.
कभी विश्वामित्र की कठोर तपस्या से इंद्र चिंतित हो उठा था कि कहीं ये ऋषि अपने तपोबल से मुझे स्वर्ग से नीचे नहीं गिरा दें. यह सब सोच उनकी तपस्या भंग करने के लिए इंद्र ने मेनका को  भेजना चाहा. मेनका नहीं जाना चाहती थी. वह जानती थी क़ि ऋषि को क्रोध आने में देर नहीं लगती और वह उनके तपोबल को भी जानती थी. उस ने इंद्र को याद दिलाया क़ि विश्वामित्र ने कभी रुष्ट हो वशिष्ट को अपने पुत्रों के असामयिक मृत्यु के कष्ट भोगने पर बाध्य कर दिया था, वह जन्म से क्षत्रिय था किंतु तप से वह ब्राह्मण बन सका था,  अपने स्नानदि के लिए उस ने इतनी गहरी नदी कौशीकी बना दी है जिसे पार करना भी आसान नहीं होता.
  
मेनका ने देवेन्द्र को मातंग मुनि की भी याद दिलाई. जब विश्वामित्र को एक शाप वश व्याध बन कर रहना पड़ा था तब मातंग ने ही विश्वामित्र की पत्नी का भरण पोषण किया था. शाप की अवधि पूरी होने पर विश्वामित्र ने पुरोहित बन कर मातंग के लिए यज्ञ कराया था जिस में, मेनका ने जोर दिया, इंद्र को ना चाहते हुए भी ऋषि के भय से सोम पान करने जाना पड़ा था. और तो और विश्वामित्र ने अपने रोष में दूसरी सृष्टि करने की भी ठान ली थी. नये ग्रह बना दिए थे और त्रिशंकु को भूमि पर गिरने से भी रोक रखा था. उस के पदाघात से पृथ्वी भी काँप जाती है. यह सब कहते हुए मेनका ने मना कर दिया.

तब इंद्र ने किसी भाँति मेनका को वायु के साथ जाने के लिए तैयार किया. वायु के साथ जब मेनका ऋषि के आश्रम में पहुँची तो उस ने ऋषि को आँखें बंद कर ध्यान मग्न पाया. दोनो रुके रहे और जब ऋषि ने आँखें खोलीं तो मेनका ने ऋषि के सामने अपने नृत्य आदि का प्रदर्शन किया. इसी समय वायु ने उसके वस्त्र उड़ा दिए. मेनका लज्जित हो अपने वस्त्रों के पीछे भागने का नाटक करने लगी पर वायु उन्हे ले कर अदृश्य हो गया. अब ऋषि निर्वसना मेनका को देख रहे थे.

उसके रूप-गुण देख ऋषि काम के वशीभूत हो गये और संकेतों में बता दिया कि वे उसका सान्निध्य चाहते हैं. मेनका सफल हुई; और ऋषि और अप्सरा एक दूसरे के साथ आनंद विनोद करते एक लंबा काल ऐसे बिता दिया जैसे वह बस एक दिन रहा हो. मेनका ने गर्भ धारण किया और समय आने पर इसी मालिनी के तट पर वह अपनी नवजात पुत्री को छोड़ चली.  वन में उस शिशु को अकेली देख, कहीं कोई हिंस्र जन्तु या कोई राक्षस उसे हानि ना पहुँचा दे, ऐसा सोच गिद्धों ने उस शिशु को घेर रखा था. कण्व जब मालिनी में स्नान करने गये थे तो पक्षियों से घिरी उस बालिका को वे उठा कर अपने आश्रम लेते आए. पक्षियों (शकुंत) ने उस की रक्षा की थी इस लिए कण्व ने उस का नाम शकुंतला रखा. कण्व ने उस आगंतुक ऋषि को अपने को शकुंतला का पिता बताया था क्योंकि शास्त्र कहते हैं की पिता तीन हो सकते हैं जन्म देने वाला, रक्षा करने वाला या पालन पोषण करने वाला.
मैं ही कण्व की पुत्री शकुंतला हूँ राजन”.

शकुंतला के जन्म का वृतांत सुन दुष्यंत ने बिना समय गँवाए उसे अपनी पत्नी बनने को कहा; प्रति दिन स्वर्णहार, वस्त्र, कर्णफूल, मोतियों की माला, भाँति भाँति के रत्न आदि देने की बात कही; और तो और अपना राज्य उसे देने लगा और तत्काल गंधर्व विवाह का प्रस्ताव रख दिया, यह कहते हुए कि सभी प्रकार के विवाहों में गंधर्व विवाह सबसे प्रथम आता है.

शकुंतला ने राजा को कुछ देर रुकने को कहा जिस से कण्व आ कर उसके हाथ राजा को सौंप सकें. पर दुष्यंत को तनिक भी विलंब नही सुहा रहा था. कोई भी व्यक्ति अपना मित्र तो होता ही है और अपने ऊपर निर्भर रह ही स्कता है. इस लिए तुम अपने आप को विवाह में निश्चित ही अर्पित कर सकती होदुष्यंत ने कहा. यह कह कर उस ने शास्त्रोक्त विवाह संस्कार का विस्तृत वर्णन किया.
शास्त्रों में आठ प्रकार(2) के विवाहों का वर्णन है:  ब्रह्म, दैव, अर्ष, प्रजपात्य, असुर, गंधर्व, राक्षस, और पैशाच. ब्रह्मा के पुत्र मनु ने वर्ण के क्रम से इनकी उपयुक्तता बताई है. पहले चार प्रकार के विवाह ब्राह्मणों के लिए उपयुक्त हैं, पहले छः क्षत्रियों के लिए;  राजाओं के लिए राक्षस विवाह भी मान्य है, असुर विवाह वैश्यों और शूद्रों के लिए मान्य है. पैशाच और असुर विवाह नहीं करने चाहिए, यही धर्म है. गंधर्व और राक्षस विवाह क्षत्रियों के लिए अनुकूल कहे गये हैं.
इस लिए शकुंतले”,  राजा ने कहा तुम कोई आशंका मन में मत रखो. हमारा गंधर्व या राक्षस विवाह या दोनो का मिला जुला रूप निस्संदेह संभव है और शास्त्र-सम्मत भी”. (3)
यह सुन शकुंतला तैयार हो गयी पर उसने शर्त रखी कि उस का पुत्र ही दुष्यंत का उत्तराधिकारी बनेगा.
राजा तैयार था. बिना सोचे उस ने कहा ऐसा ही होगा. और उसे अपनी राजधानी ले जाने का विश्वास दिलाते दिलाते दोनो एक दूसरे को पति-पत्नी के रूप में जान गये. चलते चलते दुष्यंत ने कहा था मैं तुम्हारे लिए अंग रक्षक भेजता हूँ, अपनी चतुरंगी सेना के साथ मैं तुम्हे अपनी राजधानी ले चलता हूँ”.
राजा के जाने के कुछ ही देर बाद कण्व वहाँ आए. लज्जा वश शकुंतला उनके स्वागत में बाहर नहीं निकली किंतु कण्व अपनी दिव्य दृष्टि से सब कुछ जान गये थे. उन्होने इस की स्वीकृति भी दी. मेरी प्रतीक्षा किए बिना जो तुमने आज किया शकुंतले, उस से तुम्हारे धर्म की कोई क्षति नहीं हुई है. इच्छुक युगलों में बिना किसी हवन-मंत्र के किया गया गंधर्व विवाह सर्वथा शास्त्र सम्मत है. और दुष्यंत एक धार्मिक राजा है. उस अपना पति मान कर तुम ने बहुत अच्छा किया. तुम्हारा पुत्र बहुत पराक्रमी होगा और संपूर्ण विश्व पर राज करेगा
तब शकुंतला आगे बढ़ पाई और उस ने अपने क्लांत पिता के पैर धोए और दुष्यंत पर उनकी कृपादृष्टि माँगी.
"मैं तुम्हारे चलते उसे बहुत मानने लगा हूँ", कण्व ने कहा "किंतु फिर भी तुम जो चाहो मुझ से माँग लो".
पौरव राजाओं कोशकुंतला ने माँगा कभी अपना राज्य नहीं खोना पड़े”.



(1) राजा का नाम महाभारत के भिन्न पाठों में दुष्मंत और दुःषंत आया है. कालिदास ने अभिज्ञान शाकुन्तलम में राजा का नाम दुष्यंत लिखा है और उस के बाद यही नाम प्रचलित है.
(2) आठ प्रकार के विवाहों के ऊपर महाभारत में मनुस्मृति का श्लोक 3.21 शब्दतः आया है:
ब्राह्मो दैवस्तथैवार्षः प्राजापत्यस्तथासुरः
गांधार्वो राक्षसश्चैव पैशाचश्चाष्टमः स्मृतः

(3) आठ प्रकार के विवाहों  के संक्षिप्त वर्णन:
ब्रह्म: वेदाध्ययन पूरा कर चुके लड़के के माता-पिता जब किसी योग्य लड़की के माता-पिता से विवाह का निवेदन कर विवाह सम्पन करते हैं तो वह ब्रह्म विवाह कहलाता है.
दैव: जब लड़की के माता-पिता किस वेदाध्ययन पूरा कर चुके लड़के के माता-पिता से निवेदन कर विवाह सम्पन करते हैं तो वह दैव विवाह होता है. (पहले में वर पक्ष ने पहल की है, दूसरे में वधू पक्ष ने)
अर्ष: अर्ष विवाह में वधू के माता-पिता को वर के माता-पिता दो गायें या एक गाय, एक बछड़ा और एक जोड़ा बैल देते हैं;  इसे वधू पक्ष का सम्मान माना जाता है, कन्या का मोल नहीं.
प्रजापात्य: यह ब्रह्म विवाह के समान है किंतु इस में लड़के के माता-पिता लड़के के वेदाध्ययन पूरा करने के पहले उस के लिए योग्य लड़की खोजते हैं, इस में वर और वधू दोनो अल्प्वयस्क रहते हैं
असुर: इस विवाह में लड़की मोल ली जाती है, स्‍पष्टतः इस के पीछे लड़के की अनुपयुक्तता रहती है. बहुधा अपेक्षाकृत नीचे के वर्ण / वंश का लड़का या उसके माता पिता लड़की के माता पिता को धन दे कर लड़की के हाथ लेते हैं
गंधर्व: इस विवाह में लड़का और लड़की आपसी प्रेम से एक दूसरे के हो जाते हैं
राक्षस: इस  विवाह में लड़का अपने लिए लड़की का अपहरण करता है (च्यवन की माता पुलोमा का एक राक्षस विवाह के लिए आपहरण कर रहा था जब च्यवन का जन्म हो गया था और उस का मुँह देख कर वह राक्षस जल गया था)
पैशाच: जब लड़का किसी लड़की को निद्रा में या बेसुधि में अपना बना लेता है तो यह पैशाच विवाह कहलाता है.

Friday, 24 April 2015

आदि पर्व (13): आदिवंशावतरण पर्व (2)

जनमेजय के अनुरोध पर वैशम्पायन ने महाभारत के सभी प्रमुख चरित्रों के जन्म, पूर्व-जन्म, और उनके वंशवृक्ष बताए. जैसा स्वाभाविक है सभी वंशों का आरंभ सृष्टिकर्ता पितामह ब्रह्मा से होता है. पितामह के छः मानस पुत्र थे मरीचि,  अत्रि,  अंगिरस,  पुलत्स्य,  पुलह और क्रतु. इनके अतिरिक्त एक स्थाणु भी था. पितामह के वक्ष से भृगु निकला था.  ब्रह्मा के दाहिने पैर के अंगूठे से दक्ष और बाँये पैर के अंगूठे से दक्षपत्नी उदित हुई थी. सृष्टि के समस्त जीव, जन्तुओं को ब्रह्मा ने इन्ही के द्वारा रचा है. 
दक्ष और दक्षपत्नी के कोई पुत्र नहीं थे. उन्हे पच्चास रूपवती लड़कियाँ हुईं थीं. दक्ष ने उन्हे अपनी “पुत्रिका” बनाया था, जिस से उनके पुत्र उनके पतियों और दक्ष, दोनो के रहें.

मरीचि का पुत्र कश्यप था जिस ने दक्ष की तेरह पुत्रियों से विवाह किए थे. ये तेरह थे अदिति, दिति,  दनु, काला, अनायु, सिन्हिका, मुनि, क्रोधा, प्रावा, अरिष्टा,  विनता,  कपिला और कद्रू. कश्यप की अनगिनत संतानें हुईं. प्रायः सभी प्रमुख सुर, असुर, गंधर्व, अप्सरायें और सर्प कश्यप की संतान हैं. (कश्यप की इतनी मानव संतान भी हैं कि किसी को यदि अपने गोत्र का नाम ज्ञात नहीं हो तो वह अपने को कश्यप गोत्र का बता सकता है.)    

अदिति के पुत्र आदित्य कहलाए, दिति के पुत्र दैत्य और दनु के पुत्र दानव कहलाए. काला, अनायु, सिन्हिका, और क्रोधा के पुत्र, दैत्यों और दानवों के साथ मिल कर सामूहिक नाम असुर से जाने जाते हैं.
मुनि के पुत्र गंधर्व हुए, प्राधा (या प्रावा) ने गंधर्वों और अप्सराओं को जन्म दिए और कद्रू के पुत्र सर्प हुए;  विनता के पुत्र सुरों के मित्र हैं. कपिला ने ब्राह्मणों और गौओं को जन्म दिए और कद्रू ने सर्पों को. (अरिष्टा की संतानों के नाम नहीं बताए गये हैं.)
अदिति से बारह आदित्य हुए, जो जगत के स्वामी हैं: धातृ, मित्र, अर्यमान, शक्र, वरुण, आंश, भग, विवस्वत, उषा, सविता, त्वष्टृ और विष्णु. इन में विष्णु जो कनिष्ठ हैं वही गुण और धर्म में सबों से श्रेष्ठ हैं. 
दिति को एक पुत्र हुआ था हिरण्यकशिपु, जिस के पाँच पुत्र हुए थे प्रहलाद, संह्राद, अनुह्राद, शिबी और बाष्कल.  ज्येष्ठ पुत्र प्रहलाद के तीन पुत्र हुए विरोचन, कुंभ और निकुम्भ. विरोचन का पुत्र महाप्रतापी बलि हुआ और बलि का पुत्र बाण नाम का महासुर हुआ.  बाण रुद्र का भक्त था और वह महाकाल के नाम से भी जाना जाता है. 
दनु के चालीस पुत्र हुए. उनमें ज्येष्ठ विप्रचित्ति था अन्य प्रमुख दानव थे नमुचि, पौलोम, आसिलोम, केशी, दुर्जय, अयःशिर, अश्वशिर, अयःशंकु, गगनमूर्धा, वेगवात, केटुमत, स्वरभानु, अश्व, अश्वपति, वृषपर्व, अजक, अश्वग्रीव, सूक्ष्म, टुहुण्ड, एकपाद, एकचक्र, विरूपाक्ष, महोदर, निचन्द्र, निकुम्भ, कुपथ, कपथ, शरभ, शलभ, सूर्य, चंद्रमा (सूर्य और चंद्रमा जो देव हैं वे दनु के पुत्र नहीं हैं), एकाक्ष, अमृतप, प्रलंब, नरक, वातापी, शत्रुतपन, शठ, गविश्ठ, वानायू, और दीर्घजिह्वा. (चालीस पुत्र बताने के बाद, बंगाल और बोरी दोनो पाठों में ये बयालीस पुत्रों के नाम गिनाए गये हैं.)
सिन्हिका के पुत्र हुए राहु (जो अभी भी सूर्य और चंद्रमा को सताता है), सुचन्द्र, चन्द्रहन्त्रि, और चन्द्रविमर्दन.
क्रूर (क्रोधा) को उसी के समान दुष्ट असंख्य संतान हुईं.
अनायु के चार महासुर पुत्र हुए विक्षर, बाल, वीर और वृत्र.
काल के यम के समान हुए अनेक पुत्रों में प्रमुख थे विनाशन, क्रोध, क्रोधहन्त्रि, और क्रोधशत्रु.
विनता के पुत्र थे तार्क्ष्य, अरिष्टनेमि, गरुड़, अरुण, आरुणी और वारुणी.
कद्रू के सहस्त्र पुत्रों में प्रमुख थे शेष या अनंत, वासुकी, तक्षक, कुमार, और कुलिका
दक्ष पुत्री मुनि के सोलह पुत्र हुए भीमसेन, उग्रसेन, सुपर्ण, वरुण, गोपति,धृतराष्ट्र, सूर्यावर्चस, सत्यवाचस, अर्कपर्ण, प्रयुत, भीम, चित्ररथ, कलिशिर, पर्जन्य, कली, और नारद. ये देव या गंधर्व हैं.
प्राधा की पुत्रियाँ थीं अनावद्या, मनुवशा, मनुनामप्रिया, अनुपा, सुभगा और भासी. उसके गंधर्व पुत्र थे सिद्ध, पूर्ण, बर्हिं, पूर्णाश, ब्रह्मचारी, रतिगुण, सुपर्ण, विश्ववसु, भानु, सुचंद्र, अतिवाहु, हहा, हुहू और तुंबुरू. प्राधा ने अनेक अप्सराओं को भी जन्म दिए थे:  अलम्बुस, मिश्रकेशी, विद्युत्पर्णा, तुलानघा, अरुणा, रक्षिता, रंभा, मनोरमा, असिता, सुबाहु, सुव्रता, सुप्रिया और सुभुजा.
कपिला ने गौ, ब्राह्मण, गंधर्व और अप्सराओं को जन्म दिए थे.
स्थाणु के ग्यारह पुत्र हुए थे: मृगव्याध, सर्प (शर्व), निर्ऋति, अजैकपात, अहिर्बुन्ध्य, पिनाकी, दहन, ईश्वर, कपाली, स्थाणु, भार्ग (भव). ये रुद्र कहलाते हैं. (बंगाल और बोरी पाठों में कुछेक नाम भिन्न हैं, ऐसी स्थिति में कोष्ठ में बोरी पाठ के नाम हैं. ध्यातव्य है कि ग्यारह रुद्रों के नाम वाल्मीकि रामायण, भागवत, अग्नि पुराण आदि में भी दिए गये हैं जो महाभारत में दिए गये नामों से भिन्न हैं.)  

ये तो हुए मरीचि-पुत्र कश्यप और स्थाणु की संतानें. अन्य ऋषियों (जो ब्रह्मा के मानस पुत्र थे) के पुत्रों के वर्णन इस प्रकार हैं: 
अंगिरस के पुत्र हैं वृहस्पति, अथत्य, और सम्वर्त; अत्रि के अनेक पुत्र हुए जो सभी वेद वेदांगों में पारंगत थे. पुलस्त्य के पुत्र राक्षस, वानर, किन्नर(1) और यक्ष हैं. पुलह के पुत्र शलभ (पतंगे, उड़ने वाले कीड़े), सिंह, किम्पुरुष(2), बाघ, भालू और भेड़िए बताए गये हैं. (बोरी पाठ में शलभ, भालू और भेड़िए नहीं हैं पर मृगों को पुलह के पुत्र कहा गया है.) क्रतु के पवित्र पुत्र सूर्य के सहचर (वालिखिल्य ऋषि) हैं 

दक्ष की दस पुत्रियाँ धर्म से व्याही गयीं थीं,  सत्ताईस चंद्रमा से और जैसा कहा जा चुका है तेरह कश्यप से. धर्म की पत्नियाँ हैं: कीर्ति, लक्ष्मी, धृति, मेधा, पुष्टि, श्रद्धा, क्रिया, बुद्धि, लज्जा और मति. सोम (चंद्रमा) की सत्ताईस पत्नियाँ काल-निर्णय में लगी हुईं हैं. वे नक्षत्र हैं और योगिनी भी; वे तीनो लोकों के पथ प्रशस्त करती हैं. 

ब्रह्मा का एक पुत्र मनु भी था. मनु के पुत्र का नाम प्रजापति था, प्रजापति के आठ पुत्र देवलोक में वसु हैं. उनके नाम हैं धर, ध्रुव, सोम, अह, अनिल, अनल, प्रत्यूष और प्रभास. इन में धर और ध्रुव की माता धूम्रा थी, चंद्रमा और अनिल की श्वसा, अह की माता रता थी, अनल की शाँडिल्या और प्रत्यूष एवं प्रभास की माता प्रभाता थी.

धर के दो पुत्र हैं, द्रविण और हुतहव्यवह. ध्रुव का पुत्र काल है त्रिलोक का नाशकर्ता. सोम का पुत्र वर्चस है. वर्चस और उसकी पुत्री मनोहरा के तीन पुत्र हैं, शिशिर, प्राण और रमण. अह के पुत्र हैं ज्योति, साम, शांत और मुनि. अग्नि का पुत्र कुमार है जो कार्तिकेय भी कहलाता है क्यों कि उसका पोषण कृत्तिका ने किया था. कुमार के बाद उसे तीन पुत्र और हुए, शाख, विशाख और नागमेश. अनिल की पत्नी शिवा है; शिवा और अनिल के दो पुत्र हैं पुरोजव और अविज्ञातगति. प्रत्यूष का पुत्र देवल नाम का ऋषि है जिस के दो पुत्र थे. वृहस्पति की बहन प्रभास की पत्नी थी. उसका पुत्र हुआ विश्वकर्मा, वास्तुविद् और महाशिल्पी, जिस ने सहस्त्रो आभूषण बनाए, दिव्य रथों का निर्माण किया और जिस की आज भी मनुष्य पूजा करते हैं.
धर्म का जन्म पितामह ब्रह्मा के दाहिने वक्ष से हुआ था. उस के तीन पुत्र हैं, साम, काम और हर्ष (शांति, इच्छा और आनंद). काम की पत्नी रति है, साम की प्राप्ति और हर्ष की नंदी. सवितुर की पत्नी त्वाष्ट्रि थी जिस ने वडवा (घोड़ी) के रूप में अश्विनी कुमारों को जन्म दिए.
भृगु का जन्म भी पितामह के वक्ष से हुआ था. भृगु के पुत्र शुक्र ने अपने तपोबल से अपने दो रूप किए थे. एक में वह ग्रह बन कर यात्रियों की रक्षा करता था और दूसरे में वह असुरों का गुरु था. उस के चार पुत्र भी असुरों के पुरोहित थे. उनमें दो प्रमुख थे  तष्टधर और अत्रि. भृगु को एक और पुत्र हुआ च्यवन जिस के जन्म से उस की माँ एक राक्षस के हाथों से मुक्त हो सकी थी.
मनु पुत्री आरुषि च्यवन की एक पत्नी थी जिस का पुत्र और्व हुआ, और्व का पुत्र रिचिक और रिचिक का पुत्र जमदाग्नि हुआ. जमदाग्नि के चार पुत्रों में कनिष्ठ पुत्र राम सब से श्रेष्ठ निकला. वह शस्त्र-विद्या में पारंगत था और उस ने अनेक बार सृष्टि को क्षत्रिय विहीन कर दिए थे.
ब्रह्मा के दो और पुत्र थे धातृ और विधातृ जो मनु के साथ रहे. शुक्र की पुत्री दिवि वरुण की ज्येष्ठा भार्या बनी. उस का पुत्र बल था और पुत्री सुरा (मदिरा).
जब भोजन की कमी से जीव एक दूसरे का भक्षण करने लगे तो अधर्म का जन्म हुआ. अधर्म सब प्राणियों का नाश करता है. उसकी पत्नी निरिति है, उनके पुत्र राक्षस हैं जो नैर्ऋत कहलाते हैं. मुक्य नैर्ऋत हैं भय, महाभय और मृत्यु.

ताम्रा की पाँच पुत्रियों से काक, शुक, हंस, श्येन आदि सभी पक्षियों के जन्म हुए और क्रोधा की नौ पुत्रियों से सभी पशुओं के, और वृक्षो के जन्म हुए. क्रोधा की पुत्री श्येनि अरुण की पत्नी थी. उनके पुत्र थे संपाती और जटायु.

जनमेजय के पूछने पर वैशम्पायन ने देव, दानव, राक्षस आदि के मनुष्य रूप में जन्म लेने के विवरण दिए.

असुर विप्रचित्ति ने मगध के राजा जरासंध के रूप में जन्म लिया था, हिरण्यकशिपु ने शिशुपाल के रूप में और प्रहलाद के अनुज संहलाद  ने शल्य के रूप में. राजा भगदत्त असुर विशाख का रूप था और केकेय वंश के राजाओं के रूप में पाँच महान असुरों ने जन्म लिए थे. राजा उग्रसेन (कन्स के पिता) के रूप में असुर स्वरभानु ने जन्म लिया था,  वृषपर्व राजा दीर्घप्रज्ञा के रूप में और वृषपर्व का अनुज अजक ने शाल्व नरेश के रूप में जन्म लिए थे.

सूक्ष्म पृथ्वी पर राजा वृहदरथ बना,  इशप राजा नग्नजित (सत्यभामा का पिता), शरभ ने राजर्षि पौरव के रूप में जन्म लिया,  दिति-पुत्र चंद्र ने कांबोजों के राजा चंद्रवर्मा के रूप में और दुर्जय ने विदर्भ के राजा रुक्मि (रुक्मिणी का भाई) के रूप में जन्म लिए थे. असुर कालनेमि ने पृथ्वी पर कन्स के रूप में जन्म लिया था. (यह सूची बहुत लंबी है मैंने बस उन्ही के विषय में लिखा है जो अपने असुर या मनुष्य रूप में विख्यात रहे हैं.)

भरद्वाज पुत्र द्रोण में वृहस्पति का अंश था, और उसके पुत्र अश्वत्थामा में महादेव, काम, यम, और क्रोध के अंश थे. वशिष्ठ के शाप से आठो वसुओं ने गंगा और शांतनु के पुत्रों के रूप में जन्म लिए थे. उनमें कनिष्ठ भीष्म था जिस ने जमदाग्नि पुत्र राम से युद्ध किया था.
कृपा रुद्रों के अंश से उत्पन्न हुआ था. शकुनी के रूप में द्वापर (युग) आया था और दुर्योधन के रूप में कलि. दुर्योधन के भाई के रूप में राक्षस आए थे.
वृष्णि वीर सात्यकि, नारयणी सेना का सेनापति कृतवर्मा, पांचाल नरेश द्रुपद और मत्स्य राज विराट, इन चारो में मारुतों के अंश थे.
अरिष्टा के पुत्र ने, जो हंस के नाम से कभी गंधर्व राज भी बना था, धृतराष्ट्र के रूप में जन्म लिया था और  विदुर में, जो धर्मराज था, अत्रि के अंश थे. 
सोम के पुत्र वर्चस ने अभिमन्यु के रूप में जन्म लिया था. जब ब्रह्मा के आदेश पर देव गण पृथ्वी पर जन्म ले रहे थे सोम अपने पुत्र को नहीं जाने देना चाहता था. जब उस ने सुना कि नारायण का मित्र नर भी अर्जुन के रूप में पृथ्वी पर जा रहा है और कि नारायण स्वयं अवतार ले रहे हैं तो उस ने वर्चस को जाने दिया पर इस शर्त पर कि जितना शीघ्र हो वह वापस चला आए. और यह भी कि उस का पुत्र एक ऐसे युद्ध में अपना पराक्रम दिखाए जिस में नर और नारायण उस के साथ नहीं रहें.
दृष्टद्युम्न में अग्नि के अंश थे और शिखण्डिन के रूप में एक राक्षस ने जन्म लिया था. द्रौपदी के पाँचो पुत्र विश्वदेव थे.
सूर्य-पुत्र कर्ण के जन्म का वृतांत बता कर वैशम्पायन ने कहा कि बलदेव में शेषनाग के अंश थे और प्र्द्युम्न में सनत कुमार के. श्री कृष  की सोलह सहस्त्र पत्नियों में अप्सराओं के अंश थे. नारायण को प्रसन्न रखने के लिए श्री के अंश रुक्मिणी में आए थे; इंद्राणी शची के अंश द्रौपदी में थे और सिद्धि और धृति पांडवों की माता कुंती और माद्री बन कर आईं थीं. सुबल-पुत्री गांधारी के रूप में मति आई थी.

यह सब सुना कर वैशम्पायन ने कहा “मैने राजन, सभी देव, गंधर्व, अप्सरा और राक्षासों के अंशों के अवतरण सुनायें हैं. अंशों के अवतरण की यह कथा धन, कीर्ति, संतान और दीर्घ जीवन देती है.”



(1) किन्नर का प्रयोग आज कल हिजड़ों के लिए किया जाता है. पुराणों में किन्नरों का वर्णन हय-ग्रीव (ऐसे मनुष्य जिनके गर्दन और मुँह घोड़े के हों) के रूप में किया गया है;  महाभारत में किन्नरों को आधा मनुष्य और आधा अश्व बताया गया है. (पाश्चात्य मिथकों के सेन्टौर से तुलना की जा सकती है). पुराणों और महाभारत के अनुसार किन्नरों का देश हिमालय में था और भारत के समतली मैदानों के व्यक्तियों के लिए वे आश्चर्यजनक जीव थे. वन-पर्व में पांडवों के किन्नरों के देश में जाने का वर्णन आया है. वर्तमान हिमाचल प्रदेश के किन्नौर को किन्नरों के इस पुरा-ऐतिहासिक देश से बहुधा जोड़ा गया है.

(2) किम्पुरुषों को आधा मनुष्य आधा सिंह, जिनके मुख सिंह के हो, बताया गया है. ये हिमालय के किसी अगम्य क्षेत्र में रहते थे. किम्पुरुषों के अनेक सन्दर्भ महाभारत में आए हैं. राजसूय यज्ञ के पहले (महाभारत के सभा पर्व के दिग्विजय पर्व में) अर्जुन ने उत्तर के देशों को जीतने के क्रम में किम्पुरुषों के देश को भी जीता था और एक किम्पुरुष गुरु द्रुम ने युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में भाग भी लिया था. इसी द्रुम को रुक्मिणी के भाई, विदर्भ के राजा रुक्मि का गुरु भी बताया गया है.